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पटना बहुजन समाज के बच्चों के लिए उम्मीदों की राजधानी है!

राजस्थान के कोटा शहर के बाद पटना कोचिंग व्यवसाय की नई बड़ी मंडी है। स्टेशन, बस स्टॉप या चौराहों पर कुछ देर खड़ा होने भर से महसूस हो जाता है कि शहर में दूरदराज़ गांवों से रोज़ाना कितने ही बच्चे दाख़िल हो रहे हैं। ग़ौर से चेहरों को पढ़ें तो समझ आ जाता है कि इन बच्चों में अधिकांश निम्न मध्य वर्ग और बहुजन समाज से हैं। बता रहे हैं सैयद जै़गम मुर्तजा

रात के 11 बजे हैं। बिहार की राजधानी पटना शहर तक़रीबन सो चुका है, लेकिन आनंदपुरी, क़िदवईपुरी, राजापुर, बुद्धा कॉलौनी जैसे मुहल्लों में तमाम घर हैं, जहां से रौशनी बाहर झांक रही है। खिड़कियों से झांकती परछाइयां बता रही हैं कि यहां कोई है जो जाग रहा है। गहरे अंधेरे में इन खिड़कियों से जो रौशनी छनकर बाहर आ रही है उसके बारे में जानेंगे तो महसूस होगा इस उजाले से कितनी उम्मीदें बावस्ता हैं।

पटना राजस्थान के कोटा शहर के बाद कोचिंग व्यवसाय की नई बड़ी मंडी है। स्टेशन, बस स्टॉप या चौराहों पर कुछ देर खड़ा होने भर से महसूस हो जाता है कि शहर में दूरदराज़ गांवों से रोज़ाना कितने ही बच्चे दाख़िल हो रहे हैं। ग़ौर से चेहरों को पढ़ें तो समझ आ जाता है कि इन बच्चों में अधिकांश निम्न मध्य वर्ग और बहुजन समाज से हैं। इन बच्चों से बात करें तो महसूस हो जाता है कि पटना इनकी पहली पसंद नहीं है। इनके ख़्वाब बड़े हैं, लेकिन इनके घरवाले दिल्ली और कोटा जैसे शहरों में भेजकर इनकी पढ़ाई करने का ख़र्च उठाने की हालत में नहीं हैं। 

हालांकि पटना भी कोई ऐसा सस्ता नहीं है। पिछले पांच-छह साल में पटना में रहने की क़ीमतें बढ़ी हैं। किराया, परिवहन, खाने-पीने का ख़र्च, हर चीज़ की क़ीमतें बढ़ी हैं। लेकिन फीस और दूसरे ख़र्चों को जोड़ने पर पटना दिल्ली और कोटा के मुक़ाबले फिर भी सस्ता है। इसकी एक वजह है कि ट्यूशन, बिना ब्रांड वाले स्थानीय कोचिंग और सस्ती रिहाइश तमाम तरह के विकल्प मुहैया करा देते हैं। कम से कम बच्चा बाहर पढ़ रहा है वाला सामाजिक स्तर को पटना भी मुहैया करा ही देता है। 

शफीक़ अंसारी पटना शहर के ही मुरादपुर इलाक़े में रहते हैं। शफीक़ के मुताबिक़ पटना में कोचिंग मंडी पनपने की कई वजहें हैं। एक तो अब सिर्फ स्कूली पढ़ाई से काम नहीं चलता है। बाज़ार में कोचिंग सफलता की गारंटी भले न हों, लेकिन कुछ नंबर बढ़ाने में तो मददगार हैं ही। फिर जो हालात हैं, उनमें दलित और मुसलमान अपने बच्चे को घर से दूर भेजने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहते। और सबसे बड़ी बात कि दिल्ली, कोटा का ख़र्च वहन करना सबके वश की बात नहीं है। शफीक़ चार लाइन में सारी कहानी बयान कर देते हैं। 

कोचिंग हब के रूप में विकसित हो रहा पटना

राजीव कुमार चौधरी निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से हैं। वह बिहार के सुपौल ज़िले के एक गांव से पटना तक मेडिकल प्रवेश परीक्षा (नीट) की तैयारी करने के लिए आए हैं। 14 वर्षीय राजीव के कंधों पर अपने भविष्य का ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार की उम्मीदों का दारोमदार है। राजीव बताते हैं, पिताजी खेतिहर मज़दूर हैं जबकि बड़ा भाई रांची में छोटी-मोटी नौकरी कर रहा है। सब चाहते हैं कि मैं किसी तरह डाक्टर बन जाऊं ताकि परिवार की परेशानी के दिन ख़त्म हो जाएं।” ज़ाहिर है परिवार के लोग जैसे-तैसे पैसे जुटाकर राजीव की पढ़ाई में निवेश कर रहे हैं। हालांकि यह किसी जुए से कम नहीं है। सफलता मिल भी सकती है और नहीं भी। 

मगर बिहार में तक़दीर बदलने के रास्ते बेहद कम हैं। पटना के दुजरा इलाक़े में रह रहे उमेश कुशवाहा बताते हैं कि कमज़ोर वर्गों के पास ग़रीबी के चक्र से निकलने के लिए सरकारी नौकरी पाने या फिर कोई अच्छी प्रोफेशनल डिग्री हासिल करने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। उमेश के मुताबिक़ बच्चों की पढ़ाई पर होने वाला ख़र्च पूरे परिवार के भविष्य में निवेश है। ज़ाहिर है इसमें जोखिम शामिल हैं। मगर सफल रहे तो पूरे परिवार की हालत रातों-रात बदल जाएगी। और असफल रहे तो? यक़ीनन हालात पहले के मुक़ाबले और बिगड़ जाएंगे।

पटना में ऐसे हज़ारों बच्चे हैं जो अपनी क्षमता पर भरोसा करके नहीं, बल्कि घरवालों की उम्मीदों को पूरा करने यहां आए हैं। इसकी बानगी देखनी है तो बोरिंग रोड के चौराहे से राजापुर के पुल तक आइए। खाने के ढाबे, चाय की दुकान, ई-रिक्शा, सब तरफ कंधे पर बैग लटकाए बच्चे भागते-दौड़ते नज़र आते हैं। किसी की क्लास छूट रही है, कोई जल्दी-जल्दी भागकर कुछ खाने के लिए आया है और वापस भागना चाहता है।

कोचिंग उद्योग के पनपने का फायदा स्थानीय लोगों को भी ख़ूब मिल रहा है। पटना में ऐसे कई मकान थे, जिनपर अक्सर ताला नज़र आता था। मकान मालिक रोज़ी-रोटी की तलाश में कहीं दूर जा रहे होंगे। लेकिन अब ऐसे तमाम मकान गुलज़ार हैं। आनंदपुरी और इसके आसपास के तमाम मुहल्लों में तक़रीबन हर तीसरे-चौथे मकान पर गर्ल्स हॉस्टल, पीजी, या ब्वॉयज हॉस्टल का बोर्ड टंगा दिख जाता है। जिन इमारतों में हॉस्टल या पीजी नहीं चल रहे हैं, वहां भी किराए कमरा लेने के लिए बच्चे अक्सर आते रहते हैं।

इस सबसे इतर बिहार में ग़रीबी अभी भी एक कड़वी सच्चाई है। आंकड़े बताते हैं कि शिवहर, गोपालगंज, पूर्वी चंपारण, सुपौल, सीतामढ़ी, मधुबनी, किशनगंज, और अररिया जैसे तमाम ज़िले हैं, जहां औसत आमदनी अभी भी पच्चीस हज़ार रुपए प्रति वर्ष से कम है। खेती पर बाढ़, सूखे, और सरकारी नीतियों की मार है। राज्य में रोज़ी-रोटी के अवसर न के बराबर हैं। 

ऐसे में ग़रीबी से निकलने के लिए लोगों के सामने दो ही रास्ते हैं। या तो किसी भी तरह सरकारी नौकरी पा जाओ, या फिर किसी तरह डाक्टर बन जाओ। चपरासी की नौकरी पाने के लिए भी मार है, मगर सरकारी नौकरियां लगातार घट रही हैं, प्रोफेशनल डिग्री हासिल करके बाहर निकल जाने या फिर डाक्टर बनने के लिए आवश्यक शिक्षा इतनी महंगे हैं कि आम आदमी के वश से बाहर हैं। लेकिन फिर भी लोग जोखिम उठा रहे हैं। 

आठवीं के बाद से ही कोचिंग के ज़रिए नौकरी या इंजीनियरिंग में दाखिले हेतु संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) और राष्ट्रीय मेडिकल पात्रता परीक्षा यानी नीट की तरफ बच्चों को धकेला जा रहा है। बोरिंग कनाल रोड पर सुबह-शाम कंधों पर बस्ते लटकाए भागते-दौड़ते इन बच्चों को देखिए। इनके चेहरे पर ज़िम्मेदारी का तनाव, कुछ कर गुज़रने की ललक, और किसी भी तरह कुछ बन जाने की धुन नज़र आएगी। लेकिन इस गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा ने इनका बचपन छीन लिया है। यह उस दौड़ का हिस्सा हैं, जिसमें अपने अलावा घरवालों का भविष्य भी दांव पर लगा है। घर वाले कैसे-कैसे इनके लिए संसाधन जुटा रहे हैं, इनको बख़ूबी मालूम है।

वैशाली के रहने वाले शिवम पासवान पिछले दो साल से पटना में हैं। शिवम बताते हैं कि उनके पिता पढ़ाई के लिए अपने बैल तक बेच चुके हैं। अब खेती की ज़मीन भी बेचने के लिए तैयार हैं। पिताजी का कहना है, तुम बस डाक्टर बन जाओ। बैल, ज़मीन सब फिर से ख़रीद लेंगे। मैं नहीं चाहता कि पुश्तैनी ज़मीन बिके, लेकिन मेरा किसी सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाख़िला नहीं हो पाया तो फिर और कोई रास्ता नहीं बचेगा।

शिवम पासवान अकेले नहीं हैं, जिनके ऊपर कुछ कर दिखाने का दबाव है। समाज में ही एक दूसरी दुनिया भी है। सवर्ण और उच्च आय वर्ग वाले बच्चों पर भी प्रतियोगी परीक्षाओं की गलाकाट प्रतियोगिता में नंबर-नंबर पाने का तनाव है। लेकिन इस तबक़े के बच्चों पर अपने समाज, अपने लोगों, अपने गांव, या अपने परिवार की उम्मीद और उधार का जुआ नहीं लगा है। कमज़ोर तबक़ों से आए बच्चे कुछ और भी कर लेंगे वाली स्थिति नहीं है। इनकी दुनिया में यह नहीं तो कुछ भी नहीं वाला मसला है और यह दबाव बेहद वज़नदार है। 

आईआईटी में प्रवेश के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) की तैयारी कर रहे सुकेश बताते हैं कि वो अपने ख़ानदान के पहले लड़के हैं जिन्हें पढ़ने के लिए घर से बाहर भेजा गया है। ज़ाहिर है, वह सफल हुए तो और भी बच्चों के लिए बाहर आने का रास्ता खुल जाएगा। मेरी विफलता परिवार के कई और बच्चों का रास्ता बंद कर देगी। मैं चाहकर भी विफल नहीं होना चाहता।जब बच्चे इस तरह बात करें तो समझ आ जाता है वह किस मानसिक स्थिति से गुज़र रहे हैं। मगर मानसिक बीमारियां हमारे देश में बीमारी है ही नहीं। दरअसल हम समझ ही नहीं पा रहे हैं कि अब हम किन-किन बीमारियों की चपेट हैं।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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