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राजेश कुमार का नाटक : कह रैदास खलास चमारा (पहला भाग)

प्रसंगवश यह जोड़ना मैं जरूरी समझता हूं कि रैदास साहेब ने अपनी वाणी में कहीं भी स्वयं को चर्मकार नहीं कहा है, और न ही चमड़े का काम करने में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं तथा औजारों का ही अपने पदों में कोई उल्लेख किया है, जैसे कबीर अपने करघे के बारे में करते हैं। पढ़ें राजेश कुमार द्वारा लिखित नाटक का कंवल भारती द्वारा पुनर्पाठ का पहला भाग

बहुजन नाटककार राजेश कुमार का, मोहन राकेश सम्मान से पुरस्कृत नाटक “कह रैदास खलास चमारा”[1] रैदास साहेब के व्यक्तित्व और दर्शन पर आधारित है। इसका पहला मंचन वर्ष 2006 में उत्तर प्रदेश के जनपद शाहजहांपुर में ‘अभिव्यक्ति’ के रंगकर्मियों द्वारा किया गया था। उसके बाद इसके और भी कई मंचन हुए।

जैसा कि प्राय: रैदास को एक चर्मकार के रूप में माना गया है, तो तदनुसार दलित लेखकों ने भी उन्हें इसी रूप में स्वीकार किया है। मैंने भी उनका वर्णन ‘संत रैदास : एक विश्लेषण’ में इसी रूप में किया है। लेकिन जब से मैंने रामनारायण रावत की पुस्तक ‘रीकंसिडिरिंग अनटचेबिलिटी : चमार्स एंड दलित हिस्ट्री इन नार्थ इंडिया’[2] पढ़ी, तब से मेरी धारणा बदल गई और मुझे महसूस होने लगा कि चमार और चर्मकार दो अलग-अलग शब्द हैं, और चमार को चर्मकार मानना किसी भी तरह से तर्कसंगत नहीं है। अब मुझे लगता है कि रैदास के चर्मकार रूप पर फिर से विचार करना होगा।

चमार को चर्मकार बनाने का काम ब्राह्मण-साहित्य में हुआ और चमारों के साथ मवेशियों को जहर देकर मारने का अपराध औपनिवेशिक काल में एक साजिश के तहत जोड़ा गया। इसी आधार पर औपनिवेशिक अधिकारी जार्ज डब्लू. ब्रिग्स ने भी चमार का अर्थ पेशेगत आधार पर ‘चर्मणा’ या ‘चर्ममला’ और ‘चर्मकार’ किया। ब्राह्मणों ने पेशे के आधार पर जातियों को नाम दिया और उन्हीं पेशेगत रूढ़ धारणाओं को औपनिवेशिक बुद्धिजीवियों तथा अधिकारियों ने भी न केवल पुष्ट किया, बल्कि जारी भी रखा। रावत ने तमाम औपनिवेशिक और भारतीय अभिलेखों के आधार पर सिद्ध किया है कि चमार एक कृषक जाति है, और चमड़े के कार्य से उसका कोई संबंध नहीं है। चमड़ा छीलने, पकाने और जूता बनानेवाला एक अलग समुदाय था, जो ब्रिटिश काल में शहरों में चमड़े की फैक्ट्रियां खुल जाने के बाद, गांव के वे लोग, जो मृतक पशुओं को उठाकर उनकी खाल निकलने का काम करते थे, शहरों में आकर चमड़ा फैक्ट्रियों में काम करने लगे। इन्हीं कुछ लोगों से एक अलग तरह का चर्मकार समुदाय विकसित हुआ। लेकिन यह चर्मकार समुदाय भारत की विशाल चमार आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करता।

हालांकि इस लेख में राजेश कुमार के नाटक पर चर्चा करना ही मेरा अभीष्ट है, फिर भी प्रसंगवश यह जोड़ना मैं जरूरी समझता हूं कि रैदास साहेब ने अपनी वाणी में कहीं भी स्वयं को चर्मकार नहीं कहा है, और न ही चमड़े का काम करने में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं तथा औजारों का ही अपने पदों में कोई उल्लेख किया है, जैसे कबीर अपने करघे के बारे में करते हैं। रैदास साहेब ने अपने संबंध में इतना जरूर बताया है कि उनका परिवार बनारस के आसपास ढोरों को ढोने का काम करता था। यथा– “मेरी जाति कुटुबागढला ढोरि ढोवन्ता नितहि बनारसी आस पास।”[3] इससे कहा जा सकता है कि वह मृतक पशुओं को उठाने वाले समुदाय से थे। लेकिन वह स्वयं भी इस काम को करते थे, इसका दावा उन्होंने कहीं नहीं किया है। अपितु, वह यह दावा जरूर करते हैं कि लोग उनके पास जूता गंठवाने आते हैं, जबकि वह इस काम को जानते ही नहीं हैं। यथा– “चमरटा गांठि न जानई, लोग गठावै पानही।”[4] इससे पता चलता है कि उन्हें चर्मकार जानकार सवर्ण लोग उनका उपहास उड़ाने के लिए अपने फटे जूते लेकर उनके पास जाते थे।

राजेश कुमार द्वारा लिखित नाटक ‘कह रैदास खलास चमारा’ (पुस्तकाकार रूप में) का आवरण पृष्ठ

बहरहाल, मैं नाटक पर आता हूं। नाटक के दो भाग हैं, एक पूर्वार्द्ध और दूसरा उत्तरार्द्ध। पूर्वार्द्ध में नाटक की पृष्ठभूमि काशी की है। गंगा के किनारे का दृश्य है। नाटक की शुरुआत एक सबद से होती है, जिसे मंच पर सामूहिक रूप से सस्वर गाया जाता है। इसके पश्चात एक हास-स्वांग होता है। पर इस हास में भी जातिप्रथा पर एक करारा व्यंग्य किया गया है। यह प्रहसन पंडित मटकाराम और हसौड़ा लाल के बीच है। हसौड़ा लाल के सिर पर दूल्हे का मौर बंधा है और मटका राम उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भाग रहा है. हसौड़ा लाल मंडली में जाकर छिपकर बैठ जाता है। सूत्रधार मटका राम को रोककर पूछता है, “किसे ढूंढ रहे हो, महाराज?” संक्षेप में यह वार्तालाप इस तरह है–

“तुमने किसी दूल्हे को तो भागते हुए नहीं देखा?”

“ये कहो न, एच. एल. शर्मा को ढूंढ रहे हो।”

“वह एच. एल. शर्मा नहीं, हसौड़ा लाल शर्मा है।”

“नाम में क्या रखा है?”

“नाम में ही तो सब कुछ रखा है। शास्त्रों में साफ़ लिखा है, आदमी का नाम उसके वर्ण के अनुसार होना चाहिए।”

“लेकिन हसौड़ा तो शर्मा है।”

“काहे का शर्मा? सरनेम रख लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता।”

“मगर आपने तो अपनी कन्या का लगन उसी के संग तय किया है।”

“टाइटिल के चक्कर में ही तो मात खा गया। शर्माओं के बीच उठता-बैठता था, तो समझा कि ब्राह्मण है, पर वह तो बढ़ई निकला।”

“इसमें स्त्री-विलाप करने की क्या आवश्यकता है? मंत्र है न, पढ़कर बढ़ई को ब्राह्मण बना दीजिए।”

“ब्राह्मण बनाना हंसी-खेल समझ रखा है?”

“जब मंत्र पढ़कर मुसलमान और ईसाई को हिंदू बनाया जा सकता है, तब बढ़ई तो इंटरनल मामला है।”

“इसमें सब मंत्र फेल हो जाते हैं।”

“फिर रैदास को जीते जी ब्राह्मण कैसे बना दिया? कबीर कैसे यकायक ब्राह्मणी-पुत्र हो गए?”[5]

इस प्रश्न का कोई उत्तर ब्राह्मण मटका राम के पास नहीं है। यह प्रसंग वर्णव्यवस्था पर प्रहार करने के लिए रचा गया, प्रतीत होता है।

इसके बाद दृश्य बदलता है। महंत अघोर नाथ अपने कमंडल को दोनों हाथ से पकड़कर मुंह से लगाते हैं। ढेर सारा जल मुंह में भरकर कुल्ला करते हैं और जोर से दायीं तरफ फेंकते हैं। पानी की छींटें जमीन पर फ़ैल जाती हैं। भक्तगण उसे उठा-उठाकर माथे पर लगाते हैं। स्त्रियां छाती, कान और माथे से लगाती हैं। इसके बाद एक सेवक एक बड़े पात्र में महंत के चरणों को धोता है। जल में पड़े अंगोछे से चरणों को पोंछकर खड़ाऊं पहनाता है और पात्र का जल प्रसाद के रूप में भक्तों में बांटने लगता है। भक्तों में उस पानी को पाने के लिए होड़ मच जाती है।[6] आगे महंत और कुछ अन्य संतों के बीच अंधभक्तों की आंखें खोल देने वाला संवाद चलता है, जो संक्षेप में इस प्रकार है–

शिवानंद : अहा! धन्य है वैदिक धर्म! और धन्य है इस धर्म पर आस्था रखने वाले भक्तों की भक्ति!

महंत : हमारे पूर्वजों ने तीक्ष्ण बुद्धि, चातुर्य और दूरदर्शिता से जिस धर्म-व्यवस्था की रचना की, सब उसी का सुखद परिणाम है।

रसानंद : हमें अपने पूर्वजों पर गर्व है।

महंत : और गर्व है उनके उच्च कर्मों पर, जिसका फल सदियों से उनकी संततियों को अनवरत रूप से प्राप्त हो रहा है। लोगों के अंतर्मन में हमारी श्रेष्ठता, वर्चस्वता का वटवृक्ष ऐसे जड़ जमाए हुए है कि लोग हमें ही नहीं, हमारे कुल्ले तक को पवित्र मान रहे हैं। पैरों की धोवन को चरणामृत मानकर पी रहे हैं। (फिर कुछ सोचकर बोलता है) किन्तु विचार करो, कोई नीच ही न रहे, हम ऊंच ही न रहें। तब क्या होगा?

“फिर तो सृष्टि का नाश निश्चित है।” उत्तर परमानंद देता है।

महंत : सृष्टि का तो पता नहीं, लेकिन द्विजों का सर्वनाश शत-प्रतिशत सुनिश्चित है। हमारी जातिगत श्रेष्ठता का सारा दंभ टूट जायेगा।[7]

यहां नाटककार को द्विजों की जगह ब्राह्मणों का सर्वनाश लिखना चाहिए था, क्योंकि ब्राह्मणों को छोड़कर क्षत्रियों और वैश्यों का वर्णव्यवस्था से कोई सीधा संबंध नहीं है। ब्राह्मणों के सिवाय इन दोनों में से किसी का भी न कुल्ला पवित्र होता है, और न उनका चरणामृत बांटा जाता है, बशर्ते कि वे संत न हों। अगर वर्णव्यवस्था टूटती है, तो केवल ब्राह्मणों का सिंहासन खतरे में पड़ता है, और किसी का नहीं।

नाटक आगे बढ़ता है। महंत बताता है कि उसे भविष्य के भयानक लक्षण दिखाई दे रहे हैं। इस पर शिवानंद पूछता है कि कहीं उनका संकेत उन सड़क छाप संतों से तो नहीं है, जो इन दिनों काशी में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं। यह संकेत कबीर और रैदास आदि दलित जातियों के संतों की ओर है, जो समाज में निर्गुणवाद का प्रचार करते थे। शिवानंद कहता है कि यह सब मुसलमानों की शह पर हो रहा है। पहले वे मंदिरों को लूटकर चले जाते थे, पर अब जम गए तो जाने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। रसानंद कहता है कि जब से मुसलमान आए हैं, घोर संक्रमण का काल आ गया है। रोज हिंदुओं का धर्म-परिवर्तन कराया जा रहा है। इस पर महंत कहता है कि “स्वाभिमान नाम की तो कोई चीज ही नहीं है इन बदजातों के पास। हिंदू के नाम पर कलंक हैं, कलंक। पता नहीं, इस्लाम में क्या देख रहे हैं?” रसानंद इसके उत्तर में बताता है, वे “कह रहे हैं, इस्लाम ने उन्हें इज्जत दिलाई है। यहां सब बराबर हैं, कोई भेदभाव नहीं है।” शिवानंद इसके प्रतिवाद में कहता है, “वो तो कुछ दिनों में अच्छी तरह से पता चल जाएगा कि कितने बराबर हैं। मुसलमान भी जान जाएंगे कि ये कितने कमीनजात हैं। लोभी इतने हैं कि जरा-सा किसी ने टुकड़ा फेंका नहीं कि इस्लाम को दुर्राते देर नहीं लगेगी।”[8]

यहां नाटककार ने संभवत: आज के मुस्लिम समाज के प्रकाश में इस्लाम की परख की है। यह सही परख नहीं है। यहां हिंदूधर्म के सापेक्ष इस्लाम का अधिक पक्ष लेने की आवश्यकता थी और यह बताने की जरूरत थी कि यह इस्लाम ही था, जिसने शिक्षा को सार्वजनिक किया था, और जिसके परिणामस्वरुप तमाम दलित जातियों ने शिक्षा अर्जित की थी। अगर इस्लाम न आता, तो कबीर और रैदास आदि दलित कवियों का उभार संभव ही नहीं हो पाता। दूसरी बात यह कि दलितों को लोभी कहने की बात नाटककार ने शिवानंद के मुख से कहलवाई है, पर उसका खंडन उन्होंने किसी पात्र के मुख से नहीं करवाया है। यह इस बात को दर्शाता है कि नाटककार के मन में भी कहीं न कहीं यह बात बैठी होगी कि दलित लोभी होते हैं और किसी के फेंके गए टुकड़े पर अपना ईमान बेच देते हैं।

बहरहाल, ब्राह्मण संतों में इस प्रश्न पर विमर्श चलता है कि कैसे इन नीचों को इस्लाम में जाने से रोका जाए और हिंदू देववाद तथा वर्णव्यवस्था को कैसे प्रतिष्ठित किया जाए? महंत इसका समाधान निकालता है कि ब्राह्मणवाद के ढहते हुए किले को बचाने का एक ही रास्ता है और वह है भक्ति का सहारा। वह अपनी योजना को स्पष्ट करते हुए कहता है, “निर्गुण काव्यधारा अगर एक निराकार निरंजन और निर्विकार भक्ति के द्वार सभी जातियों के लिए खोलती है, तो सगुण काव्यधारा का उद्देश्य होगा ऐसी भक्ति को स्थापित करना, जिससे मठ, मंदिर, मूर्तिपूजा का प्रचार हो। अगर वे मूर्तिपूजा और कर्मकांडों का खंडन करेंगे, तो हम कदम-कदम पर उनका मान-मर्दन करेंगे। हम अपने संतों की एक ऐसी जमात खड़ी करेंगे, जो एक तरफ वर्णाश्रम को बचायेंगे, तो दूसरी तरफ इस्लाम के हमलों से सनातन धर्म को सुरक्षित रखेंगे।”[9]

इसके बाद नाटककार ने एक बहुत ही अद्भुत रूपक प्रस्तुत किया है, जो बताता है कि ब्राह्मणों के लिए उनकी वर्णव्यवस्था उनके प्राणों से भी ज्यादा प्रिय है। मठ के ब्राह्मण बालक आकर संतों को बताते हैं कि एक भक्तिन मठ के पीछे वाले कुंए में गिर गई है। सब तमाशा देख रहे हैं, कोई भी उसे निकालने का प्रयास नहीं कर रहा है, क्योंकि कुंए में पानी गहरा है। तभी चतुरी नाम का एक युवक कहता है कि वह कुंए में उतरने के लिए तैयार है, क्योंकि उससे तैरना आता है। लेकिन महंत कहता है, “केवल तैरने की बात नहीं है। तुम्हारे उतरने से कुंए का पानी अपवित्र नहीं हो जाएगा?” चतुरी ने कहा कि भक्तिन डूब जाएगी। तब महंत जवाब देता है, “तो क्या धर्म को डुबो दें? धर्म बड़ा है या भक्तिन?” और इस तरह महंत अपने धर्म को बचाने के लिए भक्तिन को डूबकर मर जाने देता है।[10]

इसके बाद, एक और दृश्य धर्मांतरित मुसलमानों के संबंध में है। सोमारू, पुत्तन, खैराती, अच्छन मियां और चतुरी आदि कुछ लोग रैदास के पास आकर बारी-बारी से अपनी विपदा बताते हैं। रैदास एक चौराहे पर बैठकर सत्संग कर रहे थे। अच्छन मियां बताते हैं, “आज जब हम सत्संग कर रहे थे, तो महंत के पंडे लट्ठ लेकर बस्ती में आ धमके और लगे गरियाने। … चेता गए हैं कि दस दिन के भीतर बस्ती खाली कर दो।” महंत अघोर नाथ बस्ती की जमीन पर धर्मशाला बनवाना चाहते हैं। मंदिर के सामने दलित जातियों से इस्लाम में धर्मांतरित मुसलमानों की बस्ती है। महंत का कहना है कि मंदिर के आगे विधर्मी नहीं रह सकते। इस पर रैदास पूछते हैं कि जिन्होंने मुसलमान बनाया है, क्या उनकी कुछ जिम्मेदारी नहीं बनती है? रैदास आगे कहते हैं, “तुम मेहतर से मुसलमान हो गए। मुसलमान होने के कारण महंत तुम्हें बस्ती से हटाना चाह रहा है। तो इस मुसीबत की घड़ी में मौलाना साब और खां साब तुम्हारे साथ क्यों नहीं हैं? आखिर मजहब का सवाल है। लेकिन दोनों अघोरनाथ की तरफ चले गए।” रैदास पुन: कहते हैं, “ऐसा इसलिए हुआ कि भले तुम मुसलमान हो गए हो, लेकिन अभी भी उनकी नज़र में तुम मेहतर ही हो। और वे क्या हैं? शेख, सैयद, खान-पठान। मतलब वे ऊंची जाति वाले हैं और तुम नीची। तुम्हीं बताओ, इस हालत में ऊंची जाति वाला नीचे के साथ जाएगा? हरगिज नहीं, वह ऊंची जाति का साथ देगा, चाहे वह दूसरे मजहब का ही क्यों न हो।” पुत्तन समर्थन करता है, “जैसे पहले था, वैसा ही आज भी है। पहले जब बामन और ठाकुर थे, तब भी उनके सामने खड़ा होने की हिम्मत नहीं होती थी। अब हमारी तरह धर्म बदलकर शेख या खां साहब हो गए, तब भी चारपाई पर नहीं बैठ पाते हैं।” तुरंत अच्छन मियां जवाब देते हैं, “बुद्धू मियां ने जब अपने लड़के का नाम मोहम्मद कलीम रखा, तो खां साहब पेंदी से उखड़ गए। कहने लगे, ‘अबे तुम अपने लौंडे का नाम मुहम्मद कलीम, मोहम्मद सलीम रखोगे, तो हम क्या रखेंगे? चल इसका नाम कल्लू रख।’” इस पर रैदास बोलते हैं, “सम्मान के लिए जिन लोगों ने धर्मांतरण किया, वे मुसलमान बनकर भी अपने दायित्व से मुक्त नहीं हुए हैं। धर्म बदला है, स्थितियां नहीं बदली हैं। वहां भी वे नीच हैं, शूद्र हैं। वही गंदा और दास कार्य कर रहे हैं। केवल स्वामी बदले हैं, जुल्म नहीं।”[11]

लेकिन इस जुल्म के निवारण का जो उपचार नाटककार ने बताया है, वह सत्संग है। यथा–

अच्छन मियां : तो जुल्म को जीवन की नियति मान लें?

रैदास : मान लिए होते तो दर-दर सत्संग क्यों करते फिरते?

पुत्तन : फिर इसका जवाब क्या है?

रैदास : सत्संग।… हां कल तुम्हारी बस्ती में सत्संग होगा। कबीर को भी बता देना।

अन्य सब : हां, सेना, चोखा, बशीरा, पीपा सबको बता देना।

फिर सत्संग का दृश्य है, जिसमें रैदास का यह पद उद्धृत किया गया है– “भगति न मूढ़ मुड़ाए, भगति न माला दिखाए। भगति न चरन धुलाए, भगति न गुनी कहाए।”[12]

यहां नाटककार से एक ऐतिहासिक भूल हुई है। सेना मध्य प्रदेश के थे, चोखा महाराष्ट्र के और पीपा राजस्थान के। हालांकि, ब्राह्मणों ने चोखा, सेना और पीपा तीनों द्वारा रामानंद का शिष्यत्व स्वीकार करने का जिक्र किया है, जो पूरी तरह संदिग्ध है, लेकिन इन तीनों संतों के बनारस में रहने का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसलिए नाटककार द्वारा उन्हें रैदास के सत्संग में बुलाना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। बशीरा एक नया नाम है, शायद काल्पनिक। दूसरी बात यह कि धर्मांतरण और जातिवाद के संदर्भ में किए जाने वाले सत्संग में रैदास के जिस पद को गाया जाना दिखाया गया है, उसकी विषय के साथ कोई संगति नहीं बैठती है। अच्छा होता, अगर नाटककार यहां सत्संग को एक निर्गुण भक्ति का नहीं, अपितु निर्गुण विचारधारा के क्रांतिकारी आंदोलन और विमर्श के रूप में दिखाता, क्योंकि निर्गुण और सगुण उसी तरह की दो विचारधाराएं हैं, जिस तरह की वाम और दक्षिण पंथी विचारधाराएं हैं। दलित संत सत्संग में केवल कविताओं का ही गायन नहीं करते थे, बल्कि गद्य में भी अपनी वैचारिकी जरूर रखते रहे होंगे। नाटक में रैदास द्वारा इस संबोधन का अभाव अखरता है।

नाटक में आगे का दृश्य रैदास के घर का है। यह काफी लंबा दृश्य है, जिसमें रैदास और उनकी पत्नी लोनी तथा रैदास के पिता रघुराम और उनकी मां करमा देवी के बीच दिलचस्प वार्तालाप चलता है। सत्संग से निबटकर जब रैदास घर पहुंचते हैं, तो लोनी नाराज होकर कहती है, “फुर्सत मिल गई, घर आने की।” फिर पूछती है कि मां जी के लिए नई धोती लाने को दो दिन से कह रही हूं, ले आए? इस पर रैदास अपने लंबे जवाब में पंडों द्वारा की जाने वाली एक हिंसक घटना का जिक्र करते हैं। यथा–

“तू विश्वास नहीं करेगी, लौटते बख्त मैं बाज़ार की तरफ ही गया था। रास्ते में मंदिर के बाहर भीड़ लगी हुई थी। सोचा, मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा का कोई विधि-विधान चल रहा होगा। झांका तो देखा, सनीचरा पंडों से भिड़ा पड़ा था। राधा-कृष्ण की जिस मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हो रही थी, वह सनीचरा ने ही बनाई थी। वह एक बार मूर्ति का दर्शन करना चाहता था। लेकिन महंत उसे अंदर जाने नहीं दे रहा था। कह रहा था, ‘गंगा जल से मूर्ति को पवित्र किया गया है। प्राण-प्रतिष्ठा करने के बाद मूर्ति को देवता बना दिया गया है। अब प्रभु नीचों को दर्शन नहीं दे सकते।’” सनीचरा जबरदस्ती अंदर घुसने लगा तो पंडे टूट पड़े। “तुम तो जानती हो, महंत कितना बिगड़ैल है। बड़ी मुश्किल से समझा-बुझाकर शांत किया। नहीं तो वे लोग उसे मार ही डालते।”[13]

यहां सनीचरा द्वारा यह व्यंग्यात्मक प्रश्न उठाया जा सकता था कि वह यह देखना चाहता था कि प्राण-प्रतिष्ठा के बाद, उसके द्वारा बनाई गई मूर्ति, जीवंत होकर क्या चलने-फिरने और बोलने भी लगी है?

खैर, इसके बाद, रैदास भोजन मांगते हैं और लोनी थाली परोसकर रैदास के पास बैठ जाती है। इसी समय रैदास के पिता रघुराम तमतमाए हुए घर के अंदर प्रवेश करते हैं और थाली में ठोकर मारकर कहते हैं, “काम का न काज का, दुश्मन अनाज का। पूरे काशी में आग लगाकर यहां चैन से खाना भकोस रहा है। अरे क्या जरूरत थी सनीचरा के लिए महंत से पंगा लेने की? खुद की दशा सुधारी नहीं जाती, चले हैं दुनिया सुधारने। बड़ा आया धर्मात्मा!”[14]

यह दृश्य स्वाभाविक है। प्राय: समाज में सुधार या परिवर्तन लाने वाले दलित नायकों के मातापिता सामाजिक और आर्थिक कारणों से अपने पुत्रों के आंदोलन-कर्म से भयभीत रहते हैं। रघुराम भी जानते थे कि ब्राह्मणों का विरोध करने से उनके परिवार पर संकट आ सकता था। इसलिए वह ब्राह्मण अत्याचारियों और शोषक वर्ग के दमन से सुरक्षित जीवन की चाह में अपने पुत्र का विरोध कर रहे थे। लेकिन महानायक बनी-बनाई लीक पर नहीं चलते। वे अपने पथ का खुद निर्माण करते हैं, परिणाम की चिंता नहीं करते। करमा देवी के पूछने पर रघुराम बताते हैं, “देख, काशी पंडों की नगरी है। दांतों के बीच जीभ की तरह रहने में ही भलाई है। भले यहां का कोतवाल मुसलमान हो, पर तूती इन्हीं की बोलती है। कोतवाल भी इनके खिलाफ नहीं जा सकता। तू क्या सोचती है, रैदास दस-बीस आवारा लड़कों के साथ मिलकर काशी की सूरत बदल देगा? हम किसी जन्म में उनकी बराबरी नहीं कर सकते। रैदास लाख धर्म की बातें करता फिरे, पोथी बांचता घूमे, पर कोई बामन-राजपूत और बनिया उसके पांव नहीं छुयेगा।”[15]

निश्चित रूप से यह वह यथार्थ है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन रघुराम की चिंता एक और है, और वह यह कि रैदास काम-काज नहीं करते, साधुओं को बिना दाम लिए जूते पहनाते रहते हैं। “ऐसे दान करते रहे, तो वह दिन दूर नहीं, जब बाज़ार में हम कटोरा लिए फिरेंगे। काम में तो मन लगता नहीं, जब देखो, तब जोगियों के साथ धूनी जमाए रहता है।”[16]

यहां नाटककार ने रैदास को “जोगियों के साथ धूनी जमाए रहना” दिखाकर निर्गुणवाद के दर्शन पर ही कुठाराघात कर दिया है। जोगियों के साथ रहना और धूनी रमाना रैदास की निर्गुण विचारधारा के ही विपरीत है। नाटककार शुरू में ही रैदास के इस पद को उद्धृत कर चुके हैं कि “ऐसी भगति न होई रे भाई।”[17] इस पद में रैदास स्वयं ही जोग-साधना और वैराग्य बांधने का खंडन कर रहे हैं, फिर वह जोगियों के साथ धूनी कैसे रमा सकते हैं?

आगे रैदास और लोनी के बीच एक विचारोत्तेजक वार्तालाप है। रैदास के कंधे पर एक घाव है, जिसे देखकर लोनी पूछती है, “किसने मारा?” रैदास बताते हैं कि वह बाज़ार जूते बेचने जा रहे थे। रास्ते में वह जान-बूझकर एक ब्राह्मण से टकरा गए कि देखें क्या होता है? बाभन देवता ने एक डंडा धर दिया पीठ पर। फिर वह आगे लोनी से कहते हैं, “कभी-कभी सोचता हूं लोनी, क्या है इस चाम में, जिसके छू जाने से लोग अपवित्र हो जाते हैं। मैला तो नहीं भरा है इसके अंदर। एक बार तो इस चाम को इतना खुरच डाला कि अंदर से खून बलबला कर निकल आया।”

लोनी ने उत्तर दिया, “मैला चाम में नहीं, उनके मगज में भरा है।”

रैदास : देखना, इन्होंने जो रचा है, एक दिन खुद ही भुगतेंगे।

लोनी : मरने के बाद इनकी आत्मा किसी कुत्ते या सूअर के मरे शरीर में प्रवेश करेगी। किसी डोम या चूहड़े के घर में पैदा होगी।[18]

यह संवाद रैदास और लोनी को पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास करने वाला साबित करता है, जबकि निर्गुणवाद पूर्वजन्म-पुनर्जन्म दोनों का खंडन करता है। यथा– “निरंजन निराकार अबिनासी, जनम मरण की कटे फांसी।” और “मो सों कोऊ न कहै समुझाय, मेरो आवागमन बिलाए।”[19] हालांकि, यह सच है कि अपनी वाणी में जितने स्पष्ट कबीर हैं, उतने रैदास नहीं दिखाई देते, पर इसका मतलब यह नहीं है कि रैदास निर्गुणवादी नहीं थे, अपितु इसका अर्थ यह है कि रैदास की वाणी ब्राह्मणों द्वारा जला दी गई थी, और उनके शिष्य उसको लिपिबद्ध नहीं कर सके थे। उनके जो पद लोगों को याद रहे, वे बहुत कम हैं और जो वाणी आज उपलब्ध है, उसमें ब्राह्मणों द्वारा गढ़े गए पद अधिक संख्या में हैं। इसलिए सिर्फ निर्गुणवाद की कसौटी से ही उनकी वास्तविक वाणी की पहचान की जा सकती है।

क्रमश: जारी

[1] राजेश कुमार, कह रैदास खलास चमारा, उद्भावना, गाज़ियाबाद, 2009
[2] रामनारायण एस. रावत, रिकन्सिडरिंग अनटचेबिल्स : चमार्स एंड दलित हिस्ट्री इन नोर्थ इंडिया, परमानेंट ब्लेक, रानीखेत, 2012, देखिए, इंट्रोडक्शन।
[3] आदि अमृत वाणी श्री गुरू रविदास जी, रिसर्च फोरम, आल इंडिया आदि धर्म मिशन, सावन पार्क, दिल्ली, 8/7
[4] वही, 5/12
[5] राजेश कुमार, उपरोक्त, पृष्ठ 14-15
[6] वही, पृष्ठ 17-18
[7] वही, पृष्ठ 18
[8] वही, पृष्ठ 20
[9] वही, पृष्ठ 21
[10] वही, पृष्ठ 22
[11] वही, पृष्ठ 25-26
[12] वही, पृष्ठ 26
[13] वही, पृष्ठ 27-28
[14] वही, पृष्ठ 28
[15] वही, पृष्ठ 29
[16] वही।
[17] देखिए, वही, पृष्ठ 22
[18] वही, पृष्ठ 32
[19] कँवल भारती, संत रैदास : एक विश्लेषण, बोधिसत्त्व प्रकाशन, रामपुर, संस्करण दूसरा 2000, पृष्ठ 123-187

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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व्याख्यान  : समतावाद है दलित साहित्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आधार 
जो भी दलित साहित्य का विद्यार्थी या अध्येता है, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे बगैर नहीं रहेगा कि ये तीनों चीजें श्रम, स्वप्न और...
‘चपिया’ : मगही में स्त्री-विमर्श का बहुजन आख्यान (पहला भाग)
कवि गोपाल प्रसाद मतिया के हवाले से कहते हैं कि इंद्र और तमाम हिंदू देवी-देवता सामंतों के तलवार हैं, जिनसे ऊंची जातियों के लोग...
दुनिया नष्ट नहीं होगी, अपनी रचनाओं से साबित करते रहे नचिकेता
बीते 19 दिसंबर, 2023 को बिहार के प्रसिद्ध जन-गीतकार नचिकेता का निधन हो गया। उनकी स्मृति में एक शोकसभा का आयोजन किया गया, जिसे...
आंबेडकर के बाद अब निशाने पर कबीर
निर्गुण सगुण से परे क्या है? इसका जिक्र कर्मेंदु शिशिर ने नहीं किया। कबीर जो आंखिन-देखी कहते हैं, वह निर्गुण में ही संभव है,...