भारत में नागरिकों को सूचना का अधिकार दिलाने की सबसे पहली पहल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 2005 में इसके लिए कानून बनाए जाने से भी 29 साल पहले की गई थी। तब वर्ष 1976 में राजनारायण बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले में न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया था कि लोग तब तक कह और अभिव्यक्त नहीं कर सकते जब तक कि वे जानेंगे नहीं। इसी कारण सूचना का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 में निहित है। इसी प्रकरण में, सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि भारत एक लोकतंत्र है, लोग मालिक हैं, इसलिए लोगों को यह जानने का अधिकार है कि सरकारें, जो उनकी सेवा के लिए हैं, क्या कर रहीं हैं? न्यायालय का तर्क था कि प्रत्येक नागरिक करदाता है। नागरिकों के पास यह जानने का अधिकार है कि उनका धन किस प्रकार खर्च हो रहा है। बाद में बेनेट कॉलमैन एंड कंपनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, एस.पी. गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बांबे) प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, डी.के. बासु बनाम पं. बंगाल राज्य, यूनियन ऑफ इंडिया तथा रिलायंस पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड बनाम इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बांबे) प्राइवेट लिमिटेड सरीखे कई प्रकरणों में इसे मौलिक अधिकारों की श्रेणी में बरकरार रखा गया।
हालांकि भारतीय संविधान विशिष्ट रूप से सूचना के अधिकार का उल्लेख नहीं करता, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णय इसे ऐसे मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देते हैं, जो लोकतांत्रिक कार्य संचालन के लिये जरूरी है। विशिष्ट रूप से कहें तो सर्वोच्च न्यायालय ने सूचना के अधिकार को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) (ए) द्वारा गारंटी प्राप्त बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अभिन्न अंग और अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटी प्राप्त जीवन के अधिकार के एक आवश्यक अंग के रूप में मान्यता दी है। सूचना तक पहुंच बनाने का अधिकार वस्तुतः इस तथ्य को दर्शाता है कि सूचनाएं जनता की धरोहर होती हैं, न कि उस सरकारी संस्था की, जिसके पास ये मौजूद होती हैं। सूचना पर किसी विभाग या सरकार का ‘स्वामित्व’ नहीं होता। सूचनाओं को जनसेवकों द्वारा जनता के पैसे से एकत्रित किया जाता है, उनके लिये सार्वजनिक कोष से पैसा अदा किया जाता है और उन्हें जनता के लिए उनकी धरोहर के रूप में संभाल कर रखा जाता है। इसका अर्थ है कि आपको सरकारी कार्रवाइयों, निर्णयों, नीतियों, निर्णय प्रक्रियाओं और यहां तक कि कुछ मामलों में निजी संस्थानों व व्यक्तियों के पास उपलब्ध सूचनाएं मांगने/पाने का अधिकार है।
इन्हीं बातों को केंद्र में रखकर वर्ष 2005 में सूचना का अधिकार को कानूनी मान्यता देने सूचना का अधिकार अधिनियम पारित किया गया। इसके बाद भ्रष्टाचार से संबंधित कई मामलों का पर्दाफाश सूचना का अधिकार कानून के तहत जानकारी प्राप्त कर किया गया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण था मध्य प्रदेश का चर्चित व्यापमं घोटाला। ग्वालियर के आरटीआइ कार्यकर्ता आशीष चतुर्वेदी ने वर्ष 2009 में गजराजा मेडिकल कॉलेज में चिकित्सा शिक्षा भर्ती घोटाले का पर्दाफाश किया था। इसके बाद वे निजी मेडिकल कॉलेजों में छात्रों को प्रवेश देने की धांधली सबके सामने लाए। घोटाले की व्यापकता वर्ष 2013 में तब समाने आई, जब इंदौर पुलिस ने 2009 की पीएमटी प्रवेश से जुड़े 20 नकली अभ्यर्थियों को पकड़ा। तब पता चला कि असली अभ्यर्थी परीक्षा देने ही नहीं आए। उनके स्थान पर दूसरों ने परीक्षा दी और पास करा दिया। फर्जी अभ्यर्थियों से पूछताछ में जगदीश सागर का नाम मुख्य आरोपी के रूप में सामने आया। उसकी गिरफ्तारी के बाद 26 अगस्त, 2013 को एसटीएफ (स्पेशल टास्क फोर्स) की स्थापना की गई। एसटीएफ ने जांच व गिरफ्तारी की तो इसमें नेता, व्यापमं के अधिकारी, बिचौलिए, उम्मीदवारों के माता-पिता के नाम भी घोटाले में सबके सामने आए। 2015 तक प्रदेशभर में करीब दो हजार लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी थी, इनमें कई जेल गए तो कई कुछ समय बाद सलाखों से बाहर आ गए। वर्ष 2015 में यह व्यापमं की जांच सीबीआइ के पास चली गई।
मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान सरकार द्वारा सुशासन और भ्रष्टाचार मुक्त शासन के दावों के बावजूद सूचना का अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी बड़ी मेहनत से दबाई गई सड़ांध को सामने लाती रही। इसमें राज्य के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा के प्रभाव वाले दतिया के शासकीय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय में खेल के मद में की गई खरीदारी, भोपाल व धार में नगर निगम तथा नगर पालिका में डीजल सहित अन्य फर्जीवाड़ा, कोरोना काल में वापिस आए मजदूरों को रोजगार उपलब्ध कराने के नाम पर उमरिया जिला में जलाभिषेक अभियान के तहत बनाए गए तालाबों में फर्जीवाड़ा, मुरैना नगर निगम में कर्मचारियों की भर्ती से लेकर समान खरीदी और निर्माण कार्यों में धांधली आदि तो महज बानगी है कि चौहान सरकार में सरकारी नौकरों, नेताओं और माफिया का गठजोड़ किस तरह हावी हो चला है। मगर, सबसे कुख्यात और बहुचर्चित घोटाला व्यापमं का ही रहा, जिसकी आंच खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके परिवार वालों तक भी पहुंची।
भ्रष्टाचार का आलम इस हद तक था कि निजी चिकित्सा महाविद्यालय और शासन के अधिकारियों की सांठ-गांठ से निजी चिकित्सा महाविद्यालयों की शासन के कोटे की सीटों को बेचे जाने से संबंधित दस्तावेज ही ग्वालियर के गजराजा चिकित्सा महाविद्यालय से गायब कर दिए गए। लगभग साल भर की जांच के बाद झांसी रोड थाना पुलिस ने पुलिस हस्तक्षेप के अयोग्य अपराध में एनसीआर काट प्रकरण को अपने स्तर पर खत्म ही कर दिया।
सूचना का अधिकार को लेकर कार्यरत व्यक्ति एवं संगठनों के अनुसार व्यापमं में हुए श्रृंखलाबद्ध घोटालों के सामने लाने के बाद ही शिवराज सरकार ने राज्य सूचना आयोग को पंगु बनाने के उपायों के बारे में सोचना शुरु कर दिया था। उन्होंने एक ओर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति करने से परहेज रखा, वहीं 2018 में हुए विधानसभा चुनावों से ठीक पहले उन व्यक्तियों की सूचना आयुक्त के तौर पर नियुक्ति की, जो आरएसएस और भाजपा के करीबी माने जाते रहे हैं। शिवराज चौहान सरकार सूचना का अधिकार को लेकर कितनी असंवेदनशील है, इस बात का अनुमान इसी बात से लगायाया जा सकता है कि सूचना आयोग में आयुक्तों के छह पद रिक्त पड़े हैं, जिसका खमियाजा अपीलाकर्ताओं को भुगतना पड़ रहा है। वे आरोप लगाते हैं कि इससे जहां एक ओर सुनवाई में देरी हो रही है वहीं अधिकांश मामलों में सूचना आयुक्त जानकारी उपलब्ध न करवाने के लिए कोई न कोई आधार तलाश करते नजर आते हैं।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय, जबलपुर के युवा अधिवक्ता सिद्धार्थ सिंह का कहना है कि उनके पास भी कई बार ऐसे प्रकरण विधिक सलाह के लिए आए हैं, जिनसे लगता है कि सूचना आयोग द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों, उसकी भावनाओं के साथ ही आयोग को प्राप्त शक्तियों का उल्लंघन कर रहा है। वे अपने समर्थन में सूचना आयुक्त विजय मनोहर तिवारी द्वारा द्वितीय अपील 1277/2022 में दिनांक 17 अगस्त, 2021 को पारित आदेश का हवाला देते हैं। उक्त आदेश में सूचना आयुक्त ने अपीलकर्ता विवेकानंद मिश्रा के विरुद्ध विभागीय जांच की अनुशंसा कर दी थी, जबकि सूचना का अधिकार में आयोग को इस प्रकार की कोई शक्ति प्रदत्त नहीं की गई है। वे जोड़ते हैं कि राज्य सूचना आयोग एक संवैधानिक प्राधिकार है, जो अधिनियम में उसे प्राप्त अधिकारों और शक्तियों से परे जाकर न तो अधिनियम की व्याख्या कर सकता है और ना ही अपीलकर्ता के विरुद्ध किसी प्रकार की कोई अनुशंसा कर सकता है। उल्लेखनीय है कि तिवारी हाल ही में उस समय भी सुर्खियों में आए थे जब उन्होंने बड़वानी के जहूर खान द्वारा प्रस्तुत 55 द्वितीय अपीलों को एक साथ खारिज कर दिया था। सिद्धार्थ सिंह के अनुसार निःसंदेह विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों में यह प्रतिपादित किया गया है कि एक ही आवेदन में विभिन्न विषयों की जानकारी नहीं मांगी जा सकती। मगर, जैसा कि समाचार माध्यमों में प्रकाशित हुआ है, सूचना का अधिकार के तहत एक ही जैसे आवेदन अलग-अलग जगह लगाए जाने पर रोक संबंधी न्यायालय के निर्णय की कोई जानकारी उन्हें नहीं है। श्री खान द्वारा लगाई गई द्वितीय अपील लोक सूचना अधिकारियों द्वारा प्रथम अपील में पारित आदेश के बावजूद जानकारी उपलब्ध न करवाए जाने से संबंधित थी। ऐसे में लोक सूचना अधिकारियों द्वारा आयोग के समक्ष अपील प्रस्तुत नहीं किए जाने के बाद भी इन अपीलों को निरस्त कर प्रथम अपीलीय अधिकारी के आदेश को निरस्त किया जाना न केवल गलत है, वरन् यह एक बार फिर आयोग की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाएगा। वे कहते हैं कि सूचना का अधिकार कानून को लाया ही इसलिए गया है कि आम नागरिक भ्रष्टाचार से संबंधित प्रकरण उजागर कर सके। मगर, आयोग ऐसे निर्णयों से आम नागरिकों को हतोत्साहित करता प्रतीत हो रहा है।
भोपाल के एक अन्य युवा अधिवक्ता मयूर मानधन्या का कहना है कि यह सही है कि सूचना का अधिकार एक अनियंत्रित अधिकार नहीं है। खुद अधिनियम की धारा 7 की उपधारा 9 के साथ ही धारा 8, धारा 9 और धारा 11 में मांगी गई जानकारियों को नियंत्रित करने के प्रावधान किए गए हैं। मगर, चूंकि सूचना को मौलिक अधिकार में शामिल किया गया है, इसलिए अधिनियम मे यह प्रावधान भी है कि लोकहित में प्रत्येक जानकारी का प्रकटन किया जा सकता है। वे यह भी जोड़ते हैं कि इसीलिए धारा 8, जो सूचना के प्रकटन से छूट प्रदान करती है, के अंत में यह प्रावधान भी किया गया है कि ऐसी सूचना के लिए, जिसे यथास्थिति संसद या किसी राज्य विधान मंडल को देने से इंकार नहीं किया जा सकता है, किसी व्यक्ति को देने से इंकार नहीं किया जा सकेगा। राज्य सूचना आयोग को हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसका गठन आम नागरिकों की पहुंच सूचना तक सरल बनाने के लिए किया गया है ना कि लोक सूचना अधिकारियों को संरक्षण देने के लिए। वे जोड़ते हैं कि उच्च न्यायालय जबलपुर द्वारा डब्ल्यूपी 1352/2022 में राज्य सूचना आयोग पर लगाया गया जुर्माना भी यह दर्शाता है कि आयोग को सूचना का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के अधीन रहते हुए आम नागरिकों के पक्ष में होना चाहिए।
(संपादन : नवल/अनिल)
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