बिहार की राजधानी पटना के मशहूर गांधी मैदान से गोलघर होते हुए दानापुर की ओर जानेवाली सड़क पर थोड़ा आगे बढ़िए। दाहिने हाथ पर बांसघाट (श्मशान घाट और प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की समाधि स्थल) से थोड़ा पहले कुछ घर बने हुए हैं। घर क्या, एक छोटी सी मलिन बस्ती है। इस बस्ती के पार एक नाला बहता है। उधर, उस पार जयप्रकाश गंगा पथ (मरीन ड्राइव की तर्ज पर) है। नाले और सड़क के दरमियान जो घर हैं, उनमें अधिकतर डोम और नाई रहते हैं जो आजीविका के लिए नाले के पास वाले मैदान में जलने वाले शवों या मुखाग्नि देनेवालों का मुंडन जैसी धार्मिक क्रियाओं पर निर्भर हैं। बिहार में डोम अनुसूचित जाति तो नाई अति पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं।
नाले के किनारे वाली ज़मीन बरसात के दिनों में डूबी रहती है। नवंबर के महीन में नाले के किनारे मिट्टी दलदल जैसी नज़र आ रही है। मैदान में कुछ बच्चे खेल रहे हैं, लेकिन उनका खेल न आम बच्चों जैसा है और न उनका बचपन सामान्य है। नाले किनारे बैठी शिवांशी मिट्टी की कुल्हिया में भात पका रही है और अवनीश समेत कई और बच्चे उसकी मदद कर रहे हैं। ठीक पीछे बच्चों ने एक घर बना रखा है। अर्थियों पर से उतारे गए कफन इस घर की छत और दीवारें हैं, और जो अर्थियों के अधजले बांस की खपचों पर तनी हैं।
उधर, उस पार जो कथित मरीन ड्राइव है, वहां ज़िंदगी गुलज़ार है। लोग घूमने, पिकनिक मनाने, और गंगा किनारे शाम गुज़ारने आते हैं। इधर, इस पार, जहां आम लोगों की ज़िदगी ख़त्म होती है, वहां से इन बच्चों का जीवन शुरु होता है। आमतौर पर लोग बच्चों को श्मशान ले जाने से बचते हैं लेकिन इनका जन्म ही श्मशान किनारे है, सो बेचारे कहां जाएं? इस उम्र में तो स्कूल ही जाना चाहिए। इनमें कुछ बच्चे स्कूल जाते भी हैं। मगर इस बस्ती में शायद ही कोई हो जो अभी तक ठीक से पढ़ पाया हो। ड्रापआउट रेट एक समस्या है। मां-बाप चाहकर भी बच्चों को आगे तक नहीं पढ़ा पाते।

ड्रापआउट की क्या वजहें हैं? ज़ाहिर है, पहली तो ग़रीबी और ग़ुरबत की वजह के बदहाल माहौल ही है। दूसरी, जो बच्चे स्कूल जाते भी हैं, उनके साथ दूसरे बच्चों और अध्यापकों का बर्ताव सामान्य नहीं होता। “डोमराजा का बच्चा तो श्मशान में ही रहेगा न जी? ज्यादा पढ़-लिख कर ओ क्या करेगा?” इसी बस्ती की रहने वाली विमलेश उल्टा सवाल पूछती हैं। हालांकि वह चाहती हैं कि उनकी पांच साल की पोती आकांक्षा कुछ पढ़ जाए और उसका जीवन सुधर जाए।
लेकिन चाहने भर से दुनिया चलती तो शायद इस बस्ती में न कोई ग़रीब होता और न कोई अशिक्षित। बस्ती के शुरु में ही एक सुलभ शौचालय बना है। इसके पीछे एक शेड बना है, जहां वाल्मीकि, डोम, नाई, पंडे सब साथ मिल जाते हैं। असली समाजवाद यहीं है। छूत-अछूत अपनी जगह, लेकिन जो थोड़ी बहुत कमाई है, उसके लिए सब तक़रीबन एक-दूसरे पर निर्भर हैं। कर्मकांड से जुड़ा काम है, यानि दाह संस्कार, मुंडन, पूजन, वग़ैरह तो थोड़ी ठगी, थोड़ा झूठ सब चलता है और सबके हिस्से कुछ न कुछ आ जाता है।
रमेश नाई का काम करते हैं। उनका कहना है “आमदनी ज़्यादा नहीं है। विद्युत शवदाह केंद्र आने से काम का ढंग बदल गया। फिर एनजीओ आ गए।“ डोम जाति के राजीव राजा चौधरी का कहना है कि “रही सही कसर नगर निगम ने हर चीज़ की दर तय करके पूरी कर दी है। जितने पैसे तय किए हैं उतने भर में घर चलाकर कोई दिखा दे भला।” लेकिन मसला महज़ आमदनी का नहीं है। रमेश आगे बताते हैं कि “बस घाट किनारे समाजवाद दिखता है, वरना समाज में इज़्ज़त नहीं है। सब लोग कहते हैं, यह लाशों का पैसा खाते हैं।”
ज़ाहिर है, यह तमाम लोग पारंपरिक पेशे में लगे हैं। यानि इनके बाप, दादा, परदादा, सब यही काम करते रहे हैं। कुछ अलग या बेहतर क्यों नहीं सोचते? या फिर अपने बच्चों के लिए अलग और बेहतर ज़िंदगी की कल्पना क्यों नहीं करते? इसके जवाब में सत्तर वर्षीय पार्वती देवी कहती हैं, “मैं 14 साल की इस बस्ती में ब्याह कर आई थी। मैं सोचती थी कि मेरे बच्चे कुछ बेहतर करेंगे। लेकिन हालात नहीं बदले। अब मेरी पोती स्कूल जाती है, लेकिन नहीं मालूम कब तक जाएगी। शायद तब तक, जबतक साथ वाले बच्चों के ताने सुनकर उब नहीं जाती या फिर उनकी बातों को सुनकर आगे बढ़ने की आदत नहीं डाल लेती।”
ऐसे देखें तो मैदान में खेल रहे इन दर्जन भर बच्चों का भविष्य अंधकारमय दिखता है। मगर इस सबसे बेपरवाह बच्चे उस ज़िंदगी में मस्त नज़र आते हैं, जहां नियति ने इन्हें लाकर छोड़ दिया है।
ऐसा नहीं है कि यह बच्चे अच्छा नहीं कर सकते, लेकिन इसके लिए उन्हें अच्छा माहौल चाहिए। यह ज़िम्मेदारी सरकार की भी है और समाज की भी। लेकिन इस ज़िम्मेदारी को माने कौन? डोम राजा के बच्चे पढ़ लिख जाएंगे, और नाई के बच्चे बाबू बन जाएंगे तो श्मशान घाट पर अर्थियां फूंकने में कौन मदद करेगा?
(संपादन : नवल/अनिल)
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