h n

डा. सी. बी. भारती की कविताओं का पुनर्पाठ (पहला भाग)

दलित कवि जिन दिनों अपने रचना-कर्म में मार्क्सवादी प्रभावों से जूझ रहे थे और जनवादी शब्दों को उपेक्षा से देख रहे थे, डा. सी. बी. भारती उन दिनों जनवादी शब्दों का प्रयोग दलित चेतना के अर्थ में धड़ल्ले से कर रहे थे। कंवल भारती कर रहे हैं उनकी कविताओं का पुनर्पाठ

आज अगर कोई मुझसे यह पूछे कि मेरे प्रिय दलित कवि कौन-कौन हैं, तो जो सूची मैं तैयार करूंगा, उसमें डा. सी. बी. भारती  का नाम जरूर होगा। हिंदी में संभवत: डा. सी. बी. भारती ही वे कवि हैं,  जिन्होंने सबसे कम लिखा है, पर सबसे ज्यादा उद्धरित किये गये हैं। दलित कविता पर कोई लेख उनकी कविता के बगैर पूरा नहीं होता। यह इसलिये नहीं कि वे सबके प्रिय हैं, बल्कि इसलिये कि दलित कविता का आत्म संघर्ष यदि सिलसिलेवार किसी कविता संग्रह में उभरता है, तो वह डा. सी. बी. भारती का एकमात्र कविता संग्रह ‘आक्रोश’ ही है। इतना ही नहीं, ‘दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र’ जैसा गंभीर निबंध भी पहली दफा डा. सी. बी. भारती ने ही लिखा। यह निबंध भी सर्वाधिक चर्चित हुआ और सर्वाधिक उद्धरित भी किया गया। यदि वे इस विषय पर आगे काम करते, तो इस विषय की पहली किताब भी उन्हीं की होती। ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ जब लोकप्रिय हुआ, तो मुझ समेत कई लोगों ने उन्हें इस विषय पर पूरी किताब लिखने का सुझाव दिया। वे इस विषय पर बहुत अच्छा काम कर सकते थे, क्योंकि ‘सौंदर्य शास्त्र’ उनकी पीएच.डी. थीसिस का विषय रह चुका था। लेकिन वे इस ओर ध्यान नहीं दे सके।

दलित कवि जिन दिनों अपने रचना-कर्म में मार्क्सवादी प्रभावों से जूझ रहे थे और जनवादी शब्दों को उपेक्षा से देख रहे थे, डा. सी. बी. भारती उन दिनों जनवादी शब्दों का प्रयोग दलित चेतना के अर्थ में धड़ल्ले से कर रहे थे। उन्होंने अपने कविता-संग्रह का नाम ही ‘आक्रोश’[1] रखा, जो एक जनवादी शब्द है। इसकी भूमिका डा. एन. सिंह ने लिखी है और यह अकारण नहीं है कि उन्होंने अपनी भूमिका को ‘अग्नि आखर ये’ नाम दिया है। सचमुच ये कविताएं ‘अग्नि आखर’ ही हैं। लेकिन, यह अग्नि विध्वंस नहीं करती है, विध्वंस के खिलाफ आदमी को युद्धरत बनाती है। ‘आक्रोश’ शीर्षक कविता अत्यंत सरल, सीधी और सपाट-बयानी की कविता है। उसके मूल में जो  आक्रोश है, वह शासक वर्ग की आंखों में आंखें डालकर सवाल करता है–

यदि आबाद न कर पाते तुम
मुहब्बतों से यह देश
कम से कम बरबाद तो न किया होता
इसे अपनी नफरत की फितरत से।[2]

दलित चेतना के अर्थ में जनवादी चेतना का यह अभिनव प्रयोग है, जो हमें ‘आक्रोश’ में मिलता है। इस कविता की सौंदर्य चेतना मार्क्सवादी नहीं है। यह दलित साहित्य की वह सौंदर्य दृष्टि है, जो मुहब्बतों से देश को आबाद होते देखना चाहती है। यह सच है कि कवि जिस शासक वर्ग से मुखातिब है, उससे मुहब्बत की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यह मार्क्सवादी अर्थशास्त्र का शासक वर्ग नहीं है, जिसे सर्वहारा की तानाशाही से समाप्त किया जा सकता है, बल्कि यह वह शासक वर्ग है, जिसे हिंदू समाज-व्यवस्था ने बनाया है और उसे इस व्यवस्था को मिटाकर ही समाप्त किया जा सकता है।

दलित चिंतन के लिये सवाल यह नहीं है कि शासक वर्ग ने सत्ता कैसे कायम की? सवाल उसके लिये यह है कि दलित वर्ग ने उसे कैसे कायम होने दिया? यथा–

बताओ क्यों नहीं फड़की थी तुम्हारी भुजाएं
क्यों शून्य रहा तुम्हारा दिमाग
क्यों काम नहीं आयी तुम्हारी शक्ति
…….       …….       ……..     ………

क्यों हड़प ली गयी तुम्हारी अस्मिता
कैसे गवां बैठे तुम अपना सारा वजूद[3]

डा. सी. बी. भारती के कविता संग्रह की पहली कविता इसी सवाल पर खड़ी है। उन्होंने ‘चिंतन का समय’ कविता में ‘बहुजन’ शब्द का प्रयोग किया है। इस कविता की शुरुआत ‘बहु-जन! तुम, बहुजन ही रहे होगे अवश्य’ इन पंक्तियों से होती है। यह राजनैतिक शब्दावली का शब्द नहीं है, बल्कि यहां ‘बहुजन’ शब्द इस अर्थवत्ता के साथ आया है कि शासक वर्ग अल्पसंख्यक है, जबकि उससे पीड़ित जनों की संख्या सर्वाधिक है, वह बहुसंख्या में है। इस कविता की विशेषता यह है कि इसकी अंतिम पंक्तियों में दलित चेतना एक व्यापक जनवादी परिवेश निर्मित करती है– “बताओ बहुजन! यह वक्त पिष्टपेषण का नहीं/ यह वक्त चिंतन का है।”[4]

इसी तरह ‘घृणा’ कविता में एक आत्म-विस्मृत जाति का चिंतन अभिव्यंजित हुआ है–

अपने देश के परिवेश में
हमने तो की मशक्कत
बांटे हैं प्यार हमेशा
भरे हैं लोगों के पेट।[5]

और, शासक वर्ग ने इस जाति को क्या दिया– घृणा, अपमान और भूख। इस घृणा ने दलित जाति को ही नहीं, पूरे देश को गुलाम बनाने का काम किया। जब जरूरत थी देश की जातियों को एक राष्ट्र बनने की, शासक वर्ग ने तब दलित वर्ग को अस्पृश्य बना कर रखा। परिणाम यह हुआ कि–

लड़ भी न पाये थे देश के लिये
कभी न एक होकर हम।[6]

डा. सी.बी. भारती व उनका काव्य संग्रह ‘आक्रोश’

डा. सी. बी. भारती ने मिथकों को भी आज के जनवादी परिवेश में रखकर विचारोत्तेजक बना दिया है। ‘अछूत’ कविता में  यह दलित सवाल उभरता है कि “जूठन खाने का यह कैसा तिलिस्म?” “शबरी की जूठन खाकर  पुरुष से मर्यादा पुरुषोत्तम हो गये राम” और “जूठन” पर ही आजन्म पले “हम अछूत हो गये।” (और) “विदुर का शाक खाकर/ भगवान हो गये कृष्ण/ और हम पले शाक-पात पर ही जीवन भर/ हम शूद्र हो गये/ यह कैसा तिलिस्म/ कैसा भेदभाव यह/ इस धरती के भगवानों का?”[7]  गरीबी से ज्यादा बड़ी पीड़ा सामाजिक अपमान की होती है, इस कविता के केंद्र में यही भावबोध है।

दलित और सर्वहारा की चेतना का अद्भुत समन्वय सी. बी. भारती की ‘निर्माण’, ‘घर’, ‘जोंक’, ‘तितली’, ‘कुत्ता’, ‘ईश्वर नहीं है’ और ‘कृषि मजदूर’ कविताओं में देखने को मिलता है। इन कविताओं में उन्होंने दलित और सवर्ण का सवाल नहीं उठाया है, और ना ही गरीब को जाति के आधार पर विभाजित किया है। बस, संवेदना के इस स्तर को दिखाया है कि गरीब सवर्ण वर्णव्यवस्था के राजनैतिक अर्थशास्त्र से अनजान है, जिसके कारण गरीबों के साझा संघर्ष में उसका उच्चताबोध भयानक बाधा पैदा करता है। यथा–

मैने देखा तुम्हारी तरफ आशाओं से
पर तुमने दी हमें इसके बदले
घृणा और केवल घृणा[8]

यही भाव ‘परिंदे’ कविता में इस बिंब में उभरता है–

परिंदों में एकता होती है
परिंदे छोटे बड़े का मन में भाव नहीं लाते हैं
क्योंकि परिंदों में जातियां नहीं होतीं
जाति का अहंकार नहीं होता।[9]

काश, वर्ग-संघर्ष के समर्थकों ने जाति-संघर्ष की आवश्यकता को महसूस किया होता। परिंदे कितने भले हैं कि उनमें जाति का दंभ नहीं होता। सवाल जातियों का नहीं है, बल्कि जन्म से किसी के उच्च और किसी के नीच बनाए जाने का है। यह विडंबना ही है कि भारत में कोई ब्राह्मण है, जो जन्म से ही उच्च और श्रेष्ठ है। और यह ऐसा ब्राह्मण है, जो बुद्धिमान नहीं है, शिक्षित नहीं है, फिर भी उच्च हैं। भारत में क्षत्रिय जन्म से हैं और यह ऐसा क्षत्रिय है कि लड़ाकू नहीं है, सैनिक नहीं है, फिर भी क्षत्रिय है। भारत में वैश्य जन्म से है और यह ऐसा वैश्य है कि व्यापारी नहीं है, फिर भी वैश्य हैं। भारत में शूद्र-अतिशूद्र (अछूत) जन्म से हैं और यह ऐसे शूद्र-अतिशूद्र हैं कि बुद्धिमान हैं, लड़ाकू हैं, व्यापारी हैं, श्रमजीवी  हैं, लेकिन फिर भी नीच हैं। भारत से बाहर के बौद्धिक जन ज्ञान का विकास करते हैं, नए-नए अनुसंधान करते हैं, अविष्कार करते हैं। लेकिन भारत में जो ब्राह्मण है, वह सिर्फ तंत्र-मंत्र, पूजा-पाठ, और पुरोहिती का काम करता है। वह ज्ञान का विकास नहीं करता। प्रत्युत, जो ज्ञान का विकास करता है, उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। यह घृणित व्यवस्था है। यह पूरे देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ने की व्यवस्था है। भारत में यदि यह घृणित व्यवस्था न हो, तो वास्तव में “दबाई नहीं जा सकती कोई कौम। दबाया नहीं जा सकता कोई व्यक्ति/ दबाया नहीं जा सकता कोई पूरा समाज।”[10]

हिंदू समाज की इस वर्ण व्यवस्था ने निश्चित रूप से जनतंत्र का दमन किया है। लेकिन, सवाल यह गौर तलब है कि यह व्यवस्था कभी भी जनतंत्र-समर्थक नहीं थी। इसका जन्म राजतंत्र में हुआ और यह सदैव सामंतवादी व्यवस्था ही बनी रही। अतः यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जनतंत्र के उदय के साथ ही इस सामंतवादी व्यवस्था का विरोध भी पैदा हुआ। और, सचमुच यदि भारत में जनतंत्र न आया होता, तो क्या देश की टूटती एकता को बचाने का संकल्प दलित कवि लेता–

मैने अब उठा ली है कलम
झाडू के बदले
करेंगे साफ तुम्हारी सारी गंदगी
बचायेंगे हम
देश की टूटती एकता को।[11]

ये पंक्तियां जिस ‘कविता कलम के जरिए’ से ली गयी हैं, वह बहुत महत्वपूर्ण कविता है, जिसकी शुरूआत इन पंक्तियों से होती है– “तुम फैलाते रहे गंदगी/ और मैं करता रहा सफाई/ चलाता रहा अपनी झाड़ू।”[12] इसमें अद्भुत संरचनात्मक सूक्ष्मता है, ‘गंदगी’ और ‘झाडू’ यहां दो भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं। एक अर्थ तो यही है कि दलित उस गंदगी को साफ कर रहा है, जो उसने की ही नहीं। इस गंदगी को फ़ैलाने वाला कोई दूसरा है, कम से कम दलित तो नहीं है। दूसरा अर्थ यहां अत्यंत प्रगतिशील है। इसमें ‘झाडू’ कलम के अर्थ में है। ‘गंदगी’ विचारों की है, जिसकी सफाई दलित-कलम करती रही है। इस कविता के द्वारा कवि ने साहित्य के मानदंड का सवाल उठाया है और साहित्य की सौंदर्य-चेतना की सामाजिक भूमि को रेखांकित किया है। यह विद्रोह की व्यंजना है, जो सी. बी. भारती को इस कविता की संरचना में दिखाई देती है।

इस कविता में विन्यास खंडित है, पर अर्थवत्ता अखंड है। वह पूरी कविता में समान भाव में है। यदि यह सवाल किया जाय कि गंदगी की सफाई के बाद क्या होता है? तो पहले हमें यह देखना होगा कि ‘गंदगी’ किसकी? जब मामला दलित-मुक्ति का हो, तो ‘गंदगी’ कोई रहस्यमय शब्द नहीं रह जाता, जिसका अर्थ समझ में न आये। स्पष्ट रूप से यह गंदगी उन विचारों की है, जो समाज में अस्पृश्यता, घृणा, भेदभाव और अलगाव की दुर्गंध फैलाते हैं। इस दुर्गंध की सफाई सुगंध फैलाकर ही हो सकती है। इसी अर्थ-सौंदर्य की ये पंक्तियां है– “तुमने जब जब भी फैलाई है दुर्गंध/ तब तब मैंने बिखेरी है खुशबू।[13] और यह ‘खुशबू’ भी किसकी? ‘मेहनत’ की। यह ‘मेहनत’ शब्द सफाई-कर्म की समग्रता को समेटे हुए है। दलित जाति, जो एक मेहनतकश वर्ग है, अपने उत्पादन-कर्म से जो निर्माण करता है, वह उसके कठिन श्रम की संरचना है, जिसमें प्यार की सुगंध ही हो सकती है।

यहां शब्द ‘खुशबू की मेहनत’ गौर तलब है। ‘मेहनत की खुशबू’ और ‘खुशबू की मेहनत’ में काफी अंतर है। मेहनत तो सभी करते हैं। गंदगी फैलाने वाले भी मेहनत करते हैं और उस गंदगी की सफाई करने वाले भी मेहनत करते हैं। अंतर यह है कि पहले वर्ग की मेहनत दुर्गंध की होती है, घृणा और तिरस्कार की होती है। किंतु, दूसरे वर्ग की मेहनत सुगंध की, खुशबू की होती है और यह खुशबू होती है प्यार की। कल्पना कीजिए कि यदि यह प्यार की खुशबू दलित के पास न हो और प्रतिक्रिया में वह भी घृणा और क्रोध का प्रदर्शन करे, तो क्या होगा? उसका सारा श्रम विध्वंस में बदल जाएगा। क्या इस विध्वंस से ‘देश की टूटी एकता’ को बचाया जा सकेगा? कहना न होगा कि सी. बी. भारती ने इस छोटी-सी कविता में ‘दलित साहित्य की अवधारणा’ को प्रस्तुत कर दिया है।

इस अवधारणा के मूल में मेहनतकश दलित की मुक्ति की चेतना है। निर्माण की भूमि पर कर्मरत दलित का खून-पसीना उन लोगों से सवाल करता है, जो उससे घृणा करते हैं–

गलाये हैं हमीं ने अपने शरीर
इन दहकती जान लेवा शैतानी भट्टियों में
मगर आज तुम्हें
हमीं को छूने में हिचक होती है।[14]

इस कविता के केन्द्र में दलित श्रमिक हैं। यहां कवि ने मार्क्सवादी वर्ग चेतना के बरक्स इस सामाजिक यथार्थ को उजागर किया है कि सामाजिक अपमान की जो पीड़ा दलित श्रमिक को मिलती है, वह सवर्ण श्रमिक को नहीं मिलती। उसकी पीड़ा दोहरी है। वह भूखा भी है और तिरस्कृत भी। कहने का अर्थ यह है कि जनवादी साहित्य की धारा तब तक पूर्ण नहीं होगी, जब तक कि वह इस सामाजिक प्रश्न को अपने केंद्र में नहीं लाएगा–

जातियां तोड़ती हैं मनुष्य को
जातियां जन्माती हैं बिलगाव
जातियां उपजाती हैं घृणा
जातियां मिटाती हैं भाईचारा
जातियां बोती हैं जहर दिलों में,
जातियां बुनती हैं असमानता।[15]

क्रमश: जारी

[1] डा. सी बी. भारती, आक्रोश, (कवित संग्रह), लोक सूचक प्रकाशन, फर्रुखाबाद, 1996
[2] वही, पृष्ठ 9
[3] वही, पृष्ठ 1
[4] वही
[5] वही, पृष्ठ 4
[6] वही
[7] वही, पृष्ठ 7
[8] वही, कृषि मजदूर, पृष्ठ 58
[9] वही, पृष्ठ 27
[10] वही, घिनौनी चालें, पृष्ठ 55
[11] वही, कलम के जरिए, पृष्ठ 12
[12] वही
[13] वही
[14] वही, निर्माण, पृष्ठ 13
[15] वही, जाति-विहीन वर्ग-विहीन समाज, पृष् 59

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

संबंधित आलेख

फूलन देवी की आत्मकथा : यातना की ऐसी दास्तान कि रूह कांप जाए
फूलन जाती की सत्ता, मायके के परिवार की सत्ता, पति की सत्ता, गांव की सत्ता, डाकुओं की सत्ता और राजसत्ता सबसे टकराई। सबका सामना...
इतिहास पर आदिवासियों का दावा करतीं उषाकिरण आत्राम की कविताएं
उषाकिरण आत्राम इतिहास में दफन सच्चाइयों को न सिर्फ उजागर करती हैं, बल्कि उनके पुनर्पाठ के लिए जमीन भी तैयार करती हैं। इतिहास बोध...
हिंदी दलित कथा-साहित्य के तीन दशक : एक पक्ष यह भी
वर्तमान दलित कहानी का एक अश्वेत पक्ष भी है और वह यह कि उसमें राजनीतिक लेखन नहीं हो रहा है। राष्ट्रवाद की राजनीति ने...
‘साझे का संसार’ : बहुजन समझ का संसार
ईश्वर से प्रश्न करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन कबीर के ईश्वर पर सवाल खड़ा करना, बुद्ध से उनके संघ-संबंधी प्रश्न पूछना और...
दलित स्त्री विमर्श पर दस्तक देती प्रियंका सोनकर की किताब 
विमर्श और संघर्ष दो अलग-अलग चीजें हैं। पहले कौन, विमर्श या संघर्ष? यह पहले अंडा या मुर्गी वाला जटिल प्रश्न नहीं है। किसी भी...