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‘भारत को गैर-भारतीयों ने अधिक गहराई से समझा’

‘मैं यह कहूंगी कि अगर प्राचीन भारत के इतिहास पर जब लेखक लिखता है चाहे वह किसी दृष्टिकोण का लेखक हो, किसी विचारधारा का लेखक हो, किसी भी उद्देश्य को लेकर चल रहा हो, हम आज भी यह मानते हैं कि कई बार हमारे यहां के विद्वान भी उन्हीं ग्रंथों को आधार भी मानते है।’ पढ़ें, प्रो. (डॉ.) कौशल पंवार का यह संबोधन

[गत 20 अगस्त, 2022 को फारवर्ड प्रेस द्वारा ‘कबीर और कबीरपंथ’ पुस्तक का ऑनलाइन लोकार्पण सह परिचर्चा का आयोजन किया गया। इस परिचर्चा का विषय था– ‘भारतीय समाज के अध्ययन में बाहरी (गैर-भारतीय) समालोचनात्मक दृष्टिकोण का महत्व क्या रहा है?’। इसमें डा. भरत पाटणकर, कंवल भारती, सुभाषचंद्र कुशवाहा, प्रो. सनल मोहन, प्रो. (डॉ.) कौशल पंवार और डॉ. सिद्धार्थ वक्ता रहे। यह आलेख प्रो. (डॉ.) कौशल पंवार के संबोधन का लिप्यांतरित रूप है।]

संदर्भ : कबीर और कबीरपंथ

एफ.ई. केइ द्वारा लिखित व कंवल भारती द्वारा अनूदित पुस्तक ‘कबीर और कबीरपंथ’ को जब आप पढ़ना शुरू करते हैं तो इसे आप बीच में छोड़ना नहीं चाहते हैं। किसी भी अध्याय को लें, जब तक आप खत्म नहीं कर लेंगे, छोड़ना नहीं चाहेंगे। इसकी खूबसूरती भी है। वैसे तो कबीर साहब का अपना व्यापक विस्तार है, जो किसी भी एक पुस्तक में समेटना एक अत्यंत दुर्लभ कार्य है। 

सामान्य तौर पर हम कबीर को उनकी रचनावली के माध्यम से पढ़ते आए हैं। बीजक के माध्यम से हम उन्हें पढ़ते हैं। उनकी रचनाओं पर केंद्रित तमाम अनुवाद आए हैं। विश्वविद्यालयों में शोधकार्य हुए हैं, इन सभी को पढ़ने के आधार पर अपनी बात आपके सामने रख रही हूं। अनेकानेक अध्ययन के बावजूद मैं यह कहूंगी केइ की यह किताब अपने आप में बहुत ज्यादा प्रासंगिक और बहुत ज्यादा मौलिक है। यह इसलिए भी ऐसा है क्योंकि यह एफ.ए. केइ का शोध प्रबंध है, जो लंदन विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया गया। 

जब हम एक शोधार्थी के दृष्टिकोण से बात करते हैं तो हमें यह मानना ही चाहिए कि सामान्य लेखन और एक शोधपरक लेखन दोनों में अंतर होता है। शोध का एक प्रकाशन में आना और लेखन का प्रकाशन में आना दोनों की अपनी-अपनी खूबसूरती है। दोनों की अपनी-अपनी खासियत होती है। लेकिन यह पुस्तक ‘कबीर और कबीरपंथ’ अनेक बिंदुओं पर दूसरों से एकदम अलग है। जैसे कि अभी पाटणकर जी बोल रहे थे, बिल्कुल सही है कि जो विदेशी स्कॉलर होते हैं, जिन्हें जाति का अनुभव नहीं होता, शोषण का अनुभव नहीं होता और जो भारत की सांस्कृतिक विविधता है, उस सांस्कृतिक विविधता में जिस तरीके से भेदभाव बीच में समाहित होते हैं, उन पर बात करना या उनको शब्दों के माध्यम से से लेकर आने में निरपेक्षता का भाव होता है।

‘कबीर और कबीरपंथ’ पुस्तक का आवरण पृष्ठ व प्रो. (डॉ.) कौशल पंवार

जबकि, इसे अगर कोई भारतीय लेखक लिख रहा है तो कहीं न कहीं उसका दृष्टिकोण बीच में आएगा ही आएगा। चाहे वह रिसर्च की दृष्टिकोण से हो या अपने व्यक्तिगत अनुभवों से, उसके बारे में जब भी वह लेखन कार्य करता है तो उसके व्यक्तिगत अनुभव आते ही हैं बीच में। लेकिन जब कोई ऐसा व्यक्ति जिसने बिल्कुल इन चीजों को ना देखा हो वह जब कोई पुस्तक लिखता है तो उसका जो रिसर्च होगा, वो उनसे अलग जरूर होगा। इस मायने में यह जो पुस्तक है ‘कबीर और कबीरपंथ’ उन सवालों को उठाती है, जिनके बारे में भारतीय लेखकों ने कम उठाया है। यह एक इतिहासपरक दृष्टिकोण है, जिसमें बेशक बहुत सारी किवदंतियों का उल्लेख हैं। लेकिन यही मुझे इस किताब की जो खास बात लगी। एक तो केइ ने पहले पूर्वार्द्ध के रूप में कहूं तो उन्होंने किवदंतियों पर विस्तार से लिखा है। फिर चाहे वे उनके जन्म के संबंध में हो, चाहे वह उनकी जीवन यात्रा के संबंध में हों, चाहे कबीर के व्यक्तित्व के संबंध में हों, चाहे उनके धर्म को लेकर ही क्यों न हो। 

जिन विषयों को लेकर उनका संवाद होता है, चाहे शिष्य होने तक की यात्रा हो या शिष्य बनाने तक की यात्रा हो, उनमें पहले चर्चा किवदंतियों की, की है। फिर उसके बाद जब लेखक अगले अध्याय की तरफ जाता है तो उन किवदंतियों को कहीं न कहीं एक सच्चाई की तरह देखता है। जो विश्लेष्णात्मक रिसर्च है, उनके दायरे में वे किवदंतियों ही कहीं न कहीं आधार बना रहा है। यह बिल्कुल अलग करता है मेरे दृष्टिकोण से। और कंवल भारती ने जिस तरीके से उसको खूबसूरती से अनुदित किया है, मैं उन्हें बहुत-बहुत बधाई देती हूं। इस पुस्तक की चर्चा के साथ-साथ आज का जो विषय है हमारा ‘भारतीय समाज के अध्ययन में बाहरी’ (गैर भारतीय) का समालोचनात्मक दृष्टि से क्या महत्व है?’। तो मैं इसमें यही कहूंगी कि अगर आप प्राचीन भारत के इतिहास को भी देखें तो चाहे वह तमाम वैदिक साहित्य क्यों न हों, वहां पर भी जो बहुत सारा लिखा गया, विदेशी विद्वानों द्वारा लिखा गया है, चाहे वेदों का भाष्य लिखना हो, चाहे वेदों की पदानुक्रम कोश हों, टिप्पणियां, टीकाएं हों। यानी कि आप मैक्समूलर से शुरू कर लीजिए तो फिर अल्ब्रेख्त वेबर मिलेंगे, हर्मन जॅकोबी दिखाई देंगे।

यह भी पढ़ें – संबोधन : साहित्य और इतिहास में पक्षधरता (संदर्भ ‘कबीर और कबीरपंथ’) 

बहुत सारे रिसर्च स्कॉलर ऐसे हुए हैं, जिन्होंने वेदों पर भी लिखा है। उनका एक अलग दृष्टिकोण है। जब भी कोई लेखक लिखता है उसका अलग दृष्टिकोण होता ही है। भले ही सैद्धांतिक रूप से सभी को स्वीकार हो ना हो। जैसे जब दलित साहित्य जब अस्तित्व में आया तो उसके खास उद्देश्य थे। और जिन उद्देश्यों के आधार पर उसको न केवल लिखा गया, बल्कि उसके बाद जिन-जिन सवालों को, जिन-जिन मुद्दों को जो दलित साहित्य में भी अधूरे थे, उनके ऊपर भी साहित्य रचा जाने लगा। 

जब हम भारतीय समाज के अध्ययन में गैर भारतीयों के साहित्य की समालोचना पर बात करते हैं तो यह एक सार्थक दृष्टिकोण इस रूप में भी है। जब हम ऐसे रिसर्च स्कॉलर को देखते हैं, जिसको फॉरेनर रिसर्च स्कॉलर आप कहेंगे, उनका जो रिसर्च दृष्टिकोण होता है, वह एक निरपेक्ष भाव वाला रहता है और साहित्य को समृद्ध करता है। मेरा यह मानना है जब हम कोई साहित्यिक रचना एक विशेष क्षेत्र में कर रहे होते हैं तब चाहे भाषागत हो, चाहे क्षेत्रगत हो, चाहे जातिगत हो या समुदायगत हो,हमारे अनुभवों का प्रभाव उस पर पड़ता ही है। इन खेमों से निकलकर जब कोई बाहर का व्यक्ति कुछ करता है तो इनको आधारभूत जानकारी के रूप में जरूर देखता है, लेकिन निरपेक्ष रहता है। 

जब रचनाकर्म के दौरान भावनात्मक जुड़ाव होता है तब कहीं न कहीं उसका दृष्टिकोण अलग रहता है। केइ ने अपनी पुस्तक में अहमद शाह का उल्लेख किया है, जिन्होंने बीजक का अंग्रेजी में अनुवाद किया। वे जर्मन अनुवादक ट्रंप की चर्चा करते हैं। ऐसे ही हम इस किताब में विशप जार्ज हर्बर्ट वेस्टकॉट, सर जार्ज ग्रियर्सन का जिक्र भी पाते हैं। और इसमें मिस्टर पिनकोट ने कबीर के ऊपर जो बातचीत की है, वह चाहे सीधे रूप में ग्रंथ के रूप में लेकर न हो, लेकिन जब मैक्सवेल चर्चा करते हैं बार-बार वो इसका जिक्र करते हैं। मैं यह कहूंगी कि अगर प्राचीन भारत के इतिहास पर जब लेखक लिखता है चाहे वह किसी दृष्टिकोण का लेखक हो, किसी विचारधारा का लेखक हो, किसी भी उद्देश्य को लेकर चल रहा हो, हम आज भी यह मानते हैं कि कई बार हमारे यहां के विद्वान भी उन्हीं ग्रंथों को आधार भी मानते है। जैसे मैंने अभी थोड़ी देर पहले जिक्र किया था कि विदेशी शोधकर्ताओं ने जो वेदों पर काम किया, तो उसके बाद के लोगों ने जब अपनी रचनाएं लिखीं तो उनका आधारग्रंथ कहीं ना कहीं वे ग्रंथ भी बने। 

जब हम प्राचीन भारत के इतिहास का अध्ययन करते हैं तो आज भी जो एक पठनीय पुस्तक है, जिसको आधार भी माना जाता है, वह ए.एल. बाशम की पुस्तक ‘द वंडर, दैट वाज इंडिया’ है। जब भी कोई इतिहासकार भारत के इतिहास को देखना चाहता है तो इस पुस्तक को जरूर पढ़ता है। बाशम की यह पुस्तक लगभग 1954 में आई थी। 

ठीक इसी तरह से अगर बौद्ध दर्शन का मैं संदर्भ लूं तो ‘सिद्धार्थ’ पुस्तक जो लिखी गई थी, वह हर्मन हेसी के द्वारा लिखी गई थी। यह आज भी मौलिक रूप से देखी जा सकती है। जब भी कोई बौद्ध दर्शन पर लिखना चाहता है या बौद्ध दर्शन को समझना चाहता है तो वह इस पुस्तक का अध्ययन जरूर करता है। यह पुस्तक 1922 में प्रकाशित हुई। हर्मन हेसी ने जिन विषयों को लेकर बौद्ध दर्शन पर लिखा, वे आज भी प्रासंगिक हैं। 

ठीक इसी तरह अगर भारत की क्षेत्रीय भाषाओं पर किए गए कार्य को भी देखें, कन्नड़ का उदाहरण मैं लूंगी। कन्नड़ की जो डिक्शनरी है, आज भी बहुत जरूरी डिक्शनरी है। यह 1894 में लिखी गई थी और विदेशी विद्वान के द्वारा लिखी गई थी, जिनका नाम फर्डिनांड किटेल था। 

इन तमाम उदाहरणों के माध्यम से मैं यह कहना चाहती हूं कि जब हम तरीके की किताबों को पढ़ते हैं तो वे साहित्य के क्षेत्र में, राजनीति के क्षेत्र में या सांस्कृतिक क्षेत्र में कहें, हमारे तमाम क्षेत्रों में, हम देशी और विदेशी लेखकों के बीच लेखन के बीच तुलनात्मक अध्ययन करते हैं। जब हम एक रिसर्चर के दृष्टिकोण से करते हैं तो आप पायेंगे कि इनसे साहित्य न केवल समृद्ध होता है बल्कि एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे अंदर और हमारे साहित्य में समाहित हो जाता है। तो इसलिए आजकी परिचर्चा का जो विषय है, वह इसलिए मुझे बहुत ज्यादा अच्छा लगा क्योंकि जो समालोचना दृष्टि है, उस दृष्टि का अपना महत्व बनता है। इस महत्व में वृद्धि तब होती है जब गैर-भारतीय शोधों के जरिए अपनी बात करते हैं। वह हर बारीक जानकारी का अध्ययन करते हैं और बाकायदा रिसर्च करते हैं। दूसरी ओर हमारे यहां के शोधकर्ताओं का रिसर्च दृष्टिकोण रहता है कि जैसे वे मान के बैठे होते हैं कि हमें सब कुछ पता है। हम धरातल पर जाकर उस तरीके से रिसर्च नहीं करते। चूंकि हम यह मानते हैं कि हम उसी परिवेश में पैदा हुए हैं। अगर हम भारतीय जीवन मूल्यों की बात करें, क्योंकि हम उन जीवन मूल्यों को जी रहे होते हैं। भारत के जो हमारे सांस्कृतिक समस्याएं हैं, क्योंकि हम उनको लगातार देख रहे होते हैं। इसलिए हम उस विविधता को देखना नहीं चाहते।

अगर उत्तर भारत का कोई लेखक होगा तो मुझे नहीं लगता कि वह कर्नाटक में जाकर कन्नड़ में या तमिलनाडु जाकर तमिल भी देखेगा कि क्या वही स्थितियां क्या कन्नड़ या फिर तमिल में हैं। एक छोटा सा उदाहरण मैं लूंगी। अभी मेरी एक मित्र से बात हो रही थी। हमारे उत्तर भारत की जाति-व्यवस्था दक्षिण भारत की जाति व्यवस्था से कई मायनों में बिल्कुल अलग हो जाती है। हमारे यहां यानी उत्तर भारत में महिलाओं की जो समस्या है, वह दक्षिण के राज्यों में बिल्कुल अलग तरह की है। इसको मैं ऐसे कहूंगी कि हमारे यहां उत्तर भारत में आज भी कुछ-कुछ उदाहरण हमारे सामने हैं, मैं उनसे इनकार नहीं कर रही। लेकिन आज भी जब हमारे यहां परिवार में किसी की मृत्यु हो जाती है, तो लड़की उसमें कोई भागीदारी नहीं करती। चाहे तेरहवीं करने का हो या माता-पिता या किसी के भी रोटी करने (पिंडदान करने) का मामला हो, उसमें लड़कियों का कोई योगदान नहीं होता। उसे एक तरह से ठीक भी नहीं माना जाता। एक तरह से यह माना जाता है कि लड़की की शादी हो चुकी है तो हमारी जिम्मेदारी तो खत्म हो गई। तो लड़की को उसके मायके में इस तरीके के जो आयोजन हैं, उसमें कोई योगदान देने की जरूरत नहीं है। हमारे यहां सारा का सारा योगदान जो किया जाता है वह घरों में पुरुष करेंगे जो उनके भाई होंगे। दक्षिण में हमारे यहां से उल्टा होता है। वहां श्राद्ध और तेरहवीं आदि की रस्में बेटियां करती हैं। वहां बेटे योगदान नहीं करते हैं। यह मेरे लिए बिल्कुल ही आश्चर्यजनक बात थी कि ऐसा कैसे हो सकता है। क्योंकि हम इस चीज को एकदम पाप और पुण्य की दृष्टि से देखते हैं। तभी तो हमारे यहां कहा जाता है कि जब लड़का होता है तो वह अपने माता-पिता को स्वर्ग और मोक्ष दिलवाता है। और जब लड़की पैदा होती है तो वह बोझ की तरह होती है। उसे दूसरे की संपत्ति की तरह देखा जाता है। उसके प्रति जिम्मेदारी एक तरह से शादी तक सीमित होती है। उसके बाद जो उसका अधिकार है वह उसके परिवार का या अगर वो लड़की जागरूक है तो उसका है। ठीक उसी तरह अगर हम पूर्व की तरफ चले जाएं बिजनेस में ज्यादातर लड़कियां ही मिलेंगीं। दुकानों में भी लड़कियां ही मिलेंगीं। तो यह हमारे यहां की विविधता है। इसलिए जो विदेशी स्कॉलर होते हैं वे इन चीजों देखते हुए तमाम पहलुओं पर बात करते हैं। इस तरह से उनके रिसर्च में उनका दृष्टिकोण अलग तरह का मिलेगा। 

अब मैं एफ. ई. केइ की इस पुस्तक ‘कबीर और कबीरपंथ’ के बारे में दो-तीन बातें जरूर कहूंगी जो मुझे बहुत अच्छी लगीं। एक तो इस पुस्तक में कबीर का जहां आध्यात्मिक पक्ष उभर कर आया है, ठीक उसी तरह उनका जो सामाजिक पक्ष है, सामाजिक वर्चस्ववाद पर उनकी चोट है, चाहे वह अंधविश्वास पर हो, चाहे वह मूर्तिपूजा के संदर्भ में हो, उनके रामानंद का शिष्य होने जिक्र किया हो, उसके संदर्भ में हो। कहीं न कहीं मुझे लगता है कि जो कबीर का आध्यात्मिक दृष्टिकोण है, जो चमत्कारिक पुरुष की तरह दिखता है, वह इस किताब के तीन-चार अध्यायों में अलग तरह से है। लेकिन उनका जो सामाजिक योगदान था, उनमें से कई इस पुस्तक में इस तरह से नहीं आ पाया है, जैसे इस पुस्तक में आना चाहिए था। वह शायद इसलिए नहीं आया होगा क्योंकि मुझे लगता है कि बाहर का स्कॉलर जब लिख रहा है तो वह इन चीजों से कुछ तरीके से परिचित नहीं हो पाया होगा, जिस तरीके से यहां के लोग होते हैं। जिस तरीके से सिकंदर लोदी के शासन में कबीर जी को दिखाया और तमाम अच्छी तरीके से मुस्लिम विरोध और हिंदू समर्थन जिस तरीके से बीच में पिसते हैं, बीच में कई बार पत्नी के संदर्भ में, शिष्या के संदर्भ में भी हैं। उनकी मां के संदर्भ में भी हैं, सभी के बारे में किवंदंतियां जुड़ी थीं। उसके बाद हकीकत में क्या रहा होगा या हकीकत उसके कितने नजदीक रहा होगा, लगता है इसके ऊपर भी लेखक को और ज्यादा गहराई से सोचने और लिखने की आवश्यकता थी। हालांकि यह शोध है और लेखक के लिए किवदंतियां भी सबूत रहीं। लेकिन जब एक जगह पर जिक्र आता है जो कि बहुत अच्छा है जब कबीर के गुरु अपेक्षा करते हैं कि दूध लेकर आएं अपने मृत पिता को अर्पित करने के लिये। उनके तमाम शिष्य दूध लेने के लिए जाते हैं। लेकिन कबीर साहब मरी हुई गाय की हड्डियों से दूध मांगते हैं। जब उन्हें दूसरे लोग देखते हैं तो कहते हैं कबीर साहब, ये क्या कर रहे हैं। मरी हुई गाय से आप दूध कैसे ले सकते हैं? तब वहां कबीर साहब बहुत अच्छा वक्तव्य देते हैं। वे सीधा कहते हैं कि स्वर्गीय गुरू के लिए तो मृत गाय का दूध ही ज्यादा उचित है। तो यह एक बहुत बड़ी बात है जिस तरीके से एफ. ई. केइ ने इस पुस्तक में इस संदर्भ में दिया। और जिस तरीके से आदिग्रंथ और बीजक आदि का विश्लेषण केइ करते हैं, वह वाकई इस किताब को अलग करता है। 

अभी तक कबीर साहब के उपर अनेक रिसर्च हो चुके हैं, जो हमलोग पढ़ भी रहे हैं। जेएनयू में भी उनके उपर रिसर्च होते रहे हैं। लेकिन यह पुस्तक बिल्कुल अलग तब बन जाती है जब इसमें बीजक और आदिग्रंथ का पूरा संदर्भ मिलता है।
अंत में मैं बस इतना ही कहूंगी कि यह जो पुस्तक है, जो उस वक्त के महापुरुष के बारे में है। वे जिस तरीके से अपने काल से आगे की चीजें देखते थे या जिस तरीके से उस पूरे परिदृश्य को समझ रहे थे, क्योंकि उस वक्त राजनीतिक अराजकता भी बहुत तीक्ष्ण थी जब कबीर साहब का समय रहा। कबीर साहब बहुत आगे की चीजें देख रहे थे। अपने आसपास की चीजों का विश्लेषण करते हुए देखना, जिसमें पूरी दुनिया समाहित हो जाती है। इसका जिस अविरल तरीके से अनुवाद कंवल भारती जी ने किया है, मैं एक बार फिर से उन्हें और फारवर्ड प्रेस को धन्यवाद देती हूं।

(संपादन : समीक्षा/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कौशल पंवार

लेखिका इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में संस्कृत की प्रोफेसर हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'संहिताओं में शूद्र', 'भारतीय संस्कृत में शूद्र एवं नारी', 'धर्मशास्त्रीय शूद्र अवधारणा', 'शूद्रास्त्री : परतंत्रता एवं प्रतिरोध' और 'बवंडरों के बीच' (आत्मकथा) शामिल हैं

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