आजमगढ़ और रामपुर का उप चुनाव हुआ। वहां पर पसमांदा समाज की निर्णायक आबादी रही है। इन दोनों सीटों पर भाजपा को जीत मिली, जबकि दोनों को सपा का गढ़ माना जाता है। आप इसे किस रूप में देखते हैं?
देखिए पहले बड़ी तस्वीर देखने की कोशिश करनी चाहिए। जब भी कहीं कोई उपचुनाव होता है तो सत्तासीन दल को लाभ मिलता ही है। आम चुनाव और उपचुनाव में काफी अंतर है। आपने रामपुर और आजमगढ़ के नतीजों का जिक्र किया। यह जरूर है कि ये दोनों ऐसे लोकसभा क्षेत्र हैं जो समाजवादी पार्टी के गढ़ रहे हैं। समाजवादी पार्टी, लगातार यहां से चुनाव जीतती रही है। लेकिन ये जो उपचुनाव हुए दोनों जगहों पर समाजवादी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा और भाजपा ने दोनों जगहों पर जीत हासिल की। अब यह देखने की जरूरत है कि राज्य में सरकार किसकी है। और इस समय उत्तर प्रदेश में सरकार भाजपा की है और अगर आप नजर दौड़ाएं, इन दो लोकसभा के साथ कई अन्य विधानसभा क्षेत्रों में भी उपचुनाव हुए थे। और आप देखिए, ट्रेंड ऐसा ही रहा है कि जिस पार्टी की सरकार होती है, और जब सरकार बनने के कुछ महीनों बाद कम से कम साल भर के अंदर-अंदर जब भी उपचुनाव होते हैं, तो आमूमन जिस पार्टी की सरकार होती है उस पार्टी के पास अपर हैंड होता है। उस पार्टी के जीतने की गुंजाइश रहती है। मेरी समझ में कोई बहुत अप्रत्याशित जीत नहीं हुई है भाजपा की। वैसे यह इस मामले में अप्रत्याशित भी है कि दोनों लोकसभा क्षेत्र मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र हैं। हालांकि बाहुल्य का मतलब मिजोरटी नहीं है और खासकर पसमांदा वोटर को लेकर, लेकिन उनकी तादात बहुत ज्यादा है। इस लिहाज से समाजवादी पार्टी को झटका लगा है दोनों जगहों पर, लेकिन इसका सीधा-सीधा अर्थ निकाल लेना कि पसमांदा समाज ने सपा का साथ छोड़ दिया है और उन्होंने भाजपा को वोट किया है, ऐसा सोचना, थोड़ी जल्दबाजी होगी। हां यह जरूर है कि कहीं न कहीं यह संकेत मिलता है कि मुस्लिम मतदाताओं ने बढ़-चढ़कर वोट नहीं किया है। जितना उत्साह विधानसभा चुनाव में देखने को मिला, वैसा उपचुनाव में देखने को नहीं मिला। इसकी वजह बहुत साफ है। असेंबली इलेक्शन राज्य में सरकार बनाने का चुनाव होता है और तब लग रहा था कि समाजवादी पार्टी चुनाव जीतने के करीब है। सरकार बना सकती है। ऐसे मतदाता, जो समाजवादी पार्टी का समर्थन करते है, उनमें उत्साह था। उन्होंने बढ़-चढ़कर वोट किया, जिसमें पसमांदा मुस्लिम वोटरों की भागीदारी बड़ी थी, लेकिन ये चुनाव आम चुनाव नहीं था जिससे कोई सरकार बनती या सरकार की सेहत में कोई फर्क पड़ता। इस वजह से मुस्लिमों में थोड़ा उत्साह कम रहा होगा और इसमें पसमांदा मुसलमान का और कम रहा होगा। क्योंकि जैसा कि आपने जिक्र किया कि ये ऐसे लोग हैं जो समाज में हाशिए पर हैं, उनकी रोज की जद्दोजहद की वजह से भी शायद उनका इंट्रेस्ट कम रहा और सपा को दोनों जगहों पर हार का सामना करना पड़ा। लेकिन मैं फिर कहूंगा यह जल्दबाजी होगी यदि हम यह निष्कर्ष मान लें कि पसमांदा मुसलमानों ने सपा का साथ छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया है। ऐसा होता हुआ मुझे इन दो नतीजों से दिखाई नहीं देता है।