अधिकतर भारतीय जनमानस में वेदों के प्रति इतनी गहरी श्रद्धा व निष्ठा देखी जाती है कि वेदों के नाम पर कुछ भी परोसा जाता है, उसे ईश्वर-वाक्य मानकर स्वीकार कर लिया जाता है। जैसे एक श्लोक है– ‘वसुधैव कुटुंबकम्’अर्थात ‘धरती पर रहनवाले सभी एक परिवार के सदस्य हैं’। इसके स्रोत के बारे में तमाम तरह भी भ्रांतियां देखने को मिलती हैं। लेकिन आम जन इसमें विश्वास करते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि आज भी भारतीय जनमानस में यह धारणा घर किये बैठी है कि यह वेद अपौरूषेय अर्थात् ईश्वर द्वारा रचे गये हैं और ईश्वर-प्रदत्त वस्तु उस प्रसाद के समान है, जिसे ग्रहण कर लेना ही चाहिए। यही सबसे बड़ा कारण है देश के हिंदू जनमानस में इन वेदों की स्थिति वही है जो कि एक ईसाई की बाइबिल में तथा एक मुस्लिम में कुरान में हो सकती है। यहां यदि कोई अंतर है तो यही है कि इन दोनों संप्रदायों – ईसाई व इस्लाम – में मात्र एक-एक धार्मिक ग्रंथ है, तो हिंदुओं के चार वेद (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद) तथा ग्यारह उपनिषद हैं, जिनको वे एक-ही दृष्टि से देखते हैं अर्थात् दिव्य ज्ञान। हिंदुओं की धारणा है कि इस ईश्वरीय ज्ञान के प्रतीक वेदों के अतिरिक्त विश्व में और कोई धार्मिक ग्रंथ नहीं है। सदियों से हिंदुओं का आचार-व्यवहार इन वेदों द्वारा ही संचालित होता आ रहा है।
बहस-तलब : ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ क्या वेद वाक्य है?
‘वसुधैव कुटुंबकम्’ जैसी तमाम उक्तियों को ढाल बनाकर अक्सर ब्राह्मणवादी वाङ्मय में व्याप्त उन तमाम सामाजिक असमानताओं को ढंकने का फूहड़ प्रयास किया जाता रहा है, जो कि भारतीय सामाजिक ढांचे को बिगाड़ती रही हैं। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ नामक यह उक्ति पौराणिक वेदों का हिस्सा रही है या इसे कहीं और से उतारा गया है, इसका आकलन कर रहे हैं द्वारका भारती