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सात समंदर पार से ‘हिंदू’ भारत के लिए सहिष्णुता का सबक

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार ऋषि सुनक के राजनीतिक करियर में उनकी धर्म की कोई प्रासंगिकता ही नहीं है। इससे निश्चित रूप से यह पता चलता है कि ब्रिटिश मतदाता और वहां के नेताओं में बहुसांस्कृतिक सहिष्णुता किस हद तक है। मुझे ऐसा लगता है कि इस मामले में ब्रिटेन शायद अमरीका से भी अधिक धर्मनिरपेक्ष और बहुसांस्कृतिक है। बता रहे हैं कांचा इलैया शेपर्ड

भारतीय मूल के ब्रिटिश राजनीतिज्ञ ऋषि सुनक, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में हैं। वे कंजरवेटिव पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं। अमरीका के राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार बनने के कमला हैरिस के प्रयास के बाद यह पहली बार है कि पश्चिम में बसे भारतीय मूल के प्रवासियों का कोई वंशज राजनीति के शिखर को छूने का प्रयास कर रहा है। 

एक समय ब्रिटेन भारत का औपनिवेशिक प्रभु था। इस दृष्टि से ब्रिटेन का प्रधानमंत्री भारत का शोषण करने वाले साम्राज्य का राजनैतिक प्रमुख था। परंतु इसके साथ-साथ हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ब्रिटिश शासन देश में अनेक सामाजिक सुधारों का प्रणेता भी था। अगर ब्रिटेन ने हमारे देश पर शासन नहीं किया होता और उससे मुक्ति पाने और अपने अधिकार हासिल करने के लिए भारतीयों ने संघर्ष नहीं किया होता तो 1947 में भारत लोकतांत्रिक संवैधानिक गणतंत्र नहीं बनता। हम भले ही हमारे देश की प्राचीन हिन्दू और बौद्ध संस्थाओं की मूल प्रकृति के प्रजातांत्रिक होने के कितने ही बड़े-बड़े दावे करते रहें परंतु सच यही है।

हमारे स्वाधीनता संग्राम और औपनिवेशिक काल की सभी महत्वपूर्ण कड़ियां ब्रिटिश राजनीतिक व्यवस्था से जुडीं हुईं थीं। 20वीं सदी के प्रारंभ से स्वाधीनता पाने के लिए संघर्षरत भारतीय, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को औपनिवेशिक शासन का प्रतिनिधि मानते थे। उनके लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री वह व्यक्ति था, जिसे वे धिक्कारते भी थे, जिससे अपनी मांगें पूरी करने के लिए अपील भी करते थे।

इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बाद भी भारतीय मूल के एक व्यक्ति की ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में अग्रिम पंक्ति में रहने से पता चलता है कि हमारी दुनिया कितनी तेजी से बदल रही है। जिस समय भारत में हिंदू राष्ट्रवादी, धर्म के आधार पर भेदभाव की खुल्लमखुल्ला वकालत कर रहे हैं, उस समय ईसाई ब्रिटेन एक ऐसे व्यक्ति को सर्वोच्च पद पर बैठाने को तैयार है, जिसने सार्वजनिक रूप से अनेक बार कहा है कि उसका धर्म हिंदू है। सांसद (और बाद में चांसलर ऑफ एक्सचेकर) के रूप में सुनक ने भगवद्गीता पर हाथ रखकर शपथ ली थी। 

ऋषि सुनक, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद के दावेदार

अब वही हिंदू सुनक, 10, डाउनिंग स्ट्रीट का किरायेदार बनना चाहते हैं। सुनक की पत्नी अक्षता एक भारतीय हिंदू अरबपति की पुत्री हैं। सुनक की संपत्ति ब्रिटेन में राजनीतिक बहस का मुद्दा है। यह होना ही था क्योंकि ब्रिटिश राजनीति में हमेशा से व्यक्ति के सामाजिक और आर्थिक वर्ग का महत्व रहा है। परंतु सुनक के धर्म के बारे में कोई बात नहीं हो रही है। सुनक के राजनीतिक करियर में उनकी धर्म की कोई प्रासंगिकता ही नहीं है। इससे निश्चित रूप से यह पता चलता है कि ब्रिटिश मतदाता और वहां के नेताओं में बहुसांस्कृतिक सहिष्णुता किस हद तक है। मुझे ऐसा लगता है कि इस मामले में ब्रिटेन शायद अमरीका से भी अधिक धर्मनिरपेक्ष और बहुसांस्कृतिक है। अगर कमला हैरिस ने स्वयं को सार्वजनिक रूप से एक हिंदू के रूप में प्रस्तुत किया होता तो मुझे संदेह है कि डेमोक्रेटिक पार्टी उन्हें उपराष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाती। 

एंग्लिकन ईसाई धर्म, ब्रिटेन का राज्य धर्म है। देश की महारानी एलिजाबेथ चर्च ऑफ इंग्लैंड की प्रमुख हैं। इसके बाद भी प्रधानमंत्री पद पर सुनक की दावेदारी को उनके धर्म के आधार पर असंगत नहीं ठहराया जा रहा है।

भारतीय मूल के एक हिंदू के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने की प्रबल संभावना के बारे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी का क्या कहना है? उन्होंने तो अत्यंत बेशर्मी से धार्मिक बहुसंख्यकवाद के अपने एजेंडे के तहत भारत में मुसलमानों और ईसाईयों को समाज और राजनीति के हाशिए पर पटक दिया है। संसद के दोनों सदनों में सत्तापक्ष की बेंचों पर एक भी मुसलमान नहीं बैठता। जबकि बोरिस जॉनसन के प्रधानमंत्रित्व काल में ब्रिटेन की मंत्रिपरिषद में भारत की मंत्रिपरिषद की तुलना में ज्यादा मुसलमान थे!

आरएसएस व भाजपा अनवरत यह डींग हांकते रहते हैं कि हिंदू धर्म विश्वगुरू है। संघ के साहित्य में अंग्रेजों और ईसाईयों दोनों के सभ्यतागत इतिहास पर कटु हमले किए गए हैं। उन्हें धर्मयोद्धा और औपनिवेशिक विस्तारवादी बताया गया है। संघ और भाजपा का दावा है कि हिंदू दुनिया का सबसे सहिष्णु धर्म है। यह इस तथ्य के बावजूद कि जातिगत पदक्रम और दलितों पर अत्याचार हिंदू धर्म का हिस्सा हैं। संघ और भाजपा तो पीढ़ियों से भारत में रह रहे मुसलमानों और ईसाईयों को भी हिंदुओं का शत्रु मानते हैं।

ब्रिटेन में हिन्दू एक बहुत छोटा अल्पसंख्यक वर्ग हैं। वहां की कुल आबादी में हिंदुओं का प्रतिशत मात्र 1.6 है। हिंदू अपेक्षाकृत नए प्रवासी हैं। ऐसा नहीं है कि वे दसियों पीढ़ियों से इंग्लैंड में रह रहे हों। परंतु इसके बाद भी ब्रिटिश राजनीति में जो हिंदू हैं, उन्हें अल्पसंख्यक होने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। आरएसएस और भाजपा के भारत में तो छोड़िये, कांग्रेस के भारत में भी किसी ईसाई या मुसलमान को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किए जाने की बहुत कम संभावना थी। यह है हिंदू धर्म की सहिष्णुता। 

ब्रिटेन एक समय ईसाई औपनिवेशिक साम्राज्य का सर्वेसर्वा था। इसके बाद भी उसे सुनक के देश के सर्वोच्च पद पर बैठने में कोई आपत्ति नहीं है। न तो विपक्ष के नेताओं ने और ना ही उनकी अपनी कंजरवेटिव पार्टी में सुनक के प्रतिस्पर्धियों ने उनके धर्म के बारे में कभी एक शब्द कहा है। उनकी संपत्ति पर चर्चा हो रही है, श्रमजीवी वर्ग के प्रति उनके दृष्टिकोण पर चर्चा हो रही है, उनकी पत्नी द्वारा टैक्स चुकाने से बचने की कोशिशों पर चर्चा हो रही है। यह किसी भी लोकतंत्र में होनी ही चाहिए (वैसे भारत में बड़े राजनीतिक पदों के दावेदारों के संबंध में इस दृष्टिकोण से चर्चा शायद ही होती हो)। 

सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनते हैं या नहीं, इससे मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता। परंतु एक बात मैं जानता हूं कि सात समंदर पार से ब्रिटेन, जो संसदीय लोकतंत्र की जननी है, भारत को समानता और सहिष्णुता का एक संदेश, एक सबक दे रहा है। परंतु दुखद कि, भारत अब ऐसा देश नहीं रह गया है, जिसको कुछ नया सीखने की छूट हो।    

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)

(इस आलेख का मूल अंग्रेजी में पूर्व “द वायर” द्वारा प्रकाशित। यहां लेखक की अनुमति से अनुवाद प्रकाशित)


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कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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