h n

डिग्री प्रसाद चौहान के खिलाफ मुकदमा चलाने की बात से क्या कहना चाहते हैं तुषार मेहता?

पीयूसीएल की छत्तीसगढ़ इकाई के अध्यक्ष और मानवाधिकार कार्यकर्ता डिग्री प्रसाद चौहान द्वारा दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान तुषार मेहता ने कई संगठनों पर नक्सलवाद और माओवाद को संरक्षण देने का आरोप लगाते हुए याचिकाकर्ता चौहान के विरुद्ध झूठे बयान देने के लिए मुकदमा चलाने की बात कही थी। इस संबंध में बता रहे हैं मनीष भट्ट मनु

क्या केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार अब आम आदमी विशेषकर आदिवासियों और अनुसूचित जातियों पर होने वाले जुल्मों की मुखालफत करने और अदालतों में उन्हें न्याय और इंसाफ की लड़ाई लड़ने वालों के लिए न्यायिक प्रक्रिया को अपना औजार बनाना चाहती है? यह सवाल इन दिनों हर उस शख्स के जहन में है, जो विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की लूट और बेकसूर नागरिकों पर हो रहे अत्याचार को लेकर बेचैन है। इसी 21 नवंबर, 2022 को भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सर्वोच्च न्यायालय में छत्तीसगढ़ के एडसमेटा में सुरक्षा बलों द्वारा दावा की गई मुठभेड़ की स्वतंत्र जांच को लेकर दायर याचिका की सुनवाई के दौरान मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और गैर सरकारी संगठनों पर गंभीर आरोप लगाए। 

पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की छत्तीसगढ़ इकाई के अध्यक्ष और मानवाधिकार कार्यकर्ता एडवोकेट डिग्री प्रसाद चौहान द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान मेहता ने कई संगठनों पर नक्सलवाद और माओवाद को संरक्षण देने का आरोप लगाते हुए याचिकाकर्ता चौहान के विरुद्ध झूठे बयान देने के लिए मुकदमा चलाने की बात कही थी। 

उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिला अंतर्गत एडसमेटा में गांव मे 17 व 18 मई 2013 को हुई हत्याओं को लेकर गठित मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस वी.के. अग्रवाल कमेटी अपनी जांच रिपार्ट में कई गंभीर सवाल उठा चुकी है। उसने यह भी माना है कि इस हत्याकांड में चार नाबालिग सहित जो आठ आदिवासी सुरक्षा बलों की गोलियों से मारे गए थे, उनमें से कोई भी नक्सली नहीं था।

डिग्री प्रसाद चौहान, अध्यक्ष, पीयूएसीएल, छत्तीसगढ़

उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों के हाथों निर्दोष आदिवासियों के मारे जाने, आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार किए जाने और उनके घर जलाए जाने के आरोप अक्सर ही लगते रहते हैं। वर्ष 2011 में सुकमा जिले के ताड़मेटला, मोरपल्ला व तिम्मापुर में 259 आदिवासियों के घरों को जलाए जाने को लेकर सीबीआई खुद सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अपने प्रतिवेदन में इसके लिए सुरक्षा बलों को जिम्मेदार ठहरा चुकी है। इसी तरह 28 और 29 जून, 2012 की दरम्यानी रात बीजापुर के सारकेगुड़ा इलाके में सीआरपीएफ और सुरक्षाबलों के हमले में जिन 17 नक्सलियों के मारे जाने का दावा किया गया था, उसको छत्तीसगढ़ विधानसभा में 2 दिसंबर, 2019 को प्रस्तुत न्यायिक जांच प्रतिवेदन ने झूठा करार दिया था। प्रतिवेदन में इस दावे को फर्जी ठहराते हुए कहा गया कि मारे जाने वाले लोग निर्दोष आदिवासी थे और पुलिस की एकतरफा गोलीबारी में मारे गये थे। 

ऐसे ही बस्तर के स्थानीय आदिवासियों के पास सुरक्षा बलों द्वारा की गई फर्जी मुठभेड़ों को लेकर न जाने कितने आरोप हैं। फिर चाहे वह 19 मार्च, 2020 को दंतेवाड़ा के जंगलों में मारा गया बदरु मंडावी का मामला हो या किरंदुल में 13 सितंबर, 2021 को मारे गए लक्षु मंडावी या फिर 28 जून, 2021 को दंतेवाड़ा जिला की निलावाया पंचायत के संतोष मरकाम के मारे जाने का मामला। 

बस्तर में काम कर रहे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों का आरोप है कि यहां पाए जाने वाले लौह अयस्क और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को चंद व्यक्तियों के साथ में सौंपने की सरकारी जिद के चलते आदिवासियों को लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है।

उधर, सरकार और सुरक्षा बल इन आरोपों को गलत बताते हैं। सुरक्षा बलों का तो स्पष्ट कहना है कि उनकी द्वारा किसी भी कार्यवाही से पूर्व पर्याप्त सतर्कता बरती जाती है। इसके बाद ही यह सुनिश्चित किया जाता है कि नक्सल विरोधी अभियानों में किसी भी निर्दोष नागरिक को क्षति न पहुंचे। वहीं सरकार भी अक्सर ही सुरक्षा बलों का पक्ष लेते नजर आती है। मगर, आदिवासियों की चिंता किसी को नहीं है। पूर्ववर्ती रमन सिंह सरकार के दौरान जहां कांग्रेस आदिवासियों पर सुरक्षा बलों द्वारा अत्याचार को लेकर मुखर रहती थी, वहीं भूपेश बघेल सरकार के दौरान कुछ इसी तरह के राग अब भाजपा अलाप रही है। मगर न तो बस्तर में सुरक्षा बलों की तैनाती और न ही उनके द्वारा निर्दोष आदिवासियों पर अत्याचार के आरोपों में किसी प्रकार की कोई कमी आई है। 

आदिवासी समाज के नेताओं का तो यहां तक आरोप है कि जैसे-जैसे विकास के नाम पर सारे प्राकृतिक संसाधनों को चंद औद्योगिक घरानों को सौंपने के लिए सरकारें – फिर वह चाहे किसी भी दल या विचारधारा की हों – जिस तरह की जल्दबाजी दिखा रही हैं, उसका खामियाजा लगभग आदिवासी समाज को भुगतना पड़ रहा है। 

तुषार मेहता, सॉलिसिटर जनरल, भारत सरकार

वहीं तुषार मेहता के कथन पर अपने खुले पत्र में डिग्री प्रसाद चौहान ने कहा है कि “अपने मानव अधिकारों की रक्षा के लिए जवाबदेह सरकारी विभागों तथा संस्थानों द्वारा कोई कार्यवाही नही किये जाने से निराश होकर, मैंने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इस न्यायेत्तर हत्या मामले में जांच के लिये दरख्वास्त किया। वर्ष 2019 में याचिका के छह सालों बाद, सर्वोच्च अदालत ने याचिका की सुनवाई करते हुये केंद्रीय जांच अन्वेषण ब्यूरो को छत्तीसगढ़ राज्य से बाहर के विशेष अनुसंधान टीम गठित कर त्वरित जांच करने आदेश पारित किया, और इस आदेश के तहत सीबीआई की जबलपुर शाखा ने मामला पंजीबद्ध किया है।

“एडसमेटा मामले में सरकार द्वारा गठित जस्टिस वी.के. अग्रवाल न्यायिक जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में एडसमेटा में मारे गए लोगों को निहत्थे और निर्दोष आम ग्रामीण बताते हुए पुलिस बलों द्वारा हड़बड़ी में गोली चलाए जाने का जिक्र किया है। इसके बावजूद सॉलिसिटर जनरल द्वारा सुप्रीम कोर्ट में किया गया कथन न्यायाधीशों को गुमराह करने वाला प्रतीत होता है। इस वक्तव्य के कारण इस मामले में सीबीआई द्वारा घटना स्थल में पीड़ितों और चश्मदीद गवाहों के बयान और तथ्य पुख्ता करने के बजाय सरकार के दबाव में लीपापोती और विवशता का अंदेशा स्वाभाविक जान पड़ता है।”

बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाकर्ता डिग्री प्रसाद चौहान के संबंध में जो बात सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने की है, वह कहने से पहले वे साठ के दशक में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस ए.एन मुल्ला को याद कर लेते, जिन्होंने एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान पुलिस के बारे में एक बेहद तल्ख टिप्पणी की थी– “मैं जिम्मेदारी के सभी अर्थों के साथ कहता हूं, पूरे देश में एक भी कानूनविहीन समूह नहीं है, जिसका अपराध का रिकॉर्ड अपराधियों के संगठित गिरोह भारतीय पुलिस बल की तुलना में कहीं भी ठहरता हो।” 

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

मनीष भट्ट मनु

घुमक्कड़ पत्रकार के रूप में भोपाल निवासी मनीष भट्ट मनु हिंदी दैनिक ‘देशबंधु’ से लंबे समय तक संबद्ध रहे हैं। आदिवासी विषयों पर इनके आलेख व रपटें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे हैं।

संबंधित आलेख

लोकसभा चुनाव : भाजपा को क्यों चाहिए चार सौ से अधिक सीटें?
आगामी 19 अप्रैल से लेकर 1 जून तक कुल सात चरणों में लाेकसभा चुनाव की अधिसूचना चुनाव आयोग द्वारा जारी कर दी गई है।...
ऊंची जातियों के लोग क्यों चाहते हैं भारत से लोकतंत्र की विदाई?
कंवल भारती बता रहे हैं भारत सरकार के सीएए कानून का दलित-पसमांदा संदर्भ। उनके मुताबिक, इस कानून से गरीब-पसमांदा मुसलमानों की एक बड़ी आबादी...
1857 के विद्रोह का दलित पाठ
सिपाही विद्रोह को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहने वाले और अखंड हिंदू भारत का स्वप्न देखने वाले ब्राह्मण लेखकों ने यह देखने के...
मायावती आख़िर किधर जा सकती हैं?
समाजवादी पार्टी के पास अभी भी तीस सीट हैं, जिनपर वह मोलभाव कर सकती है। सियासी जानकारों का मानना है कि अखिलेश यादव इन...
आंकड़ों में बिहार के पसमांदा (पहला भाग, संदर्भ : नौकरी, शिक्षा, खेती और स्वरोजगार )
बीते दिनों दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज की एक रिपोर्ट ‘बिहार जाति गणना 2022-23 और पसमांदा एजेंडा’ पूर्व राज्यसभा...