h n

ईडब्ल्यूएस आरक्षण फैसला : स्टालिन, प्रकाश आंबेडकर और दीपंकर भट्टाचार्य ने किया विरोध, कशमकश में राजद, सपा, बसपा और जदयू 

स्टालिन के मुताबिक ऊंची जाति में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से संबंधित लोगों के लिए 10 फीसदी आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला सदियों पुराने सामाजिक न्याय के संघर्ष के लिए एक झटका है। पढ़ें, यह खबर

गत 7 नवंबर, 2022 को सुप्रीम कोर्ट पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने आर्थिक आधार पर कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए दस फीसदी आरक्षण करने संबंधी वर्ष 2019 में संसद द्वारा पारित 103वें संविधान संशोधन को बरकरार रखा। पीठ ने इसे संविधानसम्मत माना। जनहित अभियान व 32 अन्य याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर याचिकाओं के फैसले से जहां एक ओर भाजपा और कांग्रेस के नेताओं ने अपनी-अपनी जीत कहा है तो दूसरी ओर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री व डीएमके के नेता एम. के स्टालिन, पूर्व सांसद प्रकाश आंबेडकर व भकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने विरोध किया है। इनके अलावा राष्ट्रीय जनता दल (राजद), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), समाजवादी पार्टी (सपा) और जनता दल एकीकृत (जदयू) ने मिश्रित प्रतिक्रिया दी है। हालांकि इन दलों के शीर्ष नेतृत्व ने अपनी तरफ से कोई बयान जारी नहीं किया है।

सामाजिक न्याय के संघर्ष को झटका : स्टालिन

फैसला सामने आने के बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने कहा कि “ऊंची जाति में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से संबंधित लोगों के लिए 10 फीसदी आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला सदियों पुराने सामाजिक न्याय के संघर्ष के लिए एक झटका है। तमिलनडु, जहां सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए पहले संवैधानिक संशोधन के लिए जमीन तैयार हुई, में समान विचारधारा वाले सभी राजनीतिक दल एक साथ आएंगे और देश भर के सामाजिक न्याय की आवाज के साथ जुड़ेंगे।” साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि “फैसले के गहन अध्ययन के बाद कानूनी विशेषज्ञों से इस बारें विमर्श कर आगे की कर्रवाई की जाएगी।”

फैसला बौद्धिक भ्रष्टाचार : प्रकाश आंबेडकर

वहीं प्रकाश आंबेडकर ने अपने बयान में कहा कि “सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने ईडब्ल्यूएस के मसले पर जो अपना जजमेंट दिया है, बौद्धिक दृष्टिकोण से मैं इसे करप्ट मानता हूं। पिछले दरवाजे से मनुस्मृति का आगमन हुआ है। ऐसी परिस्थिति बन गई है। मैं इसे बौद्धिक भ्रष्टाचार इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जजमेंट के अंदर ही सामाजिक आधार पर आरक्षण और आर्थिक आधार पर आरक्षण को एक रूप से देखा गया है जो कि वास्तव में अलग-अलग हैं। जहां तक मैं समझता हूं कि संविधान में संशोधन का अधिकार संविधान के आर्टिकल 368 में निहित है, जिसके मुताबिक संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों व उसके उपबंधों में आप संशोधन कर सकते हैं, उनमें आप वैरिएशन ला सकते हैं, या फिर उसे डिलीट कर सकते हैं। संविधान के मूल में ही है कि आरक्षण का प्रावधान सामाजिक और शैक्षणिक आधार है। इसलिए आर्थिक आधार पर आरक्षण को एक साथ नहीं रखा जा सकता है। लेकिन 2019 में जिस तरीके से संशोधन विधेयक लाया गया, वह नया तरीका है। सबसे बड़ा सवाल जो सुप्रीम कोर्ट को पूछना चाहिए था कि जो नया तरीका इस्तेमाल किया गया है, क्या वह संविधानसम्मत है। अगर है तो किस अनुच्छेद के किस उपबंध के तहत ऐसा किया गया? इसका जवाब सरकार को सुप्रीम कोर्ट को देना चाहिए। लेकिन इस पर संविधान पीठ के द्वारा कोई टिप्पणी इस जजमेंट मुझे दिखाई नहीं दी। और इसलिए सामाजिक आधार पर आरक्षण में आर्थिक आधार पर आरक्षण को शामिल करने को मैं संविधान की मूल अवधारणा के खिलाफ मानता हूं। चूंकि संविधान की जो मूल अवधारणा है, वह सामाजिक आधार पर आरक्षण की बात करता है और अगर उसमें आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान हो सकता है, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट कह रही है, तो यह संविधान के मूल सिद्धांतों का अंतरद्वंद्व है। इसलिए मैं सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भ्रष्टाचार कहता हूं। इसके अलावा और कुछ भी नहीं। दूसरी बात यह कि 50 प्रतिशत की जो सीमा रेखा थी, उसका उल्लंघन सुप्रीम कोर्ट ने खुद कर दिया है। इसलिए पाटीदार समाज हो, जाट समाज हो, गुज्जर समुदाय हो, मराठे हों, इन सबका आंदोलन अब शुरू हो सकता है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने पहले यह पाबंदी रखी और अब खुद हटा दिया है तो ऐसी मांगें उठेंगी। साथ ही ओबीसी के द्वारा भी संख्या के अनुपात में आरक्षण मांगे जाने का संघर्ष बढ़ेगा।” 

एम. के. स्टालिन, प्रकाश आंबेडकर व दीपंकर भट्टाचार्य

दुर्भाग्यपूर्ण फैसला : दीपंकर भट्टाचार्य

भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने अपने बयान में कहा कि “आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को दिए जा रहे 10 प्रतिशत आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट द्वारा वैध ठहराया जाना एक दुर्भाग्यपूर्ण फैसला है, जो संविधान की मूल भावना के भी विपरीत है। संविधान में आरक्षण की व्यवस्था आर्थिक आधार पर नहीं, बल्कि सामाजिक, शैक्षिक व ऐतिहासिक पिछड़ेपन के आधार पर की गई है। जिस वक्त यह 10 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जा रहा था, हमने उसका विरोध किया था और आज एक बार फिर अपना विरोध दर्ज करते हैं।”

दीपंकर ने आगे कहा कि “दूसरी ओर, न्यायालय द्वारा वंचितों के आरक्षणों को लेकर तरह-तरह की शर्तें और जमीनी डाटा कलेक्शन के नाम पर उसमें जारी कटौती को न्यायोचित ठहराया जा रहा है। वहीं, सामाजिक तौर पर ऊंचे पायदान पर खड़े लोगों के लिए विशेष आरक्षण के प्रावधान को बिना जमीनी हकीकत जाने न्यायसंगत ठहराना कत्तई उचित नहीं है। आठ लाख सालाना आमदनी को आधार बनाकर 10 प्रतिशत विशेष आरक्षण का प्रावधान आर्थिक तौर पर कमजोर सामाजिक समूह की भी हकमारी है।”

उन्होंने कहा कि और भी बड़े संवैधानिक बेंच का गठन करके इस निर्णय पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।

सामाजिक न्याय की राजनीति करनेवाली पार्टियों का हाल

बिहार में सत्तासीन दो राजनीतिक दल जदयू और राजद ने मिश्रित प्रतिक्रिया दी है। मसलन, जदयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश सिंह कुशवाहा ने संविधान पीठ के फैसले का स्वागत किया। उन्होंने अपने बयान में कहा कि “जदयू शुरू से ही संविधान में वर्णित न्याय व्यवस्था की स्थापना और हर वर्ग और जाति के शैक्षणिक, आर्थिक एंव सामाजिक उत्थान, कार्यपालिका एवं विधायिका सहित अन्य सभी क्षेत्रों समान अवसर की पक्षधर रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमाार जातिगत जनगणना की मांग लंबे समय से करते आए हं। जातिगत जनगणना कराये जाने पर ही न्यायपूर्ण नीतियां बना जी सकेंगी।”

वहीं राजद सांसद मनोज कुमार झा ने इस संबंध में कहा कि “सभी समुदायों को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।” हालांकि उन्होंने फैसले को लेकर स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा। अपने बयान में उन्होंने जातिगत जनगणना को जरूरी बताया और कहा कि वंचितों के हितों की रक्षा के लिए वैज्ञानिक आंकड़े सामने लाए जाने चाहिए। देश की 80 फीसदी जनता जातिगत जनगणना चाहती है। लेकिन भाजपा सरकार इससे इंकार कर रही है।

सपा और बसपा प्रमुखों ने न किया स्वागत और ना विरोध

बहरहाल, इस पूरे मामले में सपा और बसपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा न तो फैसले का स्वागत किया गया है और ना ही इसका विरोध। यहां तक कि हर मसले पर ट्वीटर व फेसबुक के जरिए प्रतिक्रिया देने वाले सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वहीं बसपा प्रमुख मायावती ने भी इस मामले में अपना मुंह बंद रखा है। 

(संपादन : अनिल)

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

संबंधित आलेख

केशव प्रसाद मौर्य बनाम योगी आदित्यनाथ : बवाल भी, सवाल भी
उत्तर प्रदेश में इस तरह की लड़ाई पहली बार नहीं हो रही है। कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के बीच की खींचतान कौन भूला...
बौद्ध धर्मावलंबियों का हो अपना पर्सनल लॉ, तमिल सांसद ने की केंद्र सरकार से मांग
तमिलनाडु से सांसद डॉ. थोल थिरुमावलवन ने अपने पत्र में यह उल्लेखित किया है कि एक पृथक पर्सनल लॉ बौद्ध धर्मावलंबियों के इस अधिकार...
मध्य प्रदेश : दलितों-आदिवासियों के हक का पैसा ‘गऊ माता’ के पेट में
गाय और मंदिर को प्राथमिकता देने का सीधा मतलब है हिंदुत्व की विचारधारा और राजनीति को मजबूत करना। दलितों-आदिवासियों पर सवर्णों और अन्य शासक...
मध्य प्रदेश : मासूम भाई और चाचा की हत्या पर सवाल उठानेवाली दलित किशोरी की संदिग्ध मौत पर सवाल
सागर जिले में हुए दलित उत्पीड़न की इस तरह की लोमहर्षक घटना के विरोध में जिस तरह सामाजिक गोलबंदी होनी चाहिए थी, वैसी देखने...
फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन के विरुद्ध है मराठा आरक्षण आंदोलन (दूसरा भाग)
मराठा आरक्षण आंदोलन पर आधारित आलेख शृंखला के दूसरे भाग में प्रो. श्रावण देवरे बता रहे हैं वर्ष 2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण...