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जातिवादी मुखौटों की शिनाख़्त करतीं असंगघोष की कविताएं

असंगघोष का कविकर्म सामाजिक गलियारों में फैली जातिवादी सड़ांध को उजागर करने का काम करता है। तथा कथित उच्च श्रेणी के हिंदुओं ने ब्राह्मणवाद के रसायन से जातिवाद का जो घोल तैयार किया है, उसने न सिर्फ़ दलितों को अछूत बनाया बल्कि देश की गरिमा को भी धूमिल कर कर डाला। पढ़ें, सुरेश कुमार की समीक्षा

पुस्तक समीक्षा

असंगघोष दलित साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। ‘हत्यारे फिर आएंगे’ यह उनका ताज़ा कविता संग्रह हैं। यह संग्रह के मार्फत वे दलित विमर्श की ज़मीन पर खड़े होकर विभाजनकारी निर्मितियों की बड़ी तीखी आलोचना कर, मनुष्यता के दायरे का विस्तार करते हैं। इस संग्रह की कविताएं नयी सदी की जातिवादी गतिविधियों का जायज़ा लेती हैं और इस बात की तसदीक़ करती हैं कि तथाकथित सवर्ण पृष्ठभूमि के लोग संविधान और साहित्य की रोशनी में भी जातिवादी आचरण से मुक्त नहीं हो पाए हैं। इस संग्रह की कविताओं में दलित समाज की जो दृश्यावलिया उभरी हैं, उसे देखकर लगता है कि रोज़मर्रा के जीवन में दलितों को जातिवाद चलते तमाम तरह की प्रताड़ना और अपमान का सामना करना पड़ रहा है। 

देखा जाए तो यह उच्च श्रेणी का समाज अपने आचरण और व्यवहार में दलितों के साथ सहज होने के बजाए श्रेष्ठता बोध के साथ पेश आता है। श्रेष्ठता बोध की हनक में वह दलितों पर अत्याचार करता है। इस अत्याचारी और जुल्मी व्यवस्था से संकलन की कविताएं मुठभेड़ करती हैं। असंगघोष अपनी कविता ‘चलो नगें पांव निकलते हैं’ में बड़े मारक सवाल उठाते हैं। वह बताते हैं कि सारे विदेशी आक्रांता घोड़ी पर ही चढ़कर आयें है, लेकिन उच्च श्रेणी के हिंदुओं को दिक्कत सिर्फ दलितों के घोड़ी पर चढ़ने से होती है। असंगघोष लिखते हैं– “घोड़ी पर चढ़ने का जन्मनाधिकार है /टुटपुंजियों का/ हम जैसे गरीब गुरबों का नहीं/ देश में आए सारे विदेशी आक्रांता घोढ़ी चढ़े …।” 

हम कवि की रचना प्रक्रिया को देखे तो शुरुआती दौर से ही जातिवाद के खिलाफ़ गोलबंदी अपनी कविताओं के हवाले से करते आ रहे हैं। उनकी कविताएं अपने स्वभाव और तासीर में ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ़ प्रतिरोध की ज़मीन तैयार करती हैं। उनके यहां ब्राह्मणवादी व्यवस्था की शिनाख़्त ‘खुंखार’ के तौर पर होती है। इस संग्रह की ‘गिद्ध’ कविता की पंक्तियां कहती हैं– “हम ढ़ोर नहीं है/ कि तुम हुमें नोचते हुए खा जाओगे /हम धरती पुत्र है।” 

कवि की यह कविता जहां एक तरफ जातिवादी ताकतों को चुनौती पेश करती हैं, वहीं प्रतिरोध के स्वर को भी बुलंद करती हैं। असंगघोष अपनी कविता के मार्फत से ब्राह्मणवादी पाखंड का बड़ा तीखा विरोध करते हैं। वह स्वर-नर्क और ईश्वर के होने पर सवाल उठाते हैं। संग्रह की ‘बैकुंठ’,‘मरखणी गाय’ और ‘मोक्ष का रास्ता’ जैसी कविताओं के हवाले से बहुजन समाज को ब्राह्मणवादी पाखंड की चालों-कुचालों से सावधान रहने की सलाह देते हैं। इस संकलन में दर्ज़ कविताएं बताती हैं कि दलित अब कोई मिट्टी के माधव नहीं है। उनमें चेतना का विस्तार हुआ हैं। वह इस चेतना के बल पर सामाजिक अन्याय और शोषण का खुलकर प्रतिकार करने लगे हैं। 

इसी संग्रह की ‘अपनी कहो’ कविता में असंगघोष कहते हैं– “मैं हाड़ मांस का सिर्फ पुतला नहीं हूँ / चार कंधों पर चढ़ कर / श्मशान जाने वाली /लाश भी नहीं हूं /इसलिए मेरे पास देह और दिमाग / दोनों सलामत हैं / तुम अपनी कहो।” 

असंगघोष का कविकर्म सामाजिक गलियारों में फैली जातिवादी सड़ांध को उजागर करने का काम करता है। तथा कथित उच्च श्रेणी के हिंदुओं ने ब्राह्मणवाद के रसायन से जातिवाद का जो घोल तैयार किया है, उसने न सिर्फ़ दलितों को अछूत बनाया बल्कि देश की गरिमा को भी धूमिल कर कर डाला। इस संग्रह की ‘आखिर कब तक’,‘कहां से आएगा ईश्वर’, ‘दुर्गंध मारता पानी’, ‘मंतव्य’, ‘कलदार’ और ‘ढोंग’ आदि कविताओं में भेदभाव की खाई चौड़ी करने वाली शक्तियों की धर-पकड़ हुई हैं। 

कवि असंगघोष और उनकी समीक्षित किताब का आवरण पृष्ठ

इसमें कोई दो राय नहीं है कि ब्राह्मणवादी शक्तियां ही भेदभाव वाली संरचना की सृष्टिकर्ता हैं। इनके द्वारा ही दलितों पर अमानवीय सहिंताएं लादी गईं, जिनसे दलितों के वजूद और अस्मिता को भरा धक्का लगा है। हिंदू धर्म के भीतर दलितों की अस्मिता और पहचान को विकृत कर डाला गया। 

इस नयी सदी में भी दलितों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक प्रगति उच्च श्रेणी के हिन्दुओं को रास नहीं आती है। वह दलित को स्मृतियों और शास्त्रों की परिभाषा के अनुरूप ही देखने के अभ्यस्त हैं। असंगघोष ‘कौन सा हिन्दू हूं’ कविता में बताते हैं कि हिंदू धर्म अपनी प्रवृति में सर्वसमावेशी मूल्यों वाला नहीं रहा है। सदियों से हिंदू धर्म की परिधि में दलित घृणा के पात्र माने जाते रहे हैं। हिन्दू धर्म के दायरे में दलितों को गुलामी के सिवा मान-सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो सकती है। इस कविता की अंतिम पंक्तियां सवाल करती हैं– “यह कौन सा हिन्दुत्व है / यह कैसा सनातन धर्म है / जो बहुत बड़े हिस्से को सदियों से /गुलाम और केवल गुलाम / बनाए रखना चहता है।” 

 यह संग्रह केवल जातिवादी विभीषकाओं को ही केवल सामने नहीं लाता है बल्कि मानवीय मूल्यों के क्षरण की विद्रूपता को भी उजागर करता है। इससे ज़्यादा मानवीय मूल्यों का क्षरण और क्या हो सकता है कि महज़ थोड़े अनाज के लिए आदिवासियों पर जुल्म और अत्याचार किया जाता है। इस संग्रह की ‘दो किलो चावल और मौत’ कविता निष्ठुर होती संवेदनाओं को बड़ी शिद्दत के साथ सामने रखती है। यह कविता सवाल उठती है कि दलितों और आदिवासियों को लेकर यह तथाकथित सवर्ण समाज इस कदर तक संवेदनहीन हो चुका है कि जुल्म की सारे हदे पार कर जाता है। 

यह संकलन दलितों के मूल्य, श्रम, अस्मिता और उनकी गरिमा की प्रतिष्ठा करता है और सामाजिक परदादारियों के पीछे छिपे जातिवादी मुखौटों को उघाड़ कर रख देता हैं। ब्राह्मणवादी संरचना पर प्रश्नवाचक की मुद्रा अख्तियार करते हुए, जातिविहीन और शोषणविहीन समाज की परिकल्पना ही कविताओं का महती उद्देश्य है।

समीक्षित पुस्तक : हत्यारे फिर आएंगे (काव्य संग्रह)

कवि : असंगघोष

प्रकाशक : सान्निध्य बुक्स, एक्स /3282,गली नं. 4, रघुबरपुरा नं. 2, गांधीनगर, दिल्ली 

मूल्य : 350 रुपए

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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