h n

झारखंड : सरकारी स्कूल बदहाल, कैसे हो आदिवासी-दलित बच्चों की शिक्षा?

ग़ैर-सरकारी संस्था ज्ञान विज्ञान समिति के सर्वेक्षण में पाया गया है कि झारखंड के एक तिहाई प्राथमिक विद्यालयों में सिर्फ एक ही अध्यापक है। साथ ही, शौचालयों का न होना, या शौचालय हैं भी तो उनकी बदहाली, ख़ासकर लड़कियों की स्कूल में उपस्थिति को प्रभावित करती है। पढ़ें, यह रिपोर्ट

झारखंड में प्राथमिक शिक्षा बदहाल है और तमाम सरकारी स्कूल शिक्षा का अधिकार कानून-2009 का अनुपालन करने में नाकाम रहे हैं। “स्कूल में भूल” नाम से जारी एक ताज़ा सर्वे रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी बहुल इस राज्य में शिक्षा व्यवस्था न सुधर पाने की हालत तक बदहाल है।

ज्ञान विज्ञान समिति, झारखंड की ओर से परम अमिताव और ज्यां द्रेज द्वारा तैयार रिपोर्ट में इसका खुलासा किया गया है। वैसे भी देशभर में प्राथमिक शिक्षा की बदहाली कोई ढकी-छिपी बात नहीं है। मगर झारखंड में यह मसला बेहद अहम हो जाता है। इसकी बड़ी वजह यह है कि राज्य की आबादी में आदिवासी समाज की हिस्सेदारी 26 फीसदी से ज़्यादा है। राज्य की आबादी का 78 फीसदी हिस्सा ग्रामीण इलाक़ों में रहता है। ऐसे में सरकारी विद्यालय शिक्षा हासिल करने के केंद्र हैं। यह रिपोर्ट इसलिए भी अहम है क्योंकि ग़रीबी के चलते राज्य की आबादी के एक बड़े हिस्से की पहुंच निजी स्कूलों तक है ही नहीं। यह तब है जबकि राज्य के गठन के बाद से बनी तमाम सरकारें बहुजन समाज के कल्याण का दावा करके बनी हैं।

सूबे के कुल 24 ज़िलों में से 16 ज़िलों के 138 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में सितंबर-अक्टूबर 2022 के दौरान किए गए इस सर्वेक्षण में पाया गया कि झारखंड के एक-तिहाई से भी अधिक प्राथमिक विद्यालयों या बीस प्रतिशत प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में सिर्फ एक ही अध्यापक है। करीब नब्बे फीसदी उन स्कूलों, जहां दलित-आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं, में एक शिक्षक के कंधे पर सारी जिम्मेदारी है। इससे इन स्कूलों के प्रति सरकार की उदासीनता का अंदाज़ा होता है। तमाम स्कूल हैं जहां शिक्षकों की कमी का सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ रहा है। यह रिपोर्ट बताती है कि आदिवासी बहुल इलाक़ों में हालात और भी ज़्यादा ख़राब हैं। लेकिन इन स्कूलों का बुनियादी ढांचा ही बदहाल हालत में है।

यह रिपर्ट बताती है कि झारखंड के प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों की उपस्थिति केवल 68 प्रतिशत है। माध्यमिक स्कूलों में यह और भी ख़राब है। इन स्कूलों में सिर्फ 58 प्रतिशत छात्र ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाए हैं। ज़ाहिर है, बुनियादी सुविधा और शिक्षकों की कमी से छात्र निराश हैं और ऐसा कोई कारण नहीं है कि उन्हें स्कूल जाने को प्रेरित कर सके। 

रिपोर्ट कहती है कि राज्य में शिक्षा का अधिकार अधिनियम का ठीक से अनुपालन नहीं हो रहा है। सर्वे में पाया गया कि सिर्फ 19 प्रतिशत उच्च-प्राथमिक विद्यालय ही ऐसे हैं, जिनमें प्रति शिक्षक छात्रों की संख्या 30 से कम है। सर्वे में शामिल प्राथमिक स्कूलों में प्रति शिक्षक छात्रों की औसत संख्या 51 है। यह निराशाजनक है।

यह रिपोर्ट कहती है कि “झारखंड में स्कूली शिक्षा प्रणाली की निराशाजनक स्थिति प्राथमिक शिक्षा के प्रति की दशकों की सरकारी उदासीनता को दर्शाती है। यह उदासीनता गलत भी है और अन्याय भी।” रिपोर्ट के मुताबिक़ यह अन्याय इसलिए भी है “क्योंकि बदहाल शिक्षा व्यवस्था उत्पीड़ित वर्गों और समुदायों को वहीं रहने पर मजबूर करती है, जहां वह अभी हैं।”

आदिवासी बहुल झारखंड में प्राथमिक शिक्षा बदहाल

रिपोर्ट कोरोना महामारी के दौरान के हालात पर भी बात करती है। इसमें कहा गया है कि महामारी काल में स्कूल लगातार बंद रहने से स्कूली शिक्षा प्रणाली को “गहरा झटका” लगा है। 1-5 वर्ष की उम्र वाले “अधिकांश” बच्चे पढ़ना और लिखना लगभग भूल चुके थे। जब स्कूल दोबारा खुले तो बच्चों को वापस पहले वाले शैक्षणिक स्तर तक लाने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने पड़े। ज़ाहिर है, जिन स्कूलों में शिक्षक कम हैं, वहां पढ़ रहे बच्चों को इसका नुक़सान उठाना पड़ा है।

इस रिपोर्ट में और कई चौंकाने वाले तथ्य मिलते हैं। मसलन, सैंपल में शामिल एक भी स्कूल ऐसा नहीं हैं जिसमें उपयोग के लायक शौचालय, बिजली और पानी की सुविधा मौजूद हो। सर्वे में शामिल दो-तिहाई स्कूलों में चारदीवारी नहीं है। तमाम प्राथमिक स्कूलों में औसतन दो ही कमरे हैं। कई स्कूल ऐसे हैं, जहां मध्याह्न योजना के तहत पर्याप्त पैसा मुहैया नहीं कराया जाता। शिक्षकों पर शिक्षण कार्य से अतिरिक्त कामों का बोझ शिक्षण को प्रभावित कर रहा है। जिन स्कूलों में एक ही शिक्षक है वहां पठन-पाठन का माहौल बन पाना मुश्किल हो रहा है क्योंकि शिक्षक को और भी काम करने पड़ रहे हैं।

बिजली, पानी के अलावा स्कूलों में पंखों की कमी, शौचालयों का न होना, या शौचालय हैं तो उनका बदहाल होना भी शिक्षण गतिविधियों पर बुरा असर डाल रहा है। ख़ासकर लड़कियों की स्कूल में उपस्थिति पर इन सब चीज़ों का असर पड़ना लाज़िम है। कई स्कूलों में छत में दरारें मिलीं, कई जगह कमरों की हालत सही नहीं थी। सर्वे में पाया गया कि 40 फीसदी स्कूलों में स्थायी शिक्षक नहीं हैं। अस्थायी शिक्षकों के भरोसे स्कूलों को छोड़ देना शिक्षा के प्रति लापरवाही को ही दर्शाता है। इसके अलावा महिला शिक्षकों की कमी भी एक बड़ा मुद्दा है। प्राइमरी स्कूलों में महिला शिक्षक लगभग 20 फीसदी ही हैं। यह सामान्य अनुपात से बेहद कम है।

हालांकि सर्वे में राज्य भर के स्कूल शामिल नहीं हैं लेकिन फिर भी इस रिपोर्ट से सरकारी शिक्षा प्रणाली की बदहाली का अंदाज़ा तो लगाया ही जा सकता है। चूंकि सरकारी स्कूलों में बहुतायत उन छात्रों की होती है, जो वंचित वर्गों से आते हैं, इसलिए इस दिशा में सवाल उठाया जाना ज़रूरी है। ख़ासकर ऐसे राज्य में जहां चुनाव ही आदिवासी और वंचित वर्गों के मुद्दों पर जीते जाते हैं, वहां यह और भी ज़रूरी है।

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

संबंधित आलेख

केशव प्रसाद मौर्य बनाम योगी आदित्यनाथ : बवाल भी, सवाल भी
उत्तर प्रदेश में इस तरह की लड़ाई पहली बार नहीं हो रही है। कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के बीच की खींचतान कौन भूला...
बौद्ध धर्मावलंबियों का हो अपना पर्सनल लॉ, तमिल सांसद ने की केंद्र सरकार से मांग
तमिलनाडु से सांसद डॉ. थोल थिरुमावलवन ने अपने पत्र में यह उल्लेखित किया है कि एक पृथक पर्सनल लॉ बौद्ध धर्मावलंबियों के इस अधिकार...
मध्य प्रदेश : दलितों-आदिवासियों के हक का पैसा ‘गऊ माता’ के पेट में
गाय और मंदिर को प्राथमिकता देने का सीधा मतलब है हिंदुत्व की विचारधारा और राजनीति को मजबूत करना। दलितों-आदिवासियों पर सवर्णों और अन्य शासक...
मध्य प्रदेश : मासूम भाई और चाचा की हत्या पर सवाल उठानेवाली दलित किशोरी की संदिग्ध मौत पर सवाल
सागर जिले में हुए दलित उत्पीड़न की इस तरह की लोमहर्षक घटना के विरोध में जिस तरह सामाजिक गोलबंदी होनी चाहिए थी, वैसी देखने...
फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन के विरुद्ध है मराठा आरक्षण आंदोलन (दूसरा भाग)
मराठा आरक्षण आंदोलन पर आधारित आलेख शृंखला के दूसरे भाग में प्रो. श्रावण देवरे बता रहे हैं वर्ष 2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण...