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संतुलित विकास हेतु आवश्यक है जातिवार जनगणना

आवश्यक है कि देश में जातिवार जनगणना के जरिए जातियों के अंदर ध्रुवीकरण और पिछड़ापन का आकलन सही-सही किया जाय, जिससे जरूरतमंद को आवश्यक सहयोग प्रदान कर उसे विकास की मुख्य धारा में जोड़ा जा सके तथा साथ ही देश में अलगाववाद को बढ़ावा देने वाली शक्तियों का दमन कर राष्ट्रीय एकता को मजबूती प्रदान किया जा सके। बता रहे हैं अच्छेलाल प्रजापति

भारत में आज जातिवार जनगणना विमर्श का विषय बना हुआ है। सत्ता पक्ष और विपक्ष द्वारा अपने-अपने तर्क दिये जा रहे हैं। कोई इसे सही ठहरा रहा है तो कोई इसे गलत। इस बीच बिहार राज्य ने अपने यहां जातिवार जनगणना आरंभ भी कर दिया है। इस गणना से संतुलित विकास पर क्या असर पड़ने वाला है, यह एक मौजूं सवाल है, जिसकी पड़ताल संतुलित प्रादेशिक विकास से संबंधित विद्वानों के विचारों के आलोक में देखने की आवश्यकता है।

शासन के दृष्टिकोण से संघीय व्यवस्था में प्रदेश एक बड़ी या छोटी क्षेत्रीय इकाई होता है, जबकि जाति एक बड़ा या छोटा जन समूह। जिस प्रकार प्रदेश में विविध प्रकार के जैविक एवं अजैविक संसाधन पाये जाते हैं, उसी प्रकार जाति विशिष्ट प्रकार के संसाधन संपन्नता के स्तर होते हैं। जिस प्रकार संसाधनों प्रादेशिक संसाधनों का उपयोग कर मानव अपना आर्थिक विकास करता है, उसी प्रकार जातियां अपनी क्षमता एवं योग्यता का उपयोग कर विकास करती हैं। मानव आर्थिक विकास के साथ प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करते रहना ही निर्वहनीय या संघृत विकास है। 

उल्लेखनीय है कि वृद्धि से केवल मात्रा का बोध होता है, जबकि विकास से गुणात्मकता का बोध होता है। भारत के लिहाज से देखें तो जातियों के आलोक में वृद्धि एवं विकास का बोध किया जा सकता है। कुछ जातियों की आबादी तो बढ़ी है, लेकिन उनके जीवन में गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुए हैं। इसलिए समाज के संघृत विकास की अवधारणा को धक्का लगा है। सर्वप्रथम हम प्रादेशिक आर्थिक विकास केंद्रित विचारों का अवलोकन करेंगे। तत्पश्चात उसे जातीय संरचना युक्त समाज में जातिवार जनगणना के निहितार्थ को समझने का प्रयास करेंगे।

किसी प्रदेश का आर्थिक विकास किसी एक बिंदु से प्रारंभ होता है। उसी प्रकार मानव विकास भी सभी जाति समूहों में एक साथ प्रारंभ न हो कर किसी एक जातीय समूह में प्रारंभ होता है। प्रादेशिक आर्थिक विकास के केंद्र को विकास ध्रुव कहा जाता है। प्रारंभ में विकास ध्रुव मात्रात्मक एवं गुणात्मक परिवर्तन के केंद्र होते हैं। भारतीय समाज के जातिगत संरचना में विकास ध्रुव के लक्षण प्रदर्शित होते हैं।

विकास ध्रुवों की उत्पत्ति तथा प्रदेश पर उसके प्रभाव का अध्ययन के संबंध में अनेक विद्वानों जैसे पेराक्स, शुम्पिटर, वॉडविल, ए.ओ. हर्शमान, गुन्नर मिर्डाल, हरमनसेन, क्रिस्टालर एवं भारतीय विद्वान आर. पी. मिश्रा आदि ने महत्वपूर्ण आख्यान दियाया है। मसलन, विकास ध्रुव का विचार फ्रांसीसी अर्थशास्त्री एफ. पेराक्स ने सन् 1955 में दिया था। उन्होनें बताया था कि तकनीकी युग से पहले आर्थिक विकास संतुलित रूप से संपूर्ण प्रदेश में होता था। तकनीकी युग आने के बाद विकास प्रदेश के एक केंद्र पर केंद्रित हो गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि कुछ प्रदेश अधिक विकास कर गये, जबकि कुछ विकास से अछूते रहे गये।

पेराक्स के विचार को यदि भारतीय जाति व्यवस्था के आलोक में देखें तो कहा जा सकता है कि प्रारंभ में सभी जातियां साथ-साथ मिलकर विकास पथ पर अग्रसर हो रही थीं, लेकिन समय बीतने के साथ विकास की गति तेज होने पर विकास कुछ जातियों में ही सिमट कर रह गया तथा बाकी जातियां विकास से वंचित होती चली गयीं। हालांकि पेराक्स प्रादेशिक विकास के अपने सिद्धांत में केंद्राभिसारी एवं केंद्रापसारी बल को प्रभावी माना है। केंद्राभिसारी बल विकास को अवरुद्ध करता है, जबकि केंद्रापसारी बल विकास को प्रदेश में वितरित करता है। लेकिन केंद्राभिसारी बल इतना प्रबल होता है कि केंद्रापसारी बल कम प्रभावी हो पाता है तथा विकास मंद गति से प्रदेश को आच्छादित करता है अथवा संपूर्ण प्रदेश में विकास की रोशनी नहीं पहुंच पाती है। 

उसी प्रकार जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था में उच्च संसाधन संपन्नता, उच्च शिक्षा, बेहतर सुविधाएं, जागरूकता का उच्च स्तर, केंद्राभिसारी बल जैसे जातिवाद, परिवारवाद, भाई-भतीजावाद आदि के कारण उपर्युक्त विशेषताओं का अभाव जैसे केंद्रापसारी बल निष्प्रभावी हो जाता है, जिससे विकास के दौड़ में अग्रसर जाति में विकास केंद्रित होने लगता है, जबकि अन्य जातियां विकास से वंचित रह जाती हैं। हालांकि उस जातीय विकास का लाभ अन्य जातियों को भी न्यूनतम ही में मिल पाता है, लेकिन वह इतना अल्प प्रभावी होता है कि संपूर्ण समाज के विकास को आच्छादित करने में असमर्थ हो जाता है।

इसी प्रकार का एक विचार ए. ओ. हर्शमान ने भी दिया है, जिसे असंतुलित वृद्धि का सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। उन्होंने प्रादेशिक विकास को रिसाव प्रभाव एवं ध्रुवीकरण प्रभाव के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने बताया कि विकास ध्रुव का प्रभाव अपने चतुर्दिक पिछडे क्षेत्रों पर रिसाव के माध्यम से पहुंचता है। यह रिसाव व्यापार एवं पूंजी स्थानांतरण के माध्यम से होता है। जातीय संरचना में देखा जाय तो यह रिसाव विकास के दौड में अग्रसर जातियों द्वारा विकास दौड़ में पिछड़ी जातियों के मध्य देखने को मिलता है। यह मैकाले की शिक्षा नीति के निष्कर्षों या निश्यंदन से मेल खाता है। निश्यंदन सिद्धांत यह मानता है कि शिक्षा शिक्षित वर्गो से समाज के अन्य वर्गो तक छनकर जाती है। सबको शिक्षित करने की आवश्यकता नहीं है।

ध्रुवीकरण प्रभाव के कारण चतुर्दिक प्रदेश से संसाधनों का केंद्रीकरण विकास ध्रुव पर होने लगता है। मसलन, अन्य क्षेत्रों के उद्योग-धंधे विकास केंंद्र के उद्योग-धंधोंसे प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ हो जाते हैं, क्योंकि विकास केंद्रों पर अपेक्षाकृत अधिक सुविधाएं होती हैं। किसी उद्यमी को यदि निवेश करना होता है तो वह विकास ध्रुव पर निवेश करना उचित समझता है, क्योंकि उसे वहां समूह का लाभ प्राप्त होता है। इसलिए विकास ध्रुव और विकास करता चला जाता है, जबकि अन्य प्रदेश विकास की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। हर्शमान के असंतुलित विकास सिद्धांत को यदि भारत की जाति आधारित व्यवस्था में रूपांतरित किया जाय तो कुछ जातियां विकास ध्रुव की तरह हैं, जहां शिक्षा, रोजगार, जीवन स्तर, स्वास्थ्य और खान-पान के स्तर पर विकास ध्रुव बनी हुई है, जिससे वे विकास स्तर पर अग्रसर होती जा रही हैं, जबकि कुछ जातियां शिक्षा, रोजगार, जीवन स्तर, स्वास्थ्य खान-पान स्तर पर बहुत निम्न हैं। परिणामस्वरूप विकास के दौड में पिछड़ रहीं है। शिक्षा और स्वास्थ्य किसी भी रोजगार के लिए आवश्यक तत्व होते हैं, इसलिए शिक्षा और स्वास्थ्य संपन्न जातियों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध हो जाते हैं, जिससे वे खान-पान और जीवन स्तर को और उच्च बना लेती हैं जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य में पिछड़ी जातियां रोजगार में पिछडने के साथ क्रय शक्ति घट जाती है। फलस्वरूप खान-पान और जीवन स्तर में भी निम्न हो जाती हैं और विकास की दौड में अत्यंत पीछे रह जाती हैं।

विकास ध्रुव के विषय में मिर्डाल महोदय ने भी अपने विचार व्यक्त किये हैं। उनके अनुसार विकास ध्रुव की वृद्धि पिछड़े क्षेत्रों की वृद्धि को दो रूपों में प्रभावित करती है। प्रथम– विस्तार प्रभाव जिसे ‘स्प्रेड इफेक्ट्स’ कहा जाता है। इसमें विकास ध्रुव के उत्पादों और आर्थिक क्रियाओं के प्रभाव से पिछड़ा क्षेत्र प्रभावित होने लगता है। पिछड़े क्षेत्रो में नवाचारों को अपनाया जाने लगता है, जिससे पिछड़े क्षेत्र का भी विकास होने लगता है। इसे पिछडी और अगड़ी जातियों के संदर्भ में देखा जा सकता है। संपन्न जातियों में अत्यधिक संपन्नता का केंद्रीकरण होने से वे कुछ निर्माण कार्य संपन्न कराती है, जिससे विपन्न जातियों को रोजगार प्राप्त होता है तथा संपन्न जातियों के संपर्क में आने और उनके जीवन स्तर को देखने से उनके अंदर शिक्षा और रोजगार की तरफ अग्रसर होने की इच्छा प्रबल होने लगती है। इससे उनका कुछ विकास होने लगता है जो अत्यधिक अप्रभावी विकास के शिकार होते हैं।

दूसरा, पश्चवाह प्रवाह, जिसे ‘बैकवाश इफंक्ट्स’ कहा जाता है। यह प्रभाव जब प्रभावी होता है तो विकास ध्रुव तेजी से आर्थिक विकास करते हैं। परिणामस्वरूप पिछड़े क्षेत्रों का संसाधन, तकनीकी, पूंजी एवं स्वस्थ व शिक्षित युवा वर्ग विकास ध्रुव की ओर पलायन कर जाते हैं, जिससे पिछड़े क्षेत्रों का विकास रूक जाता है। 

जातियों के संदर्भ में भी ऐसा ही देखने को मिलता है। संपन्न जातियां अत्यधिक संपन्न होने पर संपन्नताविहीन जातियों तथा उनके संसाधनों का अत्यधिक दोहन करने लगती हैं। शोषण अत्यधिक प्रभावोत्पादक हो जाता है। संपन्नता और विपन्नता की खाई अत्यधिक बढ जाती है, जिससे छुआछूत, भेदभाव, ऊंच-नीच अत्यधिक प्रभावी हो जाता है, जिससे उच्च जातियों का अधिक विकास हो जाता है, जबकि अन्य जातियां सामाजिक स्तर पर दुराग्रहों के कारण कई स्तरों पर पिछड़ जाती हैं।

बिहार में जातिवार जनगणना करते बिहार सरकार के कर्मी

उपर्युक्त प्रादेशिक विकास संबंधी विकास ध्रुव के विचार धाराओं को नकारते हुए आर. पी. मिश्रा ने भारत जैसे विकासशील देशों के लिए विकास ध्रुव के स्थान पर विकास नाभि शब्द को अधिक उपयुक्त माना। पाश्चात्य विद्वानों के विचारों के आधार पर विश्व में अमीर और गरीब मात्र दो वर्ग हैं। आर पी मिश्रा ने इसे नकार दिया और बताया कि भारत जैसे जातीय श्रेष्ठता का दंभ भरने वाले देश में मात्र दो वर्ग नहीं हो सकते। इसलिए विकास नाभि के चार पदानुक्रम बताए गए हैं–

  1. स्थानीय स्तर पर सेवा केन्द्र (शूद्र)
  2. उप-प्रादेशिक स्तर पर विकास बिंदु (वैश्य)
  3. प्रादेशिक स्तर पर विकास केन्द्र (क्षत्रिय)
  4. राष्ट्रीय स्तर पर विकास ध्रुव (ब्राह्मण)

किसी प्रदेश के संतुलित विकास हेतु किये गये प्रादेशिक नियोजन के लिए विकास ध्रुव सिद्धांत का ज्ञान अपरिहार्य है। इसके द्वारा बड़े नगरों के विकास को नियंत्रित तथा नियोजित किया जा सकेगा। साथ ही पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों का कृषि एवं ग्रामीण तथा कुटीर उद्योगों के विकास द्वारा विकास किया जा सकेगा। इसे आर.पी. मिश्र ने ‘विकेंद्रीकृत संकेंद्रण’ कहा। आज भारत में नगर एवं ग्राम्य नियोजन विभाग द्वारा इस प्रकार की नीतियां तैयार की जा रही हैं, जिससे नगरों के संतुलित विकास के लिए मास्टर प्लान तथा महानगर नियोजन तैयार किये जा रहे हैं। दूसरी तरफ ग्रामीण क्षेत्रों के विकास हेतु ग्राम्य कुटीर एवं घरेलू कृषि तथा डेयरी उद्योगों का विकास किया रहा है। इसमें बहुस्तरीय नियोजन विधि (जिला स्तर, ब्लाक स्तर, ग्रामसभा स्तर) द्वारा पंचायती राज के त्रिस्तरीय तंत्र से सूखाग्रस्त क्षेत्रों– जनजातीय क्षेत्रों, नदी बेसिन क्षेत्रों, महानगर क्षेत्रों, पर्वतीय क्षेत्रों तथा बाढ़ क्षेत्रों इत्यादि का विकास किया जा रहा है । इससे ग्राम-नगर के विकास के मध्य संतुलन स्थापित होगा।

यदि आज महानगर, नगर, जिला, ग्राम, सूखाग्रस्त क्षेत्रों, जनजातीय क्षेत्रों, नदी बेसिन क्षेत्रों, पर्वतीय क्षेत्रों तथा बाढ़ क्षेत्रों इत्यादि के संबंधित सर्वे किये जा रहे हैं, सर्वे से प्राप्त आकडों का विश्लेषण किया जा रहा है। तत्पश्चात क्षेत्र हेतु उचित योजनाएं बनायीं जा रहीं हैं। कुछ योजनाएं सफल हैं, कुछ आंशिक सफल तो कुछ बिल्कुल असफल। 

आज विश्व स्तर पर प्रादेशिक असंतुलन बढा है तो उसके पीछे विकास ध्रुव के आकार एवं उसकी संरचना जिम्मेदार है। उसी प्रकार भारत में जाति आधारित सामाजिक संरचना में असंतुलन, आर्थिक पिछड़ापन और बेरोजगारी का स्तर कहीं ज्यादा है तो कहीं कम है। लोगों का मानना है कि उसके लिए कुछ जातियों के अंदर संसाधन, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और जीवन के स्तर का ध्रुवीकरण बढा है। इसलिए देश में अलगाववाद को बढावा मिला है, जो राष्ट्रीय एकता में बाधक सिद्ध हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि देश में जातिवार जनगणना के जरिए जातियों के अंदर ध्रुवीकरण और पिछड़ापन का आकलन सही-सही किया जाय, जिससे जरूरतमंद को आवश्यक सहयोग प्रदान कर उसे विकास की मुख्यधारा में जोड़ा जा सके तथा साथ ही देश में अलगाववाद को बढ़ावा देने वाली शक्तियों का दमन कर राष्ट्रीय एकता को मजबूती प्रदान किया जा सके। 

निश्चय ही जातीय जनगणना के को लेकर कुछ चिंताएं व आशंकाएं हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि भारतीय समाज में जाति एक यथार्थ है। जाति के आधार पर ही जनता की सामाजिक स्थिति तय होती रही है। जाति के आधार पर ही लोगों का शोषण और सम्मान हुआ है। हालांकि हमारा संविधान किसी को जाति के आधार पर छोटा या बड़ा नहीं मानता, लेकिन जाति ने सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षणिक जीवन को प्रभावित अवश्य किया है। यदि जातिगत जनगणना से यथार्थ आंकड़े प्राप्त हो जाएं तो निश्चय ही समाज में जातियों के पिछड़ेपन का यथार्थ ज्ञान हो जाने से प्रत्येक जाति के लिए समुचित एवं आवश्यक कदम उठाकर उन्हें विकास के मुख्यधारा के साथ जोड़ा जा सकता है।

(संपादन : नवल / अनिल)


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लेखक के बारे में

अच्छेलाल प्रजापति

लेखक झारखंड के पलामू जिले के चैनपुर प्रखंड के राजकीयकृत +2 उच्च विद्यालय, हरिनामांड में भूगोल के शिक्षक हैं

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