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‘कन्तारा’ : हिंदूवादी शिकंजे में आदिवासियत

आदिवासी समाज को रहस्यात्मक अनुष्ठानों तक सीमित करके समझना या उनका अति महिमामंडन करना कोई नई बात नहीं है। उनके असली मुद्दों पर बहुत ही कम फिल्में बनी है। ऋषभ शेट्टी की यह फिल्म भी पूरे आदिवासी समाज की समस्या और उसके निराकरण को रहस्यात्मक धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित कर देती है। बता रही हैं प्रो. सविता पाठक

बीते वर्ष 2022 को भारतीय फिल्म के परिप्रेक्ष्य में दक्षिण भारतीय सिनेमा के वर्चस्व का साल कहना ठीक होगा। तेलगु, कन्नड़, तमिल और मलयालम फिल्में अलग-अलग कथानकों के साथ नये-नये रूपों में दर्शकों के सामने आयीं। जहां एक ओर ‘केजीएफ चैप्टर टू’,’आर आर आर’ जैसी फिल्में थीं, तो दूसरी ओर ‘द ग्रेट इंडियन किचेन’ जैसी फिल्म थी। लेकिन सितंबर, 2022 में आयी कन्नड़ फिल्म ‘कन्तारा ’ भारतीय सामाजिक वैचारिकी के लिहाज से एक अलग ही विमर्श लेकर आयी। ऋषभ शेट्टी की यह फिल्म भले ही अब दर्शकों के लिए इतनी नई नहीं रही, लेकिन ऑस्कर सम्मान हेतु नामांकित होने के चलते एक बार फिर चर्चा में आ गई है।

‘कन्तारा’ में दो कहानियां एक साथ चलती हैं। एक तरफ वह अतीत के जरिये वर्तमान को व्याख्यायित करती है तो दूसरी ओर वर्तमान में चल रहेद्वंद्व को उभारती है। सोनी मैक्स टीवी चैनल पर इस फिल्म के प्रचार में एक बात कही गई है कि जहां आस्था है, वहीं रास्ता है। वह फिल्म को आस्था पर आधारित मानता है। खैर यह उसकी व्याख्या है। फिल्म में ‘भूत कोला’ के नृत्य के दौरान यह स्थापित होता है कि स्थानीय देव जो कि ‘भूत कोला’ कर रहा है, वह विष्णु के अवतार हैं। यह आदिवासी समाज के देवी देवताओं, उनके दैत्यों का एक तरह से हिंदू देवी देवताओं में एकीकरण है। 

कहानी की शुरूआत में सूत्रधार बताता है कि एक राजा है जो कि बहुत ही संपन्न है, लेकिन उसे बिलकुल भी मानसिक शांति नहीं है। वह कई उपाय करता है। उसी शांति की तलाश में वह एक जंगल में भटकते हुए पहुचता है, वहां पर उसे एक स्थान पर एक काठ (पंजुरूली दैव) मिलता है, जहां उसे असीम शांति की अनुभूति होती है। वह उसे अपने राज्य में ले जाना चाहता है। लेकिन तभी वहां सारे आदिवासी जमा हो जाते हैं। वे किसी भी प्रकार से अपने देवता को नहीं जाने देना चाहते हैं और उन्ही में से एक के ऊपर देवता आकर निर्देश देते हैं कि मैं तुम्हें ले जाने दूंगा, लेकिन तुम बदले में हमारे समाज को क्या दोगे। फिर वह कहता है कि जितनी दूर तक उस आदमी की आवाज जाएगी, वह पूरा क्षेत्र-जंगल आदिवासी समाज का हो जाएगा। ऐसा कहकर वह एक हुंकार भरता है। 

फिल्म में इस घटना को उन्नीसवी सदी का बताया गया है और यह भी कि तब से एक अनुष्ठान के तौर पर हर साल कर्नाटक के उस आदिवासी इलाके में यह मनाया जाता है। पूरे आदिवासी समाज के लिए यह उनकी पहचान उनके देवता (दैत्य) की ताकत का प्रतीक है। वह उसे धूमधाम से मनाते हैं और हर बार राजपरिवार से संबधित व्यक्ति आकर वही कथा प्रतीक के तौर पर दुहराता है।

समीक्षित फ़िल्म ‘कन्तारा’ का पोस्टर

समय के साथ राजा के परिवार के लोग स्थानीय राजनीति का हिस्सा बन गए हैं और जंगल को कारपोरेट के हाथ बेचना चाहते हैं। ऐसा नहीं कि वह जंगल से अबतक फायदा नहीं ले रहे थे, लेकिन उनकी आगे की पीढी को और मुनाफा कमाना है। वह जंगल में ‘भूत कोला’ के अनुष्ठान के समय कहता है कि उसे अपना जंगल वापस चाहिए लेकिन ‘भूतकोला’ का नृत्य करता हुआ आदमी जिस पर देवता आया है, साफ शब्दों में कहता है कि वह राजा के परिवार से शांति छीन लेगा। यह चेतावनी देते हुए वह जंगल में भाग जाता है। 

परिस्थितिवश जमींदार के परिवार के उस आदमी की मृत्यु हो जाती है और तात्कालिक तौर पर बात टल जाती है। ‘भूत कोला’ का अनुष्ठान करने वाले व्यक्ति को सात्विक जीवन जीना होता है, लेकिन उसका बेटा शिवा उसे करने से मना कर देता है। इस तरह से वार्षिक अनुष्ठान के समय शिवा का चचेरा भाई देवता का अभिनय करता है। जमींदार शिवा के चचेरे भाई की हत्या करवा देता है।

शिवा का पूरा चरित्र दक्षिण भारतीय खासतौर कन्नड़ तेलगु पापुलर फिल्मों के मुताबिक है। अति मर्दानगी, खूब दारू पीना और नायिका को अपने मर्दाना तरीके से लुभाना। यहां फिल्म बिलकुल पारंपरिक पितृसत्तावादी ढर्रे पर चलती है। शिवा पूरे समय दारूबाजी और जंगली सुअरों का शिकार करने में लगा रहता है। वह जमींदार के लिए औरतें भी उपलब्ध कराता है। शिवा और उसके दोस्तों को कहीं से भी जंगल से प्रेम का नहीं है। 

फिल्म में नये फॉरेस्ट आफिसर का आना व उसका स्थानीय लोगों की मान्यताओं को नहीं समझना और यह समझना कि जंगल में रहनेवाले लोग जंगल के कानून का उल्लंघन कर रहे है, यह जंगल व आदिवासियों के संबंध में सरकारी समझ का द्योतक है। जबकि जंगल का असली दुश्मन कारपोरेट और स्थानीय जमींदार है, यह बात बहुत देर से स्थापित होती है और ऐसे में शिवा अपने पारंपरिक रूप को अपनाता है। वह स्वयं ‘भूत कोला’ के रूप को अपनाता है और फिर से एक तेज आवाज से हुंकार भरकर जंगल पर अपने अधिकार की घोषणा करता है। 

फिल्म की शुरूआत भी ‘भूत कोला’ नृत्य से होती है और समापन भी। इसके जरिए यह दिखाया जाता है कि कैसे कोई साधारण आदिवासी एक असाधारण देव या दैत्य में परिवर्तित होता है। वह पंजुरली दैव के आदेश पर गुलिगा दैव उसके शरीर में आते हैं। वहां पर कोई सामान्य मनुष्य नहीं रह जाता है। उसके पूरे शरीर का कंपन, उसकी मुख-मुद्रा, भंगिमा, उसकी आवाज सामान्य देवी देवताओं से बिलकुल इतर होती है। उसे लगता है कि जंगल की आत्मा है जो कि स्वतंत्र है और उसकी आवाज में उसकी अपनी स्वतंत्र अस्मिता की आवाज शामिल है। 

फिल्मकार ऋषभ शेट्टी हालांकि उसे विष्णु अवतार के वाराहरूप में दिखाते हैं। इसे आदिवासियों को हिंदू बताने की प्रवृत्ति से अलग नहीं कर सकते हैं। फिल्म के अंत में ‘भूत कोला’ का अनुष्ठान कर रहा शिवा वापस जंगल की उस आवाज तक भाग तक जाता है, जिस आवाज से वह हमेशा डरता है। 

इसके दो पर्याय है। पहला जिन्हें गैर-आदिवासी दैत्य कहते हैं, उसे फिल्म में भी स्थानीय लोग ‘हमारा दैत्य’ कहते है, और उसे ही विष्णुवतार के रूप में दिखाया गया है। दूसरा, आदिवासी जीवन और जंगल पर उनके मालिकाना हक को उनके अनुष्ठान से अलग नहीं किया जा सकता है। इन दोनों ही बातों में जंगल पर आदिवासियों के हक की बात और ‘कन्तारा’ के ‘भूत कोला’ के जरिए दिखाया गया है। 

बहरहाल, आदिवासी समाज को रहस्यात्मक अनुष्ठानों तक सीमित करके समझना या उनका अति महिमामंडन करना कोई नई बात नहीं है। उनके असली मुद्दों पर बहुत ही कम फिल्में बनी है। ऋषभ शेट्टी की यह फिल्म भी पूरे आदिवासी समाज की समस्या और उसके निराकरण को रहस्यात्मक धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित कर देती है।

यहां फिल्म से इतर नाइजेरिया के लेखक वोल सोयन्का के नाटक का जिक्र करना जरूरी है। ‘अ डांस इन द फॉरेस्ट’ में सोयन्का इसी तरह के अनुष्ठान का जिक्र करते हैं। इसमें योरूबा आदिवासी समाज के लोग हर साल एक अनुष्ठान करते हैं, जिसके अनुसार उनके पुरखों की आत्माएं इकट्ठा होती हैं। ये आत्मायें न्याय-अन्याय के मुकदमें निपटाती हैं। उसके सहारे आज भी लोग आधुनिक चुनौतियों से बचने रास्ता ढ़ूढ़ते हैं, लेकिन सोयन्का जंगल में हो रहे पुरखों के उस नृत्य से बिना दूरी लिए बहुत ही अपनेपन के साथ स्थापित करते हैं कि आस्था में रास्ता नहीं है। आधुनिक चुनौती कारपोरेट मुनाफा केंद्रित व्यवस्था का सामना अनुष्ठान के जरिये नहीं हो सकता है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सविता पाठक

डॉ. सविता पाठक दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य की प्रवक्ता हैं। उन्होंने डॉ. आंबेडकर की आत्मकथा, ‘वेटिंग फॉर वीजा’ का हिंदी अनुवाद किया है। वे नियमित तौर पर 'पल-प्रतिपल' (पत्रिका) के लिए अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद करती हैं। एक युवा कहानीकार के रूप में भी उनकी पहचान बन रही है।

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