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जोतीराव फुले का काव्य-कर्म

जोतीराव फुले अपने साहित्य से एक ओर तो शूद्र-अतिशूद्रों को ब्राह्मणवादी नैतिक बोध से मुक्ति दिलवाने के लिए तथा दूसरी ओर इस दलित-वंचित-उपेक्षित वर्ग के विकास के लिए अंग्रेजी सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहते थे। बता रहे हैं डॉ. सुभाष चंद्र

जोतीराव फुले न केवल भारत में सामाजिक क्रांति के जनक थे, बल्कि वे आधुनिक मराठी कविता के भी जनक थे। उन्होंने साहित्य को जनसाधारण के सामाजिक यथार्थ से जोड़कर उसकी आकांक्षाओं को वाणी दी। उनके उनका काव्य संसार में ‘छत्रपति शिवाजी का पंवाड़ा, ‘शिक्षा विभाग के ब्राह्मण अध्यापक का पंवाडा’, ‘ब्राह्मणों की चालाकी’ तथा ‘अखंडादि काव्य रचना’ है।

जोतीराव फुले का समय भारतीय समाज में नवजागरण का काल खंड है। अंग्रेजी-सत्ता की स्थापना से भारतीय बौद्धिक-जगत में हलचल हुई, जिसके प्रभाव तत्कालीन साहित्यकारों पर भी स्पष्ट तौर दिखाई देते हैं। नवजागरण के अधिकांश चिंतक-विचारक व समाज-सुधारकों समाज के विशेषाधिकार-प्राप्त उच्च-वर्ग से ताल्लुक था, लेकिन फुले का संबंध समाज की निचली श्रेणी से था। समाज का उच्च-वर्गीय बुद्धिजीवी जहां साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद के बीच, धर्मों-मतों की श्रेष्ठता की बीच संघर्ष का महाआख्यान लिख रहा था, वहीं जोतीराव फुले ने भटजी-सेठजी तथा शूद्र-अतिशूद्र यानी उच्च-वर्ग व निम्न-वर्ग के बीच, पुरुष-वर्चस्व तथा स्त्री-मुक्ति के बीच, शास्त्रीय-वर्चस्ववादी भाषाओं तथा लोकभाषाओं के बीच, शास्त्रीय-ज्ञान तथा अनुभवजन्य लोकज्ञान के बीच संघर्ष को अभिव्यक्ति दी।

जहां उच्च-जाति के बुद्धिजीवी ब्राह्मणी ग्रंथों की सत्ता को स्थापित कर रहे थे, वहीं जोतीराव ने उनकी नैतिक सत्ता को चुनौती दी। मुद्दों के प्रतिदृष्टिकोण में अंतर असल में वर्गीय हितों की टकराहट को दर्शाता है। भारतीय समाज को शिक्षित उच्च-वर्ग स्थानीय स्तर के संगठनों और सभाओं के माध्यम से उच्च पदों पर भारतीयों की नियुक्ति को राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ जोड़कर प्रस्तुत कर रहा था, तो जोतीराव फुले उच्च-वर्गीय भारतीयों के प्रशासन में नियुक्ति को निम्न-वर्ग के शोषण मानते थे और जाति के आधार पर प्रशासन में भागीदारी की मांग कर रहे थे।

उनकी कविताओं में मेहनतकश वर्ग के चरित्रों की कर्मठता, श्रमशीलता के जीवंत चित्र हैं, जो उनकी सामाजिक भूमिका और मानवीय गरिमा को उजागर करते हैं। दूसरी ओर उनकी रचनाओं में मुफ्तखोर-शोषक की धूर्तता, चालाकी व कुटिलतापूर्ण व्यवहार को भी उजागर किया है। सामाजिक-भेदभाव का चित्रण, सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष, आर्थिक-शोषण की प्रक्रिया, सांस्कृतिक-वर्चस्व व धार्मिक पाखंड पर चोट, मेहनतकश की महत्ता को रेखांकित करता तथा शोषण से मुक्ति की चेतना पैदा करनेवाले उनके काव्य को आधुनिक दलित साहित्य का आदि स्वर कहा जा सकता है।

जोतीराव फुले (11 अप्रैल, 1827 – 28 नवंबर, 1890)

जोतीराव फुले अपने साहित्य से एक ओर तो शूद्र-अतिशूद्रों को ब्राह्मणवादी नैतिक बोध से मुक्ति दिलवाने के लिए तथा दूसरी ओर इस दलित-वंचित-उपेक्षित वर्ग के विकास के लिए अंग्रेजी सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहते थे।[1] वे साधारण-जन की भाषा में सरल ढंग से उपयोगी विषय प्रस्तुत करते थे। भाषा के मामले में पूरी तरह सचेत थे।[2] उन्होंने जनभाषा के लिए संघर्ष किया। पेशवा शासन के समय से ब्राह्मणों को पुरस्कार देने के लिए संस्कृत ग्रंथों को अनुदान दिया जाता था। अंग्रेजी राज्य में भी यह परंपरा जारी रही। ‘दक्षिणा प्राइज कमेटी’ में मराठी भाषा की पुस्तकों को इसमें शामिल नहीं किया जाता था। मराठी भाषा की पुस्तकों को पुरस्कार के लिए जोतीराव फुले ने मोर्चा निकाला। भाषा का सवाल असल में सत्ता-संघर्ष से जुड़ा हुआ है। मध्यकाल में मराठी के एक संत ने सवाल उठाया था– संस्कृत भाषा देवताओं ने बनाई, मराठी क्या चोर उचक्कों से आई?

जोतीराव फुले शब्दों की उत्पति के बारे में भाषा-विज्ञान के नियमों का नहीं, बल्कि आम धारणाओं और विश्वासों का प्रयोग करते थे, मसलन महार – महाअरि, क्षुद्र से शूद्र। इस कारण कथित विद्वत समाज उनका उपहास भी करता था।[3] भाषा में लोकोक्ति और मुहावरों का प्रयोग उनकी भाषा को जीवंत बनाता है।[4] उनकी भाषा में एक लोच थी, जो विषय के अनुरुप उसका स्वरुप बनता था। सामाजिक भेदभाव व शोषक पर प्रहार के समय उनकी भाषा में आक्रोश व व्यंग्य की आग धधकने लगती थी। वहीं शोषित वर्गों की पीड़ा का वर्णन करते हुए वह भाषा गहरी संवेदना व सहानुभूति युक्त होकर पत्थर को भी पिघलाने की क्षमता रखती थी। जोतीराव फुले जब ब्राह्मणों की धूर्तता और चालाकी का चित्रण करते हैं, तो उनकी कल्पना शक्ति व अद्भुत वर्णन-क्षमता के दर्शन होते हैं। शोषण के मार्मिक चित्र खींचने के लिए शब्दों का चयन कमाल का था। यथा–

टुकडख़ोरों की पांत बैठी उसके हाल जिसका माल
वे पढ़ाते बच्चे गैरों के ही।।
जुतते माली-कुनबी खेतों में भरती करते अनाज की
मिलती नहीं लंगोटी।।
पशुओं की रखवाली करते नन्हें बच्चे
जूते नहीं जलती पांव की चमड़ी।।
बाप कुढ़ता मन मन में पढऩे का समय नहीं
नसीब को कोसता।।[5]

फुले के साहित्य रचना का मकसद लोगों से संवाद करना था। गद्य रचनाओं में दो पात्रों के बीच संवाद-शैली की तकनीक प्रयोग किया। दो पात्रों के संवादों से विषय स्पष्ट होता जाता है। कविताओं में उन्होंने कथावाचन की शैली का प्रयोग किया और समाज के विभिन्न वर्गों के जीवन का तुलनात्मक चित्रण किया है। जिस समाज में साक्षर-शिक्षित लोगों की संख्या सीमित हो, वहां अभिव्यक्ति का शायद सही कारगर ढंग है। उनको अपने पाठकों-श्रोताओं के ज्ञान के स्तर का अहसास था, इसलिए उनकी सुविधा के लिए एक विषय को अनुभागों में बांटकर लिखा है। यह उनकी रचनाओं की लेखन-योजना का अनिवार्य हिस्सा है कि जिस विषय का वे वर्णन करते हैं, उस पर केंद्रित रहते हैं।[6]

जोतीराव फुले के साहित्य को उसके कला-सौष्ठव के कारण अमरत्व नहीं मिला, बल्कि अपने समय के बौद्धिक-विमर्श की अभिव्यक्ति तथा तत्कालीन चुनौतियों से टकराने के अदम्य साहस के कारण उसका ऐतिहासिक महत्व है। उस दौर के सभी महान रचनाकारों ने अपनी कला से अधिक अपने समाज व देश को प्राथमिकता दी है। देश और समाज की परिकल्पना तथा उसके विकास के नजरिये अलग-अलग जरूर रहे हैं। जोतीराव फुले अपने दृष्टिकोण में स्पष्ट थे। वे शूद्रों-अतिशूद्रों, स्त्रियों, किसानों के हितों की दृष्टि से परंपराओं, धर्म, संस्कृति तथा राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों को व्याख्यायित कर रहे थे।

सांस्कृतिक वर्चस्व को चुनौती

फुले ने अपनी कविताओं में ब्राह्मणों के सांस्कृतिक वर्चस्व को चुनौती दी। उन्होंने भारतीय इतिहास को ब्राह्मणों और शूद्रों के बीच संघर्ष का इतिहास कहा है। उन्होंने ब्राह्मणी-संस्कृति व परंपराओं के समानांतर शूद्र-संस्कृति व परंपराओं का उल्लेख किया। ब्राह्मणी ग्रंथों की आलोचना की तथा ब्राह्मणी देवी-देवताओं व पौराणिक नायकों परशुराम-वामन आदि के विपरीत के खंडोबा, महिषासुर, जोतिबा, और बलि राजा को आदि को शूद्रों के देवी-देवताओं के तौर पर स्थापित किया।

उनके विचार में ब्राह्मणों ने यहां के मूलनिवासी शूद्रों को पराजित किया, उनके ऊपर अत्याचार किए और दास बना लिया। शूद्रों को मानसिक तौर पर गुलाम बनाने के लिए ब्राह्मणों को श्रेष्ठता स्थापित करने वाले ग्रंथों की रचना की तथा इन ग्रंथों को ईश्वरीय रचना कहकर धर्म से जोड़ दिया। शूद्रों-अतिशूद्रों को अपवित्र कहकर अस्पृश्यता की अमानवीयता लाद दी गई और उन्हों सार्वजनिक जीवन से बहिष्कृत करके मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया गया। यह सांस्कृतिक आक्रमण था, जिससे स्थानीय संस्कृति को आर्य-संस्कृति में बदल दिया। फुले ब्राह्मण वर्गों की गुलामी को समाप्त करने के प्रति प्रतिबद्ध थे।[7]

ब्राह्मणों के सांस्कृतिक वर्चस्व को चुनौती देने के लिए फुले ने ‘अखंडादि काव्य रचना’, ‘ब्राह्मणों की चालाकी’, ‘ब्राह्मण अध्यापक का पंवाड़ा’ आदि कविताओं में ब्राह्मण देवी-देवताओं की खिल्ली उड़ाई तथा ब्राह्मणों के अनैतिक एवं भ्रष्ट आचरण की कड़ी आलोचना की। शूद्रों में सांस्कृतिक गौरव पैदा करने के लिए ‘शिवाजी का पंवाड़ा’, ‘दस्यु का पंवाडा’ आदि कविताओं में शूद्रों के नायकों-पौराणिक चरित्रों तथा स्थानीय देवी-देवताओं को स्थान दिया। ‘बलिराजा’ कविता में बलि मूलनिवासियों का राजा है, जिसे शूद्र दशहरा-दीवाली जैसे त्यौहारों पर याद करते हुए कहते हैं कि ‘अला-बला जावे, बलि का राज आवे’।[8] आर्यों ने हमला करके यहां के मूलनिवासियों को पराजित किया और यहां के लोगों को दास बना लिया। वामन ने बलि की हत्या की। फुले ने‘गणपति कविता’ में गणेश देवता का मजाक उड़ाया है–

पशु सिर में सूंड, पुत्र मानव का। स्वांग गणपति का। लिखा है ग्रंथ में।।
वैसे जूहे पर लाद करके शरीर। फूंकता है सांसें। सूंड से।।
अछूतों से दुराव, पंडों को लड्डू देता। पवित्रता की डींग। हांकता जैसे।।
गारा खुदवाकर बनाया गणेश। किया ढबुआ ढेर। भाद्रपद में।।[9]

ब्राह्मणों पर प्रहार

ब्राह्मणों ने खान-पान की शुद्धता के आधार पर स्वयं को समाज में सबसे ऊपरी श्रेणी में रखा हुआ था। वे अपने को ईश्वर की श्रेष्ठ कृति के तौर पर प्रस्तुत करने में कोई शर्म नहीं करते थे तथा शूद्र वर्ग के मानस में उनके प्रति अंधश्रद्धा व पूज्य भाव ब्राह्मणों की सबसे बड़ी पूंजी थी। वे (ब्राह्मण) स्वयं को धर्म का, सृष्टि का उद्धारक मानते थे। फुले ने ब्राह्मणों के दोहरे चरित्र को बेबाकी से अपनी कविताओं में चित्रित किया। ब्राह्मण धर्म भारत में सत्ताशील शक्तियों का सहयोगी होकर सत्ता का आनंद लेता रहा है। पवित्रता एक ढोंग है। शूद्रों से नफरत को दर्शाती है। ब्राह्मण अंग्रेजों के साथ खाते-पीते हैं, हाथ मिलाते हैं। उनके इस व्यवहार पर भी फुले ने प्रश्नचिह्न लगाया कि वे मेहनतकश जनता में फूट पैदा करके उसका शोषण करते हैं। धार्मिक अथवा व्यवहारिक दृष्टि से वे श्रद्धा तो क्या आदर के पात्र भी नहीं हैं। फुले लिखते हैं–

चांडाल ब्राह्मण मातंग दूर रखते। स्वयं पानी भरते। कुंए से।।
प्यास से व्याकुल यदि मातंग मरा। दया ब्राह्मण को । आती नहीं।।
मानव के द्रोही, घमंडी-अभिमानी। दुनिया में दुर्गुणी। भकोसू।।
मातंगों की शादी में दक्षिणा वे लेते। धोकर के खाते। जोती कहे।।[10]

ब्राह्मण कुलकरणी शूद्रों को भड़काते। झगड़े खड़े करते। गांव-गांव में।।
झगड़े के वास्ते शूद्रों को कर्ज देते। ब्राह्मण रिश्वत लेते। सभी से।।
ज्ञानहीन शूद्र ब्राह्मणों ने किए। बदला लिया। हमेशा से।।
ऐसे लोगों को शिक्षा दो जल्दी। भिक्षा प्राप्त करके। जोती कहे।।[11]

‘सत्यपाठ’ कविता में ब्राह्मणों के दोहरे व्यवहार को चित्रित किया है। ब्राह्मण पवित्रता ढोंग रचते हैं, वास्तव में उनका व्यवहार घृणित है–

अंग्रेजों के साथ मद्य-मांस खाते। मातंग को दोष देते। भ्रष्ट कह के।।
न्याय देते समय रिश्वत खाते। प्रोत्साहन देते। अन्याय को।।
योनि का द्वार मौज से चूसते। महारों को नीय। नीच बच्चे।।
ऐसे मानवद्रोही आर्यों को समझिए। पूरी तरह त्याग दीजिए।। जोती कहे।।[12]
जातिभेद ब्राह्मणों को यथार्थ लगता। म्लेच्छों को चीरता। स्वार्थ के लिए।
ब्राह्मण सारे श्रेष्ठ खानदान से बनते। हीन समझते। दुनिया को।।
धर्मभेद उन्होंने स्वार्थ के लिए किया। शूद्रों को लूटने के लिए। धर्म के नाम पर।।
आर्य और ख्रिस्त-मुहम्मदी को बताओ। नहीं उनमें भेद। जोती कहे।।[13]

‘पुरोहित वाणी’ कविता में पुरोहितों द्वारा विभिन्न अवसरों पर शूद्रों के शोषण को चित्रित किया है। पांच-दस के समूह में पंडे निकलते हैं और शूद्रों का दान-दक्षिणा के नाम पर शोषण करते हैं। फुले लिखते हैं–

मेरी तुंबड़ी भर दे। मेरी तुंबड़ी भर दे।। ध्रुपद।।
आए आचार्य-पंडे दस पांच के दल में। जोर से करते बकवास।।
हाथ फैलाते झट। लेते दक्षिणा कड़ी। ऊपर से कसते लंगोट।।
मेरी तुंबड़ी भर दे। मेरी तुंबड़ी भर दे।।
जाति बाजीगरी की नचैया। रोककर रखता कलाई।।
लेता दक्षिणा झट। देखता रांडों का मठ।।
मेरी तुंबड़ी भर दे।।
भला भला भला भला। अरे, काहे का भला।।
पोथी बगल में डाल। जाते शूद्रों के घर में।।
मेरी तुंबड़ी भर दे।।
भारी बकबक करते। स्वांग भेड़ का भरते। दाढ़ीवाली सारी।।
मेरी तुंबड़ी भर दे।।
बहाना तीर्थ का बनाते। कटोरे में खाते। कुपात्र पानी देते।।
जाति ठग की भली।।
मेरी तुंबड़ी भर दे। मेरी तुंबड़ी भर दे।।
हाथ गौमुख पर रखते। मन पैसे पर लगाते।।
या जवान लड़कियों पर लगाते।।
भड़ुआ रात-दिन शय्या का साथ करते।
मेरी तुंबड़ी भर दे।।[14]

विद्या बिन मति गई

भारतीय समाज में ज्ञान वर्चस्व बनाए रखने का साधन रहा है। अन्य वर्णों-वर्गों तक ज्ञान न पहुंचे समाज के उच्च वर्गों ने इसके प्रावधान किए। शूद्रों और स्त्रियों को शिक्षा व अध्ययन से वंचित करके ही समाज का उच्च वर्ण उनमें दासता की स्वीकृति पनपाने में सफल हो सका है। कपोल-कल्पित धार्मिक कथाओं और ब्राह्मणवादी आचार-व्यवहार को स्वीकार करके वंचित वर्ग सांस्कृतिक उपनिवेश का शिकार रहा है। जोतीराव फुले को सामाजिक शोषण व गुलामी का कारण अज्ञानता-अविद्या में दिखाई दिया। उन्होंने कहा– ‘विद्या बिना मति गई/ मति बिना नीति गई/ नीति बिना गति गई/ गति बिना वित्त गया/ वित्त बिना शूद्र गए/ इतने अनर्थ, एक अविद्या ने किए।’[15]

फुले ने शिक्षा व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं विद्यार्थियों, शिक्षकों, पाठ्यक्रम, शिक्षा का ढंग, शिक्षण संस्थाओं तथा शिक्षा की उपयोगिता को कविताओं में अभिव्यक्त किया है। उन्होंने शिक्षा में सामाजिक भेदभाव को उद्घाटित किया–

ब्राह्मण शिक्षक
मिट्टी में मिलाता पढ़ाई शूद्रों की
यही अनुभव है
यही सत्य है।।[16]
शूद्र बच्चों को ब्राह्मण स्कूल में सताते। मजाक उड़ाते। कक्षा में।।
जाति के ब्राह्मण गर्व से चिल्लाते। शेखी बघारते। हम ही श्रेष्ठ।।[17]

अधिकांश शिक्षक ब्राह्मण जाति से हैं। शूद्र-अतिशूद्रों को शिक्षित करने में कोई उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। उनके मन में निम्न-जाति के प्रति पूर्वाग्रह हैं। वे निम्न जाति के बच्चों को शिक्षा के प्रति निरुत्साहित करते हैं। ब्राह्मण बच्चों को तन्मयता से पढ़ाते हैं, लेकिन निम्न जाति के बच्चों को शारीरिक दंड देकर स्कूल छुड़वा देते हैं। फुले लिखते हैं–

ब्राह्मण परीक्षक पक्षपाती होते। ब्राह्मण छात्र को देते। अंक ज्यादा।।
शूद्र छात्रों पर आंखे निकालते। डराते-धमकाते। परीक्षा में।।[18]
शिक्षा समझाकर देते स्वजाति को
बार-बार गलती करने पर भी।।
परजाति के बच्चे गलती पर खाते थप्पड़ मुक्का
कान ऐंठते जोर से।।
मन से घायल कर शूद्र बालक को देते भगा
खानापूर्ति को रखते केवल।।[19]

शिक्षा-व्यवस्था पर ब्राह्मणों का वर्चस्व है। अध्यापक से लेकर अधिकारी तक ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण शिक्षक झूठी रिपोर्ट बनाते हैं और अपना रोजगार बनाए रखते हैं। उनकी निम्न जाति बच्चों को शिक्षा देने में कोई रूचि नहीं, वे खानापूर्ति के लिए उनका दाखिला करते हैं। ब्राह्मण निरीक्षक के सामने शूद्रों के बच्चों की शिक्षा में रुचि की कमी तथा अक्षमता का सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। इनकी मनमानी पर कोई निगरानी करने वाला नहीं है। जोतीराव फुले लिखते हैं–

ऊंची जाति के निरीक्षक
हाजिरी जांचते
गुणी कहते स्कूल मास्टर।।
पंडित की तारीफ अपार
रपट में लंबा-चौड़ा विस्तार
संक्षेप में गाता हूं सार।।
।। तर्ज।।
मूर्ख जात शूद्र की
नहीं प्रवृत्ति लिखने की
ऐसी वैसी चुगलखोरी करते
जाति वालों की करते बढ़ती सिद्ध साधक होकर
नहीं रखता कोई इन पर नजर।।
कुत्ते खा जाते पिसान अंधे का
बच्चे वे गैरों के ही पढ़ाते।।[20]

स्कूल के शिक्षक अखबार पढ़ते रहते हैं, कहते हैं कि उनकी पढ़ाने में रुचि नहीं है और न ही उनमें क्षमता है। असल में वे उनको पढ़ाना नहीं चाहते। फुले का कहना है कि ब्राह्मण शिक्षक निम्न जाति के बच्चों को कभी नहीं पढ़ायेंगे और अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकते हैं। वे लिखते हैं–

नित स्नान पूजा-पाठ करते पंडित जी
लड़के ही ले लेते हाजिरी
वक्त काटते टफ पढाकर शूद्र बच्चों को
गुरु का पद चलाते।।
जल्दबाजी में आए आठ बजते बजते
जम गए कुर्सी आसन पर।।
दस बजा देते ब्राह्मण बच्चों को पढ़ाते
देखते छांव पहुंची कहां।।
माथे का पसीना पोंछते थक गए बेचारे
भाग्य को कोसते।।
माथा टिकाते टेबिल पर आराम से
दिखाते बच्चों को कितना प्रेम।।
हड़बड़ाकर उठते भोजन समय
झट छुट्टी करते स्कूल की।।
।। तर्ज।।
सो जाते शांति से भोजन पाकर
पढ़ते फिर न्यूज पेपर।
लिखते पत्र आखिर
आने पर ठंडक।।
थोड़ी देर जाते स्कूल
मर्जी से पढ़ाते।।[21]

फुले ने शिक्षा के ढांचे का वर्ग-विश्लेषण करते हुए लिखा कि सरकार कुछ मधुर सपने पाले हुए है कि उच्च वर्ग के लोग शिक्षा प्राप्त करके निम्र वर्ग लोगों का शिक्षित करेंगे। इस सोच के साथ लगान के रूप में एकत्रित की गई। गरीबों के गाढ़े पसीने की कमाई को उच्च वर्ग के लोगों पर खर्च करती है। उच्च वर्ग के बच्चे स्कूलों से शिक्षा पाकर अपनी व्यक्तिगत उन्नति करते हैं, लेकिन समाज की उन्नति में कोई भूमिका नहीं निभाते। फुले कहते हैं–

अन्य जाति के गुरु
सात्विक ज्ञान के नमूने
फल देगा पेड़ फिर
शूद्रों का सुख होगा
ब्राह्मण शर्मिंदा।।
न्याय नहीं शूद्र बालक को
बेचैन होते जोती।।[22]

संदर्भ :

[1] फुले लिखते हैं, “हमारे देश में ब्राह्मणों का कितना महत्व है और वे लोग धर्म के नाम पर आम लोगों पर कितना अन्याय करते हैं, इस बात को सभी लोग जानते हैं। यह अनुभव करते हुए भी कोई यह कहेगा कि इस किताब को लिखने की क्या आवश्यकता है, तो ऐसे व्यक्ति को यह जवाब दिया जा सकता है कि ब्राह्मण लोग सभी जातियों के साथ अपना षड़यंत्र एक जैसा नहीं चलाते। कुनबी, माली आदि शूद्र लोगों में उनकी पुरोहितगीरी बहुत चलती है, लेकिन यह बात अन्य जाति के लोगों को, खासकर आजकल के प्रगतिशील लोगों को मालूम नहीं। जो लोग पढ़-लिख गए, जिन्होंने अपना विकास किया, उनमें ब्राह्मणों का, पुरोहितों का महत्व दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है। लेकिन यह बात आज शूद्र जातियों में नहीं है। उनके घरों में आज भी बाजीराव के काल की पुरोहितशाही राज कर रही है।ऐसे लोगों को इस गुलामी से मुक्त करने के लिए जोतिबा ने यह छोटा सा प्रयास किया है। उनका इसमें दूसरा उद्देश्य यह भी है कि हमारी जाग्रत अंग्रेज सरकार को अपनी प्रजा के इस बहुत ही उपेक्षित वर्ग को शिक्षित करना चाहिए और उनकी आंखों की नींद समाप्त कर देनी चाहिए। उनको ब्राह्मण पुरोहितशाही की दासता से मुक्त करना चाहिए। इसलिए यदि यह उद्देश्य सफल हुआ, तो ग्रंथ रचियता की मेहनत सफल होगी।” विमलकीर्ति; जोतिबा फुले; रचनावली भाग-1; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली ; प्र.सं., पृ.-95

फुले ने दलित जनता में आत्मविश्वास पैदा करने के लिए अपने नायकों पर रचनाएं लिखीं। शिवाजी का पवांड़ा के बारे में उन्होंने लिखा कि “यह छोटा सा प्रयास जानकार लोगों को अच्छा लगा तो और भी इस तरह के पंवाड़े उन लोगों पर भी लिखे जायेंगे जो लोग आर्य ब्राह्मणों द्वारा मटियामेट कर दिए जाने के पहले क्षत्रियों में महासुमा (महिषासुर) जैसे महावीर हो गए। और ये पंवाड़े बड़े उत्साह के साथ पेश किए जायेंगे।” विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-1; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली ; प्र.सं. पृ.-54
[2] उन्होंने अपनी पुस्तकों की भूमिका में इस बात को पूरी तरह से लिखा है। शिवाजी की पांवड़ा लिखते हुए उन्होंने भूमिका में लिखा– “इस पंवाड़े को लिखने के पीछे मरा उद्देश्य यह है कि कुनबी, माली, महार, मातंग आदि जिन क्षत्रियों को पाताल में ढकेल दिया गया था, अर्थात मटियामेट कर दिया गया था, उनके काम आए। मैंने यहां बड़े-बड़े, लंबे-चौड़े संस्कृत शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है, लेकिन जहां मेरा बस नहीं चला, वहां मैंने निर्वहन के लिए साधारण शब्दों का इस्तेमाल किया है। मैंने यहां यह भी प्रयास किया है कि कुनबियों को समझ में आने योग्य सरल भाषा होनी चाहिए और उनको पसंद आए उसी तर्ज में इसकी रचना की है।” विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-1; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली; प्र.सं.; पृ. 53
[3] विष्णुशास्त्री चिपलूणकर ने “फुले की रचनाओं को बचकाना कहकर अस्वीकार कर दिया और उनका घोर अपमान किया। उन्होंने फुले द्वारा की गई भाषाशास्त्रीय व्याख्याओं और व्याकरण के प्रारंभिक नियमों के प्रति उनके अज्ञान का मजाक उड़ाया।” य. दि. फड़के (अनु.-श्रीमती प्रवीण शर्मा); विष्णुशास्त्री चिपलूणकर; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2004, पृ.-58
[4] लूट को गेहूं और बाप का श्राद्ध (विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-1 (तृतीय रत्न); राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली; प्र.सं., पृ.-27) गोद का छोड़कर पेट की आशा करना (विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-1 (तृतीय रत्न); राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली; प्र.सं., पृ.-39) कुत्ते खा जाते पिसान अंधे का (ब्राह्मण आध्यापक की चालाकी), उल्टा चोर कोतवाल को डांटे (गुलामगिरी, रचनावली-1, पृ.199) कोयले को नित धोया, रहा सफेद होने को (‘गंगाराम भाऊ म्हस्के वकील को जवाब’, रचनावली-2, पृ.-253)
[5] विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग- , ‘शिक्षा विभाग के ब्राह्मण अध्यापक का पंवाडा’ 1869 से ; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
[6] ‘ब्राह्मणों की चालाकी’ कविता में भी इसीलिए नौ भाग किए हैं और हर भाग में पुरोहितों के शोषण के एक पक्ष को प्रस्तुत किया है। ‘शिवाजी का पंवाड़ा’ में भी यही योजना है, ‘गुलामगिरी’ सोलह अध्यायों में, ‘किसान का कोड़ा’ पांच अध्यायों में, ‘सार्वजनिक सत्य धर्म’, ‘अखंडादि काव्य रचना’ को छह विभागों में विभाजित किया है।
[7] ‘गुलामगिरी’ की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा कि “सैंकड़ों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र समाज, जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण के शिकार हैं।…ये लोग अपने-आपको ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों की जुल्म-ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं, यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल है। यही इस ग्रंथ का उद्देश्य है।” (भाग-1, पृ.-135)
[8] विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-2, ‘बलिराजा’ कविता से; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
[9] विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-2; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली; प्र.सं., पृ.-229
[10] विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-2; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली; प्र.सं., पृ.-232
[11] वही, पृष्ठ 233
[12] वही, पृष्ठ 234
[13] वही, पृष्ठ 235
[14] विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-2; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली; प्र.सं., पृ.-236
[15] विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-2, ‘किसान को कोड़ा’ की भूमिका से ; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
[16] विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-2 , ‘शिक्षा विभाग के ब्राह्मण अध्यापक का पंवाडा’ से; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली; प्र.सं., पृ.-236
[17] विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-2, ‘शूद्रों से फंड इकट्ठा करने के बारे में निषिद्धता’ से; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली; प्र.सं., पृ.-243)
[18] वही, पृष्ठ 243
[19] विमलकीर्ति; जोतिबा फुले : रचनावली भाग-, ‘शिक्षा विभाग के ब्राह्मण अध्यापक का पंवाडा’ से; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
[20] वही
[21] वही
[22] वही

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुभाष चंद्र

लेखक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र के हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं

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