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अग्निपथ योजना : कुछ और अनुत्तरित सवाल

सरकार जानती है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा गई है, युवा बेरोजगार और परेशान हैं। इसलिए, तमाम विरोध के बावजूद यह बेरोजगार और परिवार की जरूरतों से परेशान युवा इस योजना को स्वीकार कर ठेके पर सेना में भर्ती को मजबूर हो जाएंगे। लेकिन, प्रारंभ में युवाओं ने विरोध करने का साहस दिखाया। बता रहे हैं अनुराग मोदी

केंद्र सरकार ने अग्निपथ योजना पर न तो संसद में बहस होने दी और ना ही रक्षा के मुद्दे पर बनी संसद की स्थाई समीति में। इससे पहले इस मुद्दे पर सिर्फ युवाओं का आक्रोश देखने को मिला, मगर कोई सार्थक बहस सुनने, समझने को नहीं मिली। मीडिया ने दिखाया भी तो सिर्फ युवाओं का गुस्सा, उनके द्वारा की गई तोड़फोड़ ही। गनीमत है कि मुख्यधारा की मीडिया युवाओं को देशद्रोही और आतंकवादी करार नहीं दे पाई। 

दरअसल, राष्ट्र प्रेम, राष्ट्रवाद, देश प्रेम, सेना के सम्मान पर मीडिया से लेकर सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर युद्ध उन्माद फ़ैलाने वाले लोगों, नेताओं, मीडिया एंकरों के बेटे भूले-भटके सेना में अफसर बनने तो जा सकते हैं, मगर सेना की रीढ़ की हड्डी कहलाने वाला जवान तो किसी किसान, खेतिहर मजदूर, श्रमिकों का दसवीं/बारहवी पास बेरोजगार बेटा ही बनता है। सेना के 78 फीसदी जवान ग्रामीण इलाके से आते हैं; शहरी क्षेत्र से आने वाले ज्यादातर जवान भी ग्रामीण पृष्ठभूमि के ही होते हैं। इसकी स्वीकारोक्ति स्वयं केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इसी साल 11 फरवरी, 2022 को लोकसभा में दिए गए जवाब में की थी। असलियत यही है कि भारत सरकार की अग्निपथ योजना इन्हीं ग्रामीण युवाओं की मजबूरी पर टिकी है। 

विदित है कि सन् 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजी हुकूमत को अपनी सेना का ढांचा बदलने जरुरत महसूस हुई तब उसने समय पर खरी उतरी अपनी रणनीति को अपनाते हुए लड़ाकू जातियों में से ऐसे लोगों को चुना जो भूख से परेशान, मजबूर और हताश थे। उन्हें पता था कि भूखा सिपाही उनकी शर्तो पर काम करेगा और विद्रोह भी नहीं करेगा। मोदी सरकार भी अग्निपथ योजना के नाम पर यही करती दिख रही है। सरकार जानती है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा गई है, युवा बेरोजगार और परेशान हैं। इसलिए, तमाम विरोध के बावजूद यह बेरोजगार और परिवार की जरूरतों से परेशान युवा इस योजना को स्वीकार कर ठेके पर सेना में भर्ती को मजबूर हो जाएंगे। लेकिन, प्रारंभ में युवाओं ने विरोध करने का साहस दिखाया। 

बिहार के जहानाबाद जिले में अग्निपथ योजना का विरोध करते युवा

वैसे तो, सरकारी कर्मचारियों को स्थाई नौकरी देने की बजाए ठेके/अनुबंध पर नियुक्त करना कोई नई बात नहीं है। आर्थिक सुधार के नाम पर पिछले ढाई-तीन दशकों से यह नीति केंद्र और राज्य के लगभग हर विभाग और संस्थानों में जारी है; हालांकि, यह जरुर है कि पिछले कुछ वर्षो में इसमें काफी तेजी आई है। 21 मार्च 2022 को लोकसभा में सरकार द्वारा दिए गए जवाब के अनुसार केंद्र सरकार द्वारा ठेके पर नियुक्त कर्मचारियों की संख्यां 2020 तक 13.25 लाख थी, जो 2021 में दुगनी के लगभग बढ़कर 24.31 लाख हो गई। 

अब जहां तक केंद्र सरकार में स्थाई नौकरी का सवाल है, तो कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय ने 27 जुलाई, 2022 को लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि केंद्र सरकार के सभी विभागों को वर्ष 2014 से वर्ष 2022 के बीच स्थाई नौकरी हेतु कुल 22 करोड़ 6 लाख (22,05,99,238) आवेदन के मुकाबले इस दौरान कुल लगभग 7 लाख 22 हजार (7,22,311) लोगों यानी मात्र 0.35 फीसदी आवेदक युवाओं को ही स्थाई सरकारी नौकरी मिली। अगर हम सिर्फ 2014-15 से लेकर 2019-20 तक के आंकड़ों को ही देखें तो पता चलेगा कि इस दौरान केंद्र सरकार के सभी विभागों में मिलकर कुल 6 लाख 4 हजार 906 युवाओं को ही स्थाई नौकरी मिली।

वहीं, लोकसभा में 10 दिसंबर, 2021 को रक्षा राज्यमंत्री अजय भट्ट ने सेना में भर्ती के संबंध में जो जवाब दिया, उससे साफ होता है कि 2014-15 से 2019-20 के बीच सेना (2020-21 और 2021-22 के दौरान सेना में भर्ती बंद थी) में 3 लाख 63 हजार 587 युवाओं की भर्ती हुई। यनी केंद्र सरकार के सारे विभाग मिलाकर कुल जितने युवाओं को स्थाई नौकरी दे पाए, उसके मुकाबले अकेले सेना में 60 फीसदी युवाओं को नियुक्ति मिली। 

तालिका एक : केंद्र सरकार और सेना में भर्ती की तुलनात्मक विवरण 

वर्षकेंद्र सरकार को प्राप्त कुल आवेदनकेंद्र सरकार के सभी विभागों में कितने युवाओं को नौकरी दी गईकेंद्र सरकार की भर्ती योजना से अलग भारतीय सेना ने कितने युवाओं को सैनिक के पद पर भर्ती किया
2014-152,32,22,0831,30,42364,568
2015-162,95,51,8441,11,80770,768
2016-172,28,99,6121,01,33350,362
2017-183,94,76,8780,76,14748,389
2018-195,09,36,4790,38,10050,879
2019-201,78,39,7521,47,09678,621
कुल जोड़18,39,26,6486,04,9063,63,587
2020-211,80,01,46978,555भर्ती बंद थी
2021-221,86,71,12138,850भर्ती बंद थी
कुल जोड़22,05,99,2387,22,311 

हमारी व्यवस्था ऐसी है कि आजादी के 75 साल के अमृत काल में भी किसान परिवार का बेटा बमुश्किल ही दसवीं या बारहवीं के बाद पढाई कर पाता है। (मैं यहां अग्निपथ के संदर्भ के कारण जान-बूझकर लड़कियों की बात नहीं कर रहा हूं।) जनसंख्या के अनुमान से 9वीं और 10वीं क्लास में उस वर्ग के लिए तय उम्र सीमा के अनुसार जितने ग्रामीण पुरुष होना चाहिए, उसके मुकाबले 85.2 फीसदी ग्रामीण पुरुष उस क्लास में हैं और 11वीं और 12वीं के लिए यह आंकड़ा 66.4 फीसदी रह जाता है। इसे सकल उपस्थिति अनुपात कहते हैं। इसमें उस क्लास के लिए निर्धारित उम्र सीमा से ज्यादा या कम उम्र के बच्चे भी होते हैं। हालांकि कम उम्र के बच्चों की संख्या अमूमन बहुत कम ही होती है। लेकिन अगर हम इन बच्चों की शुद्ध उपस्थिति अनुपात को देखें, यानी 14-15 साल के कुल बच्चों में से कितने प्रतिशत बच्चे 9वीं और 10वीं क्लास में पढ़ते हैं और 16-17 साल के कितने प्रतिशत बच्चे 11वीं और 12वीं में पढ़ते हैं, तो यह आंकड़ा क्रमश: 56.3 और 40.3 मात्र है। यानी इन कक्षाओं में क्रमश: 28.9 फीसदी और 26.1 फीसदी बच्चे ज्यादा उम्र के हैं। 

तालिका दो : 9वीं से 12वीं तक पढाई करने वाले ग्रामीण पुरुष का 

 सकल एवं शुद्ध उपस्थिति अनुपात

 सकल उपस्थिति अनुपात (प्रतिशत में)शुद्ध उपस्थिति अनुपात (प्रतिशत में)
राज्यसेकेंडरीहायर सेकेंडरीसेकेंडरीहायर सेकेंडरी
बिहार80.1067.4052.8036.00
हरियाणा96.8065.9064.0039.90
हिमाचल107.50104.4076.1069.60
जम्मू-कश्मीर120.669.872.944.7
राजस्थान93.5072.1056.4034.80
उत्तराखंड80.10111.6057.7065.10
उत्तर प्रदेश68.6063.2041.0030.90
संपूर्ण भारत85.2066.4056.3040.30

(स्रोत : शिक्षा के सारे आंकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की 2017-18 की 75वें दौर की रिपोर्ट

अगर हम शिक्षा इन आंकड़ों को बिहार के संदर्भ में देखें तो हमें समझ आएगा कि वहां 14-15 साल की उम्र के लगभग आधे ग्रामीण पुरुष ही 9वीं में पढ़ते हैं और दसवीं के आगे यह प्रतिशत मात्र 36 ही रह जाता है। हरियाणा, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर के लिए यह आंकड़े बिहार के मुकाबले काफी बेहतर हैं। लेकिन राजस्थान और उत्तराखंड के लिए बिहार के मुकाबले थोड़ा ही बेहतर है। हालांकि, उत्तर प्रदेश के आंकड़े बिहार के मुकाबले काफी खराब हैं, लेकिन यहां एक सच्चाई और ध्यान देने योग्य है कि बिहार में रोजगार के अन्य साधन बाकी राज्यों के मुकाबले काफी कम होने और कृषि अर्थव्यवस्था की हालत और भी खस्ता है। इसलिए, यहां अन्य राज्यों के मुकाबले सरकारी नौकरियों के लिए तैयारी करने वाले युवाओं की संख्या काफी ज्यादा है। हम उपर की पहली तालिका में देख चुके हैं केंद्र सरकार में स्थाई नौकरी बंद सी हो गई है। सब नौकरियां ठेका व्यवस्था की भेंट चढ़ गई हैं। ऐसे में, सेना में सैनिक भर्ती भी चार साल के लिए संविदा के आधार पर नियुक्ति की बात ने युवाओं को भड़का दिया। अग्निपथ योजना बेरोजगार युवा की उम्मीदों की ताबूत में आखिरी कील साबित हुई। 

हालांकि, अगर हम प्रति दस लाख जनसंख्या से सैनिकों की भर्ती के आंकड़े देखें तो जहां हिमाचल के लिए यह 402, उत्तराखंड के लिए 271, जम्मू-कश्मीर के लिए 185, हरियाणा के लिए 122, उत्तर प्रदेश के लिए 28 और तो बिहार के लिए यह मात्र यह 22 है। इसे अगर 2018-19 और 2019-20 के दो वर्षो में हुए राज्यवार कुल सैनिक भर्ती आंकड़ों के संदर्भ में देखें तो उत्तर प्रदेश के लिए 14,747, राजस्थान के लिए 11,059, उत्तराखंड के लिए 7588, हरियाणा के लिए 8307, तो बिहार के लिए यह 6,758 ही है। 

बहरहाल, अग्निपथ योजना पर बहस के बहाने हमें हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था, खस्ताहाल शिक्षा व्यवस्था और सरकारी नौकर की ठेके पर भर्ती की सोच के दुष्परिणामों पर देशव्यापी बहस की जरुरत है। संसद और बहुमत वाली सरकार ना सही कम से कम इस देश का युवा इस विभाजनकारी राजनीति के जाल को तोड़कर इस बारे में एक सार्थक बहस चलाए। वर्ना उग्र आंदोलन से कुछ हाथ नहीं लगेगा।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनुराग मोदी

समाजवादी जन परिषद् से सम्बद्ध अनुराग मोदी 27 वर्षों से आदिवासी ईलाके में काम करने वाला एक पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता हैं। 1989 में मुम्बई में सिविल इंजीनियर की नौकरी से त्याग पत्र देकर नर्मदा नदी पर बने पहले बड़े बाँध, बरगी बाँध के विस्थापितों के साथ काम किया। फिर बैतूल जिले के छोटे से गाँव पतौपुरा में आदिवासीयों के साथ श्रमिक आदिवासी संगठन शुरू किया। जनपक्षधर लेखन में सक्रिय।

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