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महाराष्ट्र : कम आंकी गई ओबीसी की आबादी

फड़णवीस से दूसरी अपेक्षा थी कि वे बांटिया आयोग को भंग कर ओबीसी वर्ग के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में नये आयोग का गठन करने की घोषणा करेंगे। साथ ही, सरनेम के आधार पर जाति खोजने पर प्रतिबंध लगाएंगे। पढ़ें, श्रावण देवरे का यह आलेख

महाराष्ट्र में सर्व शक्तिमान शिंदे-फड़णवीस की डबल इंजन सरकार अस्तित्व में आई है और पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को कुछ ज्यादा ही आनंद महसूस हो रहा है। हालांकि जिस तरीके से उद्धव ठाकरे को अपदस्थ कर नई सरकार स्थापित करने में फड़णवीस को सफलता मिली, वह देखकर किसी भी भोलेभाले व्यक्ति को फड़णवीस के सर्व शक्तिमान होने का विश्वास होना ही चाहिए। फिर महाराष्ट्र के ओबीसी ठहरे एकदम भोले-भाले। उन्हें शिंदे-फड़णवीस सरकार पर विश्वास भी हुआ और वे आनंदित भी हुए। 

इसके दो कारण हैं। पहला कारण है कि कोई भी नई सरकार स्थापित होते ही अपनी आइडेंटिटी सिद्ध करने के लिए शपथग्रहण के बाद ताबड़तोड़ बड़े निर्णय लेती आई है। उदाहरण कम्युनिस्ट पार्टी का दे सकते हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां जब भी पूंजीवादी पार्टियों को हराकर अपनी सरकार बनाती हैं तब वे अपनी आइडेंटिटी सिद्ध करने के लिए मेहनतकशों के हित में नए कार्यक्रम घोषित करती रहती हैं। पश्चिम बंगाल और केरल में हम यह देख चुके हैं। मेहनतकश वर्ग में सबसे ज्यादा संख्या में छोटे किसान व औद्योगिक कामगार होते हैं। उन राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टियों की सरकार स्थापित होते ही जमीन का पुनर्वितरण, कामगार कानूनों में सुधार वगैरह कार्यक्रम ताबड़तोड़ अपने हाथ में ले लेती हैं।

उद्धव ठाकरे को अपदस्थ करने के पीछे कहा गया कि उनकी सरकार में हिंदुत्व खतरे में आ गया था और उसे बचाने के लिए एकनाथ शिंदे एवं उनके साथियों ने मंत्री पद को त्यागकर बगावत की व कट्टर हिन्दुत्ववादी पार्टी भाजपा के साथ मिलकर सरकार का गठन किया। अब यह सरकार हिन्दुत्व के लिए कुछ क्रांतिकारी कार्यक्रम हाथ में लेगी, इस आस में हिंदू खुश हुए। महाराष्ट्र में हिंदुओं में सबसे ज्यादा संख्या ओबीसी की है इसलिए ओबीसी के हित में कुछ घोषणा होगी ही। ऐसी आशा ओबीसी के लोगों को है। मसलन, सरकार ओबीसी महामंडल को पांच हजार करोड़ रुपए की धनराशि देगी, अथवा ओबीसी की संस्था महाज्योति को आफिस के लिए कम से कम अच्छी जगह व कर्मचारी तो देगी ही।

देवेंद्र फड़णवीस, उप मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र

नई सरकार आने से ओबीसी के आनंदित होने का दूसरा कारण भी ऐसा ही महत्वपूर्ण है। मविआ आघाड़ी सरकार रहते हुए बांटिया आयोग ने सरनेम देखकर जाति की पहचान करने व उसके आधार पर ओबीसी की गणना की। एक समय आयोग के इस कृत्य का जोरदार विरोध करनेवालों में पहले फड़णवीस ही थे। तब वे विरोधी पक्ष नेता थे और अब वे उपमुख्यमंत्री हैं। शपथग्रहण के बाद पहली शासकीय बैठक में ओबीसी के मुद्दे पर निर्णय लिया गया। इससे ओबीसी के लोगों को लगा कि शिंदे-फड़णवीस ओबीसी के मुद्दे पर गंभीर हैं। हालांकि इस बैठक में एक भी ओबीसी संगठन नहीं था। यहां तक कि ओबीसी का प्रतिनिधित्व करनेवाला कोई नेता भी नहीं था। कम से कम राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष व बांटिया आयोग के अध्यक्ष (महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य सचिव जयंत कुमार बांटिया) को तो इस बैठक में शामिल किया ही जाना चाहिए था।

सबसे आवश्यक प्रश्न था बांटिया आयोग की कार्यशैली का, क्योंकि इस कार्यशैली द्वारा ओबीसी की गणना कम करने का षड्यंत्र किया गया था। ऐसी टिप्पणी स्वयं फड़णवीस ने विरोधी पक्ष नेता रहते हुए की थी। इसलिए उनसे अपेक्षा थी कि उपमुख्यमंत्री बनने के बाद ओबीसी के मुद्दे पर ली गई पहली बैठक में वे कुछ उपाय करेंगे ताकि ओबीसी के हितों की रक्षा हाे सके।

दरअसल, बांटिया आयोग आंकड़े इकट्ठा करने का काम ठीक ढंग से कर ही नहीं सके, इसलिए उसे पैसा ही नहीं देना एक तरह का षड्यंत्र ही था। अजीत पवार ने यह षड्यंत्र सफलतापूर्वक पूरा किया। परंतु फड़णवीस जो ओबीसी के हितों को लेकर तमाम तरह के दावे करते फिरते थे, उनसे अपेक्षा थी कि वे बांटिया आयोग को भंग करते क्योंकि उसने ओबीसी की आबादी 37 फीसदी बताया है। 

फड़णवीस से दूसरी अपेक्षा थी कि वे बांटिया आयोग को भंग कर ओबीसी वर्ग के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में नये आयोग का गठन करने की घोषणा करेंगे। साथ ही, सरनेम के आधार पर जाति खोजने पर प्रतिबंध लगाएंगे। उनसे यह अपेक्षा थी कि सही सर्वेक्षण के लिए वे एक रणनीति तैयार करेंगे जिसमें शासकीय अधिकारी-कर्मचारी, उस क्षेत्र के ओबीसी संगठनों के पदाधिकारी और स्थानीय निकाय संस्थाओं में चुनकर आए वर्तमान व पूर्व ओबीसी जनप्रतिनिधियों आदि को समन्वय समिति बनाकर शामिल करेंगे। 

इसका आकलन राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने पहले ही किया था कि ओबीसी की मात्रात्मक रपट तैयार करने में कुल 435 करोड़ रुपए का व्यय होगा। फड़णवीस से अपेक्षा थी कि वे नये आयोग का गठन कर उसके लिए यह धनराशि यथाशीघ्र उपलब्ध कराते। फिर कोई फर्क नहीं पड़ता यदि कुछ स्थानीय निकाय चुनाव बिना ओबीसी के आरक्षण होते। कम से कम आंकड़े सटीक तो होते। 

खैर अभी भी समय है। शिंदे-फड़णवीस की डबल इंजन सरकार गतिशील होकर ओबीसी के हितों की रक्षा के लिए बड़ा फैसला ले। ऐसी अपेक्षा तो हम कर ही सकते हैं। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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