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संस्मरण : ऐसे थे अण्णा भाऊ साठे (अंतिम भाग)

अण्णा भाऊ के पोवाड़े भी प्रसिद्ध रहे हैं, जैसे– ‘स्तालिनग्राद का पोवाड़ा’, ‘महाराष्ट्र की परंपरा’ आदि में इतिहास के साथ-साथ समाज व्यवस्था की वास्तविकता का भी चित्रण किया है। ऐसे ही थिएटर में दिखाए जानेवाले ‘तमाशा’ को लोकनाट्य नाम देकर उसे सर्व सामान्य जनता के समक्ष खुले मैदान में उसका प्रदर्शन करने का साहस अण्णा भाऊ ने ही किया था। पढ़ें, प्रो. गंगाधर पानतावणे के संस्मरण के अंतिम हिस्से का संपादित अंश

अण्णा भाऊ साठे (1 अगस्त, 1920 – 18 जुलाई, 1969) पर विशेष

प्रस्तुत संस्मरण ‘अण्णा भाऊ साठे गौरवग्रंथ’ (संपादक : चंद्रकांत वानखेडे, अण्णा भाऊ साठे साहित्य एवं कला अकादमी, नागपुर) में मराठी में संकलित है। इसे हिंदी में डॉ. सोनकांबळे पिराजी मनोहर ने अनूदित किया है। इसके पहले भाग के संपादित अंश का प्रकाशन 24 फरवरी, 2022 को किया गया था। अब पढ़ें इसके अंतिम भाग का संपादित अंश

पहले भाग के आगे

अण्णा भाऊ साठे का कथा साहित्य व्यक्ति की विभिन्न विशेषताओं से संपन्न है। उनके पात्रों का संघर्ष उनके जीवन का “स्थायी भाव” है। वही प्रवाह उनका “सचेतन” है। जैसे– “पाप के कारण तुम्हें काशी जाना पड़ेगा”; इस तरह का श्राप देने वाला “सावळा मांग” और “चोर भी एक इंसान है, जो पेट भरने के लिए चोरी करता है। जिस दिन यह बात सरकार को समझ में आएगी] उस दिन वे चोरी करना छोड़ देंगे”। इस तरह बेबाक ढंग से पुलिसवालों को “मुर्गी चोर” बताना, “रोटी के लिए तड़प-तड़प कर मरने वाले बच्चे”, “अकाल से परेशान महार, मांग”, आदि का अपनी रचनाओं में उल्लेख अण्णा भाऊ के साहित्य को खास बनाता है। अपनी एक रचना में वे कहते हैं कि “मांग समुदाय के लोग जो विष्णुपंत कुलकर्णी के आदेशानुसार मटकरी के वाडे में जाकर अनाज लुटकर सभी को अनाज बांटते हैं। ऐसे लोगों का पक्ष लेते हुए विष्णुपंत कहते हैं कि इन लोगों ने गुनाह किया भी होगा, फिर भी उन्होंने जो किया, उसमें भी न्याय है।” ऐसा कहने वाले धैर्यवान व्यक्तित्व के धनी विष्णुपंत कुलकर्णी केवल अण्णा के कथा साहित्य में ही देखने को मिलते हैं। साथ ही ‘फकीरा’, ‘वैजयंता’, ‘व्यंकू’, ‘सत्तू’ आदि वास्तविक जीवन को दर्शाने वाले अनेक पात्र अण्णा भाऊ के उपन्यासों में चित्रित हुए हैं, जो एक अलग संस्कृति से परिचय कराते हैं। 

अण्णा भाऊ का कथा साहित्य बहुत ही समृद्ध रहा है। उन्हें उनके उपन्यासों से बहुत प्रसिद्धि मिली है, जिनमें फकिरा, वैजयंता, ‘माकडीचा माळ’, ‘वारणेचा वाघ’ आदि शामिल हैं। इनमें जो प्रसिद्धि ‘फकीरा’ को मिली है, वह किसी अन्य उपन्यास को नहीं मिली है, क्योंकि इसकी कथा वस्तु में मातंग समाज की दाहक जीवनगाथा है। वास्तव में यह उपन्यास तीन पीढ़ियों के सामाजिक आंदोलन का इतिहास प्रस्तुत करता है। ‘फकीरा’ इस उपन्यास का मुख्य पात्र है, सज्जन, शांत-सौमय और स्नेही है। परंतु जहां अन्याय होता है, उसका विरोध करता है। मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष करता है और न्याय की बात करता है। कभी-कभी वह कानून को भी अपने हाथों में लेता है। वैसे तो वह उदार व्यक्ति है, परंतु उसे अहंकारी लोगों से चिढ़ भी आती है। उसका यह मानना है कि जीवन का मतलब ही संघर्ष है, धर्मयुद्ध है। फकीरा जिस परिवर्तन की बात करता है, वह आने वाले कल का यशोगीत है। 

फकीरा के बचपन में उसके पिता राणोजी मांग का शिगांव के बापू खोत ने सिर कलम किया था। उसका कारण यह था कि राणोजी जोगीणी लेकर वाटेगांव की ओर जा रहा था। गांव की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए बापू खोत गांव की सीमा पारकर राणोजी का सिर धड़ से अलग करके ले जाता है। इसके कारण वाटेगांव के लोगों में उसके प्रति घृणा थी। वे बापू खोत से बदला लेना चाहते थे। इस बात को वे लोग कभी नहीं भूल सकते थे। फकीरा की मां एक शेरनी थी, जिसने पति के जाने के बाद उसकी परवरिश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उसने मातृत्व भाव की अपेक्षा कर्तव्य को महत्व दिया था। फकीरा अपनी युवावस्था में अपने गांव के महार-मांग समाज के दुःख-दर्द से अवगत हो चुका था। ‘सावळा’ के जैसे मातंग समाज के लोगों का सिर कलम करने का गुनाह बापू खोत ने गांव की सीमा पार कर किया था। लेकिन कोई उसका मुकाबला करने का साहस नहीं करता था। फकीरा ने इसे बचपन से ही देखा था। केवल फकीरा ही अकेला ऐसा था, जो आगे चलकर उसका सामना कर सकता था। वह लोगों के लिए जीवन जीता था। 

फकीरा सामूहिक एकता पर जोर देता था। इशा, किशा, बळी, मुरारी, फकीरा का भाई साधु, ईश्वरा, धम्या, भिवा चिंचणीकर, पिराजी, साजरकर निळाजी, तथा घोंचीकर आदि अन्याय के विरुद्ध लड़ने में कंधे से कंधा मिलाकर उसका साथ दिया करते थे। इन लोगों के कारण ही जोगीणी के साथ-साथ बापू खोत का हाथ काटकर लाने में उसे सफलता प्राप्त हुई थी। यह तब हुआ था जब बापू खोत उसके सामने गिड़गिड़ा रहा था। तब यह जानते हुए भी कि बापू खोत ने उसके पिता का सिर कलम किया था, वह उसे जीवनदान देता है। चाहता तो वह उसे खत्म कर सकता था, लेकिन उसने उसे नहीं मारा, क्योंकि वह उसकी पत्नी को विधवा नहीं बनाना चाहता था। 

अण्णा भाऊ साठे ने इस प्रसंग का चित्रण बहुत ही मार्मिक ढंग से किया है। परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए नियंत्रण बनाए रखना अण्णा भाऊ की विशिष्टता रही है। इसके साथ-साथ और एक प्रसंग का उल्लेख किया जाना जरूरी है। जब वाटेगांव में महामारी के कारण लोगों की अकाल मृत्यु हो रही थी, तब भी फकीरा ने लोगों की जान बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वह लाशों का अंतिम संस्कार करने के साथ-साथ तड़प रहे मरीजों की देखभाल कर रहा था। ऐसा करते समय उसने यह कभी नहीं देखा कि बीमार कौन सी जाति का है। वास्तव में मृत्यु ने जातीयता काे नष्ट कर दिया था।। 

उसी प्रकार जब गांव में अकाल पड़ा और भूखमरी हो गई तब भी वह बेचैन हो गया था। अपने साथियों के साथ मिलकर उसने मालवाडी की ओर कूच किया था। उनके पास लूटमार या डकैती करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था। यह करते हुए उसने कभी यह नहीं सोचा कि अपना जन्म ही गुनहगार जाति में हुआ है, बल्कि इसलिए किया था क्योंकि गांव के बच्चे, औरतें और पुरुष भूखे न रहें। परिस्थितियों के सामने हार स्वीकार करने की बजाए मार्ग निकालने को गुनाह कहा जाना अर्थहीन होगा। 

यह भी पढ़ें – संस्मरण : ऐसे थे अण्णा भाऊ साठे (पहला भाग)

अण्णा भाऊ साठे मूलतः साम्यवादी थे। इसके साथ-साथ वह अच्छे कलाकार भी। उन्होंने कार्ल मार्क्स और मैक्सिम गोर्की दोनों को पढ़ा और उनके विचारों को आत्मसात किया था। उनकी साम्यवादी विचारधारा का उपन्यासों या कहानियों में उतना देखने को नहीं मिलता है, लेकिन उनकी कविताओं और गीतों यहह मुखर रूप में दिखाई देता है। 

अण्णा भाऊ, कॉ. अमर शेख और कॉ. गव्हाणकर यह तीनों घनिष्ठ मित्र थे। अमर शेख तो अपने गीतों के साथ-साथ अण्णा भाऊ द्वारा रचित कवने (लोकगीत) गाया करते थे। वही कॉ. गव्हाणकर के पास अपनी मधुर आवाज के साथ लिखने की प्रतिभा भी थी। कॉ. गव्हाणकर के संबंध में यह कहा जाता था कि ये अण्णा भाऊ और कॉ. अमर शेख के बीच की कड़ी थे। यह कहा जाता है कि जब अण्णा भाऊ और कॉ. अमर शेख की बीच अनबन हो गयी थी, और दोनों एक-दूसरे का चेहरा तक नहीं देखना चाहते थे । ऐसे में दोनों के बीच की दूरियों को पाटने के लिए कॉ. गव्हाणकर और कॉ. भास्कर खरात ने अथक प्रयास किये थे। यह संयोग ही रहा कि तीनों मित्रों का निधन एक ही साल में हुआ। 

‘नव्या युगाचा तमासगीर’ (नए जमाने के शायर) नामक अण्णा की कविता संकलन है। इसमें उन्होंने मजदूर, किसान, शोषित, पीड़ित आदि के यथार्थ जीवन की दास्तानों को कलमबद्ध किया। इसके साथ-साथ समाजवाद और वर्गीय संघर्ष को दिखाते हुए वर्चस्ववादी भारतीय सामाजिक व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया। तमाशे को ‘लोकनाट्य’ का नाम अण्णा ने ही दिया था। अण्णा भाऊ लोकनाट्य की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि “जिस लोक नाटक में क्रांति हो, उसे ही लोकनाट्य कहा जाना चाहिए।” वास्तविक जीवन में उन्होंने अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, परंपरा आदि का खंडन कर नए सामाजिक परिवर्तन की दिशा दिखाने वाले साहित्य का सृजन किया। 

उन दिनों जो भी कवि थे, वे गणपति के गीत से ही आरंभ किया करते थे। इनमें प्रभाकर शायर से लेकर पठ्ठे बापूराव तक के सभी इसी श्रेणी में आते थे। लेकिन अण्णा ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने गणपति की जगह पर मातृभूमि, राष्ट्रप्रेम, देशभक्ति आदि पर आधारित हुतात्मे (क्रांतिकारी गीत) गाए जो एक नया परिवर्तन था। एक गीत में वह कहते हैं–

“आज से हम उसकी पूजा करने का आरंभ करते हैं
जिसने इस संसार के भूगोल को हिलाकर रख दिया।
जिसकी शक्ति रुद्र रूप हो, भक्ति मानवों की करता हो
जिसने रंक को हटाकर, जो अहंकारी शासक था,
उसकी जुल्मी सत्ता नष्ट की है।
मैंने आज उसी की पूजा की है।” 

अण्णा भाऊ ने बहुत कम लावणियां लिखीं। लेकिन उन्होंने तत्कालीन लावणी का रूप ही बदल दिया था। ‘माझी मैना गावावर राहीली’ (मेरी मैना गांव में ही रह गई) इस लावणी को तो महाराष्ट्र में बहुत ही प्रसिद्धि मिली थी। मैना जो है वह एक रूपवती स्त्री है, गरीब है। दोनों पति-पत्नी को एक वक्त के रोटी की चिंता सताती रहती है। वह दोनों एक-दूसरे को बहुत प्रेम करते हैं। भूख की समस्या मिटाने के लिए पति मुंबई चला आता है। मुंबई में उसे बहुत बड़ी संख्या में गरीबी, मजदूर समाज दिखाई देता है, जिन्हें देखकर वह आश्चर्यचकित हो जाता है। वह घूमता-फिरता है तब वह धनवान मुंबई से परिचित होता है। जहां पर ऊंची-ऊंची इमारतें तो होती हैं, परंतु उसे छोटी-सी नौकरी भी नहीं मिलती है। यह वह समय था जब संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी। तो वह भी उस आंदोलन में इस कदर शामिल हो जाता है कि अपनी पत्नी तक को भूल जाता है। जैसे-जैसे इस आंदोलन ने अपना रूप ग्रहण कर लिया वैसे-वैसे उसे अपनी मैना की याद आ रही थी। तब उसके अंतर्मन में आग लग जाती है। यह मैना कोई और नहीं, बल्कि कारवार, बेलगांव क्षेत्र की मराठी भाषी जनता थी, जो महाराष्ट्र के विरह में अपना जीवन जी रही थी। इसे ही अण्णा ने रूपक के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया था। 

अण्णा भाऊ की ‘मुंबई की लावणी’ ने तो शायरी लेखन में अपना अलग ही स्थान प्राप्त कर लिया। हालांकि उनके पहले बापूराव की ‘मुंबई की लावणी’ को श्रोताओं ने बहुत ही सराहा था, जिसका कारण यह था कि उस लावणी में मुंबई की चकाचौंध कर देनेवाली जगमगाहट, उसका सौंदर्य आदि का अद्भुत वर्णन किया गया है। जबकि अण्णा भाऊ साठे की ‘मुंबई की लावणी’ में मुंबई का एक अलग ही चित्र दिखाया है। अण्णा मिट्टी से जुड़े हुए शायर थे, क्योंकि अण्णा की नजर में मुंबई सौंदर्य का खजाना कभी नहीं था। उन्हें इस महानगर में दयनीयता, दरिद्रता, विषमता और वेश्याओं के दुःखी जीवन से परिचय हुआ था। ऐसी अनेक सच्ची घटनाओं का यथार्थ चित्रण उन्होंने किया है। अण्णा मुंबई के दो रुपों का चित्रण इस गीत में करते हैं– 

“मुंबई की ऊंची इमारतें, धनवानों के लिए इंद्र का शहर है,
जहां पर उन्हें कुबेर की बस्ती का अहसास होता है
वही परेल में रहने वाले दिन-रात मेहनत कर,
अपना पसीना बहाते हैं और जो मिला वह खाते हैं ।” 

इसके अलावा वे मुंबई के अस्पतालों की बात करते हैं, जहां अलग-अलग बीमारियों के कारण न जाने कितने लोग रोज मरते होंगे। उसमें से बहुत लोग तो लावारिस होते हैं। उसके बाद वह वेश्याओं के जीवन पर नजर डालते हैं और कहते है कि वास्तव में यही पद्मिनी, अप्सरा और महारानियां हैं। वे कहते हैं–

“फोर्स रोड की वह तीन बत्तियां और गोलपिठा के चौराहे पर
देह व्यापार कर न जाने कितनी औरतें अपना पेट पालती है।” 

अण्णा भाऊ ने गरीबों का शोषण कर पूंजी जमा करने वाले तथा बेईमानी कर लोगों को लूटने वाले साहूकारों के असली रूपों का भी चित्रण किया है। इसके लिए मुंबई पर आधारित लावणी काफी चर्चित रही है, जिसमें तथाकथित साहूकारों और पूंजीपतियों की असलियत का पर्दाफाश किया गया है। इस पर आचार्य अत्रे ने कहा था कि “कितनी सुंदर और खिली हुई लगती है यह लावणी, वह कहीं पर भी कमजोर नहीं लगती है, उसने ऐसा आकर्षित देह ग्रहण किया है, जैसे कोई मराठी युवती हो।” 

अण्णा भाऊ के पोवाड़े भी प्रसिद्ध रहे हैं, जैसे– ‘स्तालिनग्राद का पोवाड़ा’, ‘महाराष्ट्र की परंपरा’ आदि में इतिहास के साथ-साथ समाज व्यवस्था की वास्तविकता का भी चित्रण किया है। ऐसे ही थिएटर में दिखाए जानेवाले ‘तमाशा’ को लोकनाट्य नाम देकर उसे सर्व सामान्य जनता के समक्ष खुले मैदान में उसका प्रदर्शन करने का साहस अण्णा भाऊ ने ही किया था। शिक्षा, जमीन, अधिकार आदि उनके तमाशे के प्रमुख विषय होते थे। उदाहरण के लिए लोकनाट्य ‘अकलेची गोष्ट’(बुद्धि की कहानी) का तो महाराष्ट्र में हजारों दफा प्रस्तुतिकरण किया गया है। ‘माझी मुंबई’ (मेरी मुंबई) पर तो महाराष्ट्र सरकार की वक्र दृष्टि बनी हुई थी, जिस पर बाद में प्रतिबंध भी लगा दिया गया। ‘दे. भ. घोटाळे’, ‘लोकमंत्री’, तथा ‘मूक मिरवणूक’ आदि लोकनाट्य को भी बहुत लोकप्रियता मिली है। 

साहित्य के क्षेत्र में इतने योगदानों के बावजूद तथाकथित मराठी साहित्यजगत ने उन्हें दरकिनार किया। अंतिम समय में तो उनकी बुरी हालत हो चुकी थी। यहां तक की उनकी पत्नी जयवंता बाई ने भी उनका साथ नहीं दिया था। अण्णा अकेले ही सिद्धार्थ नगर, मुंबई के अपने घर पर रहते थे। कुछ प्रकाशकों ने उनकी मजबूरी का फायदा भी उठाया। इलाज के अभाव में अण्णा की हालत बिगड़ती चली गयी। जब 18 जुलाई, 1969 को उनका निर्वाण हुआ तब उनके पास कोई भी नहीं था। वे चारपाई पर मृत पड़े थे। पता नहीं, कब उनकी जान निकल गयी थी। 

10 अगस्त, 1920 को अस्पृश्य समाज में इस क्रांतिकारी लेखक का जन्म हुआ था, जिन्हें अपने संपूर्ण जीवन में कठिन परिश्रम के अलावा कुछ भी नहीं मिला। बचपन में भी भूख मिटाने के लिए मिलो दूर काम की तलाश में भटकते हुए निकले थे। वास्तव में यही उनके लिए प्रेरणा साबित हुई। अण्णा भाऊ साठे ने मराठी साहित्य को एक अलग पहचान दिलाई। परंतु तथाकथित मराठी साहित्य के समीक्षकगण कब उन्हें समुचित सम्मान देंगे, यह तो वे ही जानें। 

(समाप्त)

(मूल मराठी से अनुवाद : डॉ. सोनकांबळे पिराजी मनोहर, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

गंगाधर पानतावणे

गंगाधर विठोबा पानतावणे (28 जून 1937 - 27 मार्च 2018) मराठी भाषी साहित्यकार, खोजकर्ता, आंबेडकरवादी विचारक थे। वह पहले विश्व मराठी साहित्य सम्मलेन के अध्यक्ष थे। उनके योगदानों के लिए 20 मार्च 2018 उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सन्मानित किया गया। उनकी प्रकाशित कृतियाें में शामिल हैं– ‘आंबेडकरी जाणिवांची आत्मप्रत्ययी कविता’, ‘साहित्य निर्मिती: चर्चा आणि चिकित्सा’, ‘साहित्य: प्रकृती आणि प्रवृत्ती’, ‘अर्थ आणि अन्वयार्थ’ (समीक्षा), ‘चैत्य दलित वैचारिक वाङ्मय’ (समीक्षा), ‘पत्रकार डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर’ आदि।

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