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जमीनी रपट : कश्मीर में दलित, आदिवासी और पिछड़ों की मुश्किलें बढ़ीं

मौजूदा हालात में कश्मीर घाटी, ख़ासकर दक्षिणी कश्मीर के ज़िलों में रह रहे दलितों को तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। शिक्षा और रोज़गार का सवाल बाक़ी भारत की तरह यहां भी मुंह फैलाए खड़ा है। इसे लेकर लोगों में ख़ासी नाराज़गी है। बता रहे हैं सैयद जैगम मुर्तजा

कश्मीर और कश्मीरियों में अनुच्छेद 370 में बदलाव के बाद क्या बदला है? आम आदमी के जीवन स्तर में क्या सुधार आए हैं? कश्मीरी पंडित और कश्मीरी मुसलमान से इतर दूसरे वर्ग किस तरह रह रहे हैं? ये इस तरह के तमाम सवाल हैं, जो आम भारतीय के मन में लगातार गूंजते रहते हैं। इन सवालों का जवाब जानने के लिए आप जम्मू और श्रीनगर से परे ग्रामीण और क़स्बाई इलाक़ों में जाना पड़ेगा।

यह बात सच है कि एक ज़माने में कश्मीर में पंडितों का बर्चस्व था। यह पढ़ा-लिखा अभिजात्य वर्ग था। इस बात से न आम जनता को इंकार है और ना ही मुसलमान समाज के धार्मिक नेताओं को। इस बात से भी किसी को इंकार नहीं है कि मध्यकाल में कश्मीर में बड़ी तादाद में धर्म परिवर्तन हुए। लेकिन कश्मीर की कहानी को सिर्फ पंडित और मुसलमान के परिप्रेक्ष्य में देखने से पूरी तस्वीर साफ नहीं होती है। कश्मीरी हिंदू और मुसलमान दोनों वर्गों में एक बड़ी तादाद दलित, आदिवासी और पिछड़ों की भी है।

अनुच्छेद 370 में संशोधन से पहले पूर्ववर्ती जम्मू और कश्मीर राज्य में चंगपा, पुरिग्पा, गर्रा, ब्रूकपा, बेड़ा, बाल्टी, बोट, गद्दी, गुज्जर, बकरवाल और मोन जनजातियों को आदिवासी का दर्जा हासिल था। हालांकि राज्य में दलितों की संख्या कम है। अविभाजित राज्य में क़रीब 20 लाख दलित थे। इनमें बलवला, बसिथ, रामदासिया चमार, वाल्मीकि, मेघवाल, ध्यार, डोम, रताल, सरयारा जैसी जातियां प्रमुख हैं। इनमें भी अधिकतर कश्मीर घाटी के बाहर, यानी जम्मू क्षेत्र में रहते हैं। लेकिन घाटी में रहने वाले दलित, पिछड़े और आदिवासियों के सवाल न तो कभी ख़बर बनते हैं और ना ही उनके मुद्दों पर कभी बात होती है।

मौजूदा हालात में कश्मीर घाटी, ख़ासकर दक्षिणी कश्मीर के ज़िलों में रह रहे दलितों को तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। शिक्षा और रोज़गार का सवाल बाक़ी भारत की तरह यहां भी मुंह फैलाए खड़ा है। इसे लेकर लोगों में ख़ासी नाराज़गी है। लोगों का कहना है कि तीन साल पहले अनुच्छेद 370 के ख़ात्मे के वक़्त सरकार ने विकास और रोज़गार से जुड़े जो वायदे किए थे, वे आजतक पूरे नहीं हुए हैं। ऊपर से लगातार बढ़ रही महंगाई इन लोगों की मुश्किलों में लगातार इज़ाफा कर रही है।

कश्मीर में छोटे दुकानदारों को झेलना पड़ रहा है आर्थिक संकट

राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव व स्थानीय निवसी संजय सर्राफ के मुताबिक़ इसमें शक नहीं है कि राज्य की क़ानून व्यवस्था में सुधार हुआ है। पत्थरबाज़ी की घटनाएं अब नहीं होतीं। लेकिन राज्य में चुनाव न होने का असर कमज़ोर तबक़ों पर पड़ रहा है। ग़रीब आदमी की पहुंच उपराज्यपाल छोड़िए, आम पुलिस अधिकारी तक नहीं होती। वह अपने काम के लिए नेता को तलाश करता है। लेकिन मौजूदा हालात में सबकुछ प्रशासन के हाथ में है जहां आम आदमी की बात करने वाले कम हैं। ऐसे में ग़रीब और कमज़ोर तबक़े प्रभावित होने ही हैं।

दलित वर्ग से आनेवाले कांग्रेस नेता सरदार सुरेंद्र सिंह चन्नी इस बात की तस्दीक़ करते हैं। वह कहते हैं कि लोकतंत्र में चुने हुए लोगों की अहमियत इसी से पता चलती है। लोग सीधे लेफ्टिनेंट जनरल के पास तो जा नहीं सकते। कश्मीर में तो सुरक्षा से जुड़े सवाल भी हैं। अब जबकि विधायिका निष्क्रिय कर दी गई है तो फिर आम आदमी और प्रशासन के बीच का जो संपर्क है वो तक़रीबन ख़त्म हो गया है।

रामबन ज़िले के राम अवतार का ताल्लुक़ गद्दी समाज से है। उनके पास अपनी ज़मीन नहीं है। दूसरे के खेतों में काम करके जीवनयापन करने वाले रामअवतार के लिए पिछले कुछ महीने मुश्किल भरे रहे हैं। उनका कहना है कि आमदनी घट रही है और लगातार महंगाई बढ़ रही है। अनुच्छेद 370 हटने के बाद उनके जीवन में बस एक ही बदलाव आया है। अब लोग अपनी ज़मीन ठेके पर देते हुए डरते हैं, कहीं क़ब्ज़ा न हो जाए। हालांकि उनको उम्मीद थी कि सरकार राज्य में रोज़गार के अवसर बढ़ाएगी। लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। विकास और रोज़गार के वादे अभी तक भी वादे ही हैं।

जम्मू के अवधेश बाल्मीकि की अपनी दिक़्क़तें हैं। स्थायी नौकरियां हैं नहीं और अस्थायी या अनुबंधित नौकरी से इतने पैसे नहीं मिलते कि घर ठीक से चला सकें। उनका कहना है कि पर्यटन, बड़ी परियोजनाओं या सरकारी ठेकों से जो भी लाभ है, वह कारोबारी या उंचे तबक़े के लोगों को प्राप्त होता है। राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था में बदलाव का नुक़सान यह हुआ है कि अफसर अब किसी की सुनते नहीं। आम आदमी दफ्तरों में चक्कर लगाता रह जाता है। ज़ाहिर है ग़रीब की परेशानियों में कोई कमी नहीं आई है, बल्कि उनमें बढ़ोत्तरी ही हुई है।

कहा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर राज्य का विघटन करते वक़्त सरकार ने जो दावे और वादे किए थे, अभी तक उनपर अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है। सड़क पर किसी से भी पूछिए। वह बताएगा कि लोगों ने 370 और 35ए के संशोंधनों को यही सोचकर स्वीकार किया था कि इसके बदले में क्षेत्र में उद्योग, विकास, रोज़गार, और सरकारी योजनाएं आएंगी। श्रीनगर के अल्ताफ गुज्जर कहते हैं कश्मीरियों से जो छीना गया, उसके बदले में स्थानीय लोगों को कुछ नहीं मिला है। अब जो भी बात होती हैं वह बाहरी लोगों, बाहरी वोटरों, बाहरी लोगों की सुरक्षा, बाहरी लोगों को काम देने पर होती हैं। इस बीच जो बड़े लोग हैं, वह और बड़े हुए हैं और जो ग़रीब हैं, उनकी स्थिति और भी ख़राब हुई है।  

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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