फारवर्ड थिंकिंग
गत 7 नवंबर, 2022 को आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिनाओं पर अपने न्यायादेश में उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने ‘आगे कदम बढ़ाने’ और ‘बंधुत्व’ की ज़रुरत पर जोर दिया। परन्तु पीठ का यह न्यायादेश कहीं से भी इन उच्च आदर्शों को बढ़ावा देता नज़र नहीं आता है।
यह इसलिए क्योंकि हजारों नहीं तो कम से कम सैकड़ों वर्षों से धर्मग्रंथों द्वारा थोपी और धार्मिक नियमों द्वारा समाज पर लादी गई जाति-आधारित परत-दर-परत ऊंच-नीच, जिसे आरक्षण के माध्यम से राज्य द्वारा केवल कुछ हद तक समाप्त किया जा सका है, को नज़रअंदाज़ कर हमारा समाज कभी आगे नहीं बढ़ सकता। यह इसलिए भी क्योंकि यद्यपि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए (गणतंत्र लागू होने के साथ ही), अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) के लिए सरकारी नियोजन में (1990 के दशक से) और उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में (2006 से) आरक्षण की व्यवस्था बेशक की गई है, लेकिन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मामले में इसका पूर्णरूपेण क्रियान्वयन अभी होने लगा है और ओबीसी के मामले में तो यह अब तक नहीं हो सका है। सच तो यह है ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था को अगर पूरी तरह लागू कर भी दिया जाएगा तब भी इस वर्ग के नागरिकों को आबादी में उनके हिस्से का ज्यादा से ज्यादा 50 प्रतिशत प्रतिनिधित्व ही मिल सकेगा।
आज भी मंत्रालयों, विभागों, सार्वजनिक लोक उपक्रमों और विश्वविद्यालयों में ऊंची जातियों का बोलबाला है। उच्च न्यायपालिका भी हमारे समाज की संरचना को प्रतिबिंबित नहीं करती। उदाहरण के लिए, ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मामले में निर्णय सुनाने वाली पीठ में एक भी न्यायाधीश एससी, एसटी या ओबीसी वर्ग के नहीं थे। ज्ञातव्य है कि ये तीनों समुदाय मिल कर भारत की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। यह भी संभव है कि जिन माननीय न्यायाधीशों ने यह निर्णय सुनाया है, उनका एक भी सहपाठी या सहकर्मी इन वर्गों से न रहा हो। संविधान विशेषज्ञ फैजान मुस्तफ़ा ने द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने एक लेख में कहा है कि उच्चतम न्यायालय हमेशा से जाति के आधार पर आरक्षण को मंज़ूरी देने में ना-नुकुर करता रहा है और शर्ते लगाता रहा है। जैसे कि ओबीसी आरक्षण में ‘क्रीमीलेयर’ के प्रावधान के जरिए आर्थिक शर्तें जोड़ दी गई हैं। लेकिन अब शीर्ष अदालत ने एससी, एसटी और ओबीसी को बाहर रखने व ऊंची जातियों हेतु पृथक कोटा को जायज करार दिया है।
इस प्रकार संसद द्वारा 103वें संविधान संशोधन विधेयक को पारित करने से शुरू हुई उस प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट ने रोकने से इंकार कर दिया है, जो देश में भाईचारे के भाव पर मर्मांतक प्रहार करती है, और जो आर्थिक न्याय के नाम पर जातिगत उंच-नीच को कायम रखने वाली है।
जोतीराव फुले, शाहूजी महाराज और बी.आर. आंबेडकर के साथ-साथ विवेकानंद और अरबिंदो का नाम भी संविधान पीठ ने अपने फैसले में उद्धृत किया है। लेकिन विवेकानंद व अरविंदो के लिए भाईचारा जहां केवल एक आदर्श था, वहीं फुले, शाहूजी और आंबेडकर के लिए यह एक आवश्यकता थी, जिसकी जडें उनके और उनके समुदाय के साथ असमान बल्कि अमानवीय व्यवहार में थीं। जातियों के पिरामिड में जिस सोपान पर वे खड़े थे, वहां से वे यह साफ़-साफ देख सकते थे कि श्रेणीबद्ध जातिगत पदक्रम, हमारे समाज में बंधुत्व भाव के अभाव का मूलभूत कारण है।
अभी पिछले माह मीडिया के जरिए खरगोन, मध्यप्रदेश में ऊंची जातियों के कुछ बिल्डरों द्वारा ओबीसी किसानों से उनकी ज़मीनें सस्ते दाम पर खरीदने के लिए एक षड़यंत्र प्रकाश में आया। उन्होंने अपनी संस्था का ऊर्दू नाम रख लिया और उसमें एक मुसलमान की नियुक्ति कर दी। इसके बाद, किसानों से कहा गया कि जल्दी ही उनकी ज़मीनें मुसलमानों की बस्ती और बूचडखानों की बीच होंगीं। इसके बाद किसानों ने अपनी ज़मीनें मिट्टी के मोल बेच दीं। कई सालों बाद, जब उस संस्था ने ऊंची जाति से संबंधित अपने असली पहचान वाला नाम रख लिया, तब किसानों को समझ में आया कि उनके साथ धोखा हुआ है।
गुजरात के मोरबी जिले में माच्छू नदी पर पुल टूट जाने जैसी घटनाओं के पीछे बंधुत्व का अभाव ही है। छठ पूजा के दौरान इस हादसे में करीब 135 लोगों ने अपनी जान गंवा दी। हम अपने परिवार, अपने खानदान, अपनी जाति और उप-जाति से आगे सोच ही नहीं पाते। अपने फायदे के लिए हम सैकड़ों लोगों की जान खतरे में डाल देते हैं। जाति-आधारित समाज, निर्मम पूंजीवाद के लिए ऊर्वर जमीन है, जिसमें अधिकांश लोग, खासकर उत्पादक वर्ग परेशानहाल और दुखी रहते हैं तथा उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखता जबकि आवश्यकता समान अनुभूति रखने की है। उच्च जातियों के लिए पृथक आरक्षण कोटा और हाशियाकृत समुदायों को उनकी आबादी से बहुत कम आरक्षण दिया जाना, इसी वास्तुस्थिति को खारिज करता है।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)
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