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जमीनी रपट : कश्मीर में पहली बार निशाने पर दलित-पिछड़े-आदिवासी प्रवासी मजदूर

संतोष महतो भी बताते हैं कि इस बार न सिर्फ हिंसा का डर ज़्यादा है बल्कि पुलिस और सेना की सख़्ती भी अधिक है। पिछले कुछ महीनों में जिस तरह बाहरी लोगों को निशाना बनाया गया है, उससे मन में डर तो पैदा होता ही है। पढ़ें, सैयद जैगम मुर्तजा की यह रपट

वर्ष 1947 में भारत की आज़ादी के बाद से ही जम्मू-कश्मीर में प्रवासी म़ज़दूरों की ख़ासी तादाद रही है। 1990 के दशक में जब हिंसा चरम पर थी तब भी प्रवासी मज़दूरों का यहां आना कम नहीं हुआ। लेकिन राज्य के विघटन और अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद बाहरी लोग निशाने पर हैं। पिछले तीन महीने में यहां पांच से अधिक प्रवासी मजदूरों की हत्या हो चुकी है। इसका राज्य में प्रवासी मज़दूरों की संख्या पर भी असर पड़ा है और उनकी काम करने की आज़ादी पर भी। इनमें अधिकांश बिहार, यूपी और झारखंड आदि राज्यों से आये दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं।

रामचरण गोंडी आदिवासी हैं और झारखंड के दुमका ज़िले के रहने वाले हैं। राज-मिस्त्री का काम करने वाले रामचरण हर साल अप्रैल-मई में कश्मीर आते हैं। पैसे कमाते हैं और सितंबर आते-आते घर लौट जाते हैं। चार-पांच महीने के दौरान रामचरण लाख, डेढ़ लाख रुपये कमाकर अपने घर भेज देते हैं। वापसी में अपने बीवी-बच्चों के लिए कुछ सामान भी ख़रीद कर ले जाते हैं। ऐसा पिछले बारह-तेरह साल से हो रहा है। रामचरण गोंडी ऐसे अकेले प्रवासी नहीं हैं।

खौफज़दा हैं प्रवासी मजदूर

संतोष महतो भी हर साल घाटी में काम की तलाश में आते हैं और जहां निर्माण गतिविधियां चल रही होती हैं, काम पा जाते हैं। वह बताते हैं कि सितंबर से मार्च-अप्रैल तक कश्मीर में पर्यटन का सीज़न चलता है। इस दौरान कश्मीरी ख़ासा पैसा कमा लेते हैं। सीज़न ख़त्म होते ही नए निर्माण और मरम्मत के काम ख़ूब निकलते हैं। कश्मीर में औसत दिहाड़ी झारखंड से तक़रीबन डेढ़-दो गुना है। एक कामचलाऊ मिस्त्री यहां रोज़ाना नौ सौ से हज़ार रुपए कमा लेता है। मज़दूर की औसत दिहाड़ी सात सौ, आठ सौ रुपए है। सबसे बड़ी बात है कि काम की कमी नहीं रहती है। लेकिन पिछले दो तीन साल से हालात साज़गार नहीं हैं।

दो साल तो कोरोना की वजह से पैदा हुए हालात की नज़र हो गए। रही सही कसर राज्य के विघटन और 370 हटने से पैदा हुए हालात ने पूरी कर दी है। रामचरण गोंडी इस साल अपने घर ज़्यादा पैसे नहीं भेज पाए हैं। उनका कहना है कि पिछले 14-15 साल में पहली बार प्रवासी मज़दूरों को हिंसा का निशाना बनाया गया है। इससे पहले कभी काम पर जाते समय डर नहीं लगा। हालांकि कोरोना काल के दौरान बंद पड़े निर्माण कार्य दोबारा शुरु होने से काम की कमी नहीं थी लेकिन इस बार दूर-दराज़ के इलाक़ों में जाने की हिम्मत नहीं थी।

संतोष महतो भी बताते हैं कि इस बार न सिर्फ हिंसा का डर ज़्यादा है बल्कि पुलिस और सेना की सख़्ती भी अधिक है। पिछले कुछ महीनों में जिस तरह बाहरी लोगों को निशाना बनाया गया है उससे मन में डर तो पैदा होता ही है। हालांकि उनके ही एक मुखिया किसी तरह के डर की बात नकारते हैं। मुखिया का कहना है कि यह सब राजनीति का हिस्सा है। वरना आम कश्मीरी का व्यवहार उन लोगों के साथ बहुत अच्छा है। जो लोग हिंसा कर रहे हैं वह न स्थानीय को देखते हैं और न बाहरी को। उनका तो काम ही डर फैलाना है। इसके लिए देश की गंदी राजनीति ज़िम्मेदार है।

कश्मीर के अलग-अलग इलाक़ों में यूपी, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और उत्तराखंड के मज़दूर ख़ासी तादाद में काम कर रहे हैं। इनमें निर्माण कार्य में लगे लोगों के अलावा खेतिहर मज़दूर, दुकान, गोदाम, कारख़ानों में काम करने वाले, और घरेलू नौकर भी अच्छी ख़ासी संख्या में हैं। स्थानीय पत्रकार जावेद शाह बताते हैं कि कश्मीरी अवाम थोड़े आराम-तलब हैं। उन्हें हर काम के लिए सहायक चाहिए। यही कारण है कि कश्मीर में बाहरी लोगों के लिए काम ख़ूब है। उनका भी दावा है कि बाहरी लोगों को निशाना चुनावी राजनीति के लिए बनाया गया क्योंकि इससे दूसरे राज्यों में भी एक ख़ास राजनीतिक दल को फायदा मिलता है।

ख़ैर, अब सवाल कि बाहरी लोगों के लिए कश्मीर में मुश्किलें बढ़ क्यों रही हैं। बनिहाल में पिछले तीन साल से काम कर रहे अवनीश हांसदा बताते हैं कि दिक़्क़त तब होती है जब वोटों की राजनीति के लिए नेता बेवजह की बयानबाज़ी करते हैं। वह उदाहरण देते हुए बताते हैं किस तरह हाल ही में एक बयान आया कि अगले चुनाव में राज्य में रह रहे 25 लाख लोग भी वोट डाल सकेंगे। ज़ाहिर है, वोटर लिस्ट में नाम जुड़ने, नाम कटने और वोट के ट्रांस्फर की एक प्रक्रिया है। ज़ाहिर है जिसका वोट उत्तर प्रदेश में है वह वोट ट्रांस्फर किए बिना तो वोट डाल नहीं सकता। राज्य में इतने वोटर जुड़ने की ख़बर मात्र से स्थानीय लोगों को लगा कि यह उनपर बाहरी लोगों का शासन स्थापित करने की साजिश है। ज़ाहिर है, इसका फायदा चरमपंथी उठाएंगे और निशाने पर प्रवासी लोग ही आएंगे।

लेकिन इस सबका असर प्रवासी लोगों की ज़िंदगी पर कितना पड़ेगा? संतोष कहते हैं कि अगर बाहरी लोगों को निशाना बनाया जाता है तो ज़ाहिर है काम के अवसर कम होंगे। हिंसा बढ़ी तो अगले साल वह शायद काम की तलाश में यहां न आएं। हालांकि वह दावा करते हैं कि हालात इतने बुरे नहीं हैं जितना टीवी और अख़बार वाले दिखाते हैं लेकिन फिर भी जान सर्वोपरि है। दिहाड़ी सात सौ की जगह चौदह सौ भी हो जाए, तब भी कोई अपनी जान जोखिम में ऐसे ही थोड़े न डाल देगा।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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