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भाजपा ने ही नहीं, कम्युनिस्टों ने भी आमजनों को अंग्रेजी नहीं सीखने दी

कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व की कथनी-करनी भी वही है जो संघ परिवार के नेतृत्व की है – नेताओं के बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा और आम बच्चों के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में। पढ़ें, प्रो. कांचा आइलैया शेपर्ड का यह विश्लेषण

भाषा और ज्ञान के मामले में समानता को पोषित करने के लिए बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने की बात कह कर राहुल गांधी ने स्कूल शिक्षा प्रणाली के मुद्दे पर संघ-भाजपा के प्रभु वर्ग के साथ-साथ कम्युनिस्ट नेताओं के दोहरे मानदंडों को भी चुनौती दी है। सभी वर्गों के बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के मुद्दे पर कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व की कथनी और करनी वही रही है जो संघ परिवार के नेतृत्व की है – यानी नेताओं के बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा और आम बच्चों के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में।    

अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान, राजस्थान के अलवर में एक रैली को संबोधित करते हुए राहुल ने कहा, “भाजपा नेता नहीं चाहते कि स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाई जाए। लेकिन उनकी पार्टी के सभी नेताओं के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में जाते हैं। बात यह है कि वे नहीं चाहते की गरीब किसान और मजदूर का बेटा अंग्रेजी पढ़े, बड़े सपने देखे और खेत से बाहर निकल सके।” 

उन्होंने कहा कि आरएसएस-भाजपा के सभी नेता, जिनमें सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी में पढ़ाई के विरोध और हिंदी में पढ़ाई के समर्थन में झंडा उठाने वालों में स्वयं अमित शाह भी शामिल हैं, अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के बढ़िया स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भेजते हैं। संघ-भाजपा के नेताओं का ‘वन नेशन’ तब ‘वन’ नहीं रहता जब बात उनके अपने बच्चों का जीवन बनाम उत्पादक वर्गों के बच्चों के भविष्य और जीवन का हो। 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) एवं अन्य छोटे माओवादी / नक्सल समूहों के नेताओं ने कभी भी सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक क्रांति की संभावित वाहक – सभी के लिए अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा – पर जोर नहीं दिया। कम से कम उस तरह से तो नहीं ही जिस तरह राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान किया। यह तब जबकि उन्हें अच्छी तरह से मालूम है की शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है और बुर्जुआ से लेकर सर्वहारा तक सभी के लिए एक भाषा में एक-सी शिक्षा लागू करने का संपूर्ण अधिकार राज्य सरकारों को प्राप्त है।   

दोहरी शिक्षा प्रणाली

भारत के अधिकांश कम्युनिस्ट नेता ऊंची जातियों के और निम्न बुर्जुआ वर्ग से हैं। वे अपने बच्चों को उनके राज्यों के बेहतर से बेहतर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों और राष्ट्रीय संस्थानों में शिक्षा दिलवाते हैं और अन्नदाताओं के बच्चों को क्षेत्रीय भाषाओं में निम्न स्तरीय पाठ्यक्रम पढ़ने के लिए छोड़ देते हैं।

केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों, जहां वे लंबे समय तक सत्ता में रहे हैं (केरल में अब भी हैं) वहां भी उन्होंने निजी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों और सरकारी बांग्ला / मलयालम स्कूलों की दोहरी शिक्षा प्रणाली को पनपने दिया। उनकी केंद्रीय समितियों और पोलित ब्यूरों ने कभी भी भारत में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा की भूमिका पर गंभीरता से विचार नहीं किया। अंग्रेजी दो सौ सालों से अस्तित्व में है। इसके बावजूद भी उसे औपनिवेशिक बताना कहां तक उचित है? 

अंग्रेजी से बनेगी सफलता की राह

वामपंथी नेता जानते हैं कि भारत के सभी प्रमुख संस्थान अंग्रेजी में काम करते हैं और अगर ग्रामीण आबादी अंग्रेजी नहीं सीखेगी तो वह लोकतांत्रिक भारत में भी गुलाम बने रहेगी। 

लंबे समय तक उन्होंने उसी तरह की अंध मातृभाषा प्रेम की वकालत की जैसी कि अब आरएसएस-भाजपा के लोग कर रहे हैं। कम्युनिस्टों की अंतर्राष्ट्रीय गोलबंदी और ‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ’ का नारा बुलंद करने वाले कम्युनिस्टों ने भारत के श्रमजीवी वर्ग को क्षेत्रीय भाषाओँ में शिक्षा प्राप्त करने पर मजबूर कर उनके लिए समुद्रपारीय संवाद के रास्ते बंद कर दिए।

दुनिया भर के श्रमजीवी वर्ग अगर एक दूसरे से अंग्रेजी में संवाद नहीं करेंगे तो आखिर किस भाषा में करेंगे? 

अंग्रेजी विदेशी भाषा नहीं है 

आरएसएस-भाजपा नेता तो केवल वेद, रामायण, महाभारत और मनुस्मृतियों जैसी भारतीय कृतियों को या तो संस्कृत में अथवा क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ते हैं। लेकिन कम्युनिस्ट नेता तो मार्क्स, लेनिन और माओ और चंद भारतीय पुस्तकों को अंग्रेजी में पढ़ते हैं। लेकिन उन्हें कभी यह ख्याल नहीं आया कि एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अंग्रेजी को श्रमजीवी वर्ग के बच्चों तक भी पहुंचना चाहिए। 

स्वाधीनता के 75 साल और भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा के पदार्पण के लगभग 100 साल बाद भी, श्रमजीवी वर्ग के लिए अंग्रेजी विदेशी भाषा बनी हुई है। परन्तु शीर्ष कम्युनिस्ट नेताओं के लिए वह उनके घर की भाषा है। 

यह धारणा कि अंग्रेजी औपनिवेशिक भाषा है, सभी राजनेताओं के लिए एक उपयोगी उपकरण बन गयी है। इसके ज़रिये वे श्रमिक वर्ग को अपन अंधभक्त बनाये रखते हैं – ऐसे भक्त, जो उनसे कभी कोई प्रश्न नहीं पूछते। आरएसएस-भाजपा के अनेक शीर्ष नेताओं जैसे मोहन भागवत, नरेंद्र मोदी और अमित शाह को अच्छी अंग्रेजी बोलना और लिखना नहीं आता। लेकिन कम्युनिस्ट नेताओं के मामले में स्थिति दूसरी है। उनकी बैठकों में केवल अंग्रेजी ही बोली जाती है।  

राहुल गांधी एक ऐसे परिवार से हैं, जिसकी तीन पीढियां प्रधानमंत्री रहीं हैं। उनकी मां सोनिया गांधी जितने वर्षों तक कांग्रेस अध्यक्ष रह चुकी हैं, उतने वर्षों तक कोई दूसरा इस पद पर नहीं रहा। लेकिन अन्य नेताओं के विपरीत, अपनी पदयात्रा के दौरान उन्हें उत्तर और दक्षिण भारत और अंग्रेजी माध्यम व क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षित युवाओं के बीच अंतर समझ में आया। उन्हें उनके सपनों में अंतर समझ में आया। उन्हें पता है कि आज के विकसित, पूंजीवादी, वैश्वीकृत और उदारीकृत विश्व में अंग्रेजी में शिक्षित नौजवानों को किस तरह के मौके उपलब्ध होते हैं। 

यही कारण है कि मोदी-शाह के ‘एक देश, एक भाषा’ के नारे के जवाब में राहुल ने कहा कि हिंदी के सहारे युवा बड़े सपने नहीं देख सकते, वे खेतों में पसीना बहाने से आगे नहीं बढ़ सकते, वे अमरीका और यूरोप से नहीं जुड़ सकते। क्या यह सही नहीं है?  

संचार का माध्यम 

भला कम्युनिस्ट यह मूलभूत सच क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि अंग्रेजी के बिना वे चीन और रूस तो छोड़िये, अफ़्रीकी महाद्वीप, जिसके अधिकांश देश हम से भी काफी बाद औपनिवेशिक शासन के मुक्त हुए हैं, से भी संवाद नहीं कर सकते। आखिर दक्षिण अफ्रीका की राष्ट्रभाषा क्या है? अंग्रेजी ही ना। कम्युनिस्टों की द्वंद्वात्मक सोच इस तथ्य को कैसे नज़रअंदाज़ कर रही है? 

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन और केरल के मुख्यमंत्री पिनयारी विजयन को चाहिए कि वे अपने राज्यों में तेलंगाना और आंध्रप्रदेश की तर्ज पर सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा सुनिश्चित करवाएं। बेशक इसके साथ ही बच्चों को एक भाषा के रूप में तमिल या मलयालम भी पढ़ाई जा सकती है। 

अगर अगले चुनाव में कर्नाटक में कांग्रेस सत्ता में आती है तो वहां की सरकार को राहुल गांधी की सलाह पर चलना होगा। अगर ऐसा होता है तो पूरे दक्षिण भारत में सरकारी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हो जाएगा। 

तमिल दलित, तमिल राष्ट्रवाद के मामले में कुछ ज्यादा ही भावुक हैं। जबकि तमिल ब्राह्मण और चेट्टीयार काफी पहले से अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा को पूरी तरह अपना चुके हैं। गीता रामास्वामी अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘लैंड, गन्स, कास्ट एंड वीमेन’ में बतातीं हैं कि रुढ़िवादी ब्राह्मण परिवार भी अपनी लड़कियों को कैथोलिक ईसाई शैक्षणिक संस्थाओं में पढने भेजा करते थे। वे यह भी बतातीं हैं कि बच्चों और उनके अभिवावकों को पुरातन ब्राह्मण पारिवारिक संस्कृति और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की मुक्तिकामी संस्कृति के बीच की सांस्कृतिक खाई को पार करने के लिए किस तरह के मानसिक कष्ट से गुजरना पड़ता था।   

सफलता की राह

अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा ने अति परंपरावादी ब्राह्मणों को भी वैश्विक नागरिक और यहां तक कि शासक तक बना दिया है। कमला हैरिस और ऋषि सुनक इस कायापलट के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। अगर अन्य जातियों को भी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी गई होती तो उनसे भी ऐसे लोग निकलते जो अन्य देशों में शासक बनते।  

अमरीका में रह रहे भारत के ब्राह्मण प्रवासी अपने सपने साकार कर रहे हैं। अमरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस, गूगल के सीईओ सुंदर पिचई और पेप्सी की पूर्व सीईओ इंदिरा नूई, ऐसे तीन तमिल ब्राह्मण हैं जिन्होनें अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलते वह सब पाया जो पाया जा सकता है।    

तमिलनाडु और केरल के दलितों को भी मूर्खों की तरह व्यवहार करना छोड़ना चाहिए। वर्तमान में इन दोनों राज्यों में सरकारी स्कूल कक्षा 1 से लेकर 10 तक केवल एक विषय अंग्रेजी में पढ़ाते हैं। होना तो यह चाहिए कि केवल एक विषय क्षेत्रीय भाषा का हो और अन्य सभी विषय अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाये जायें। 

क्षेत्रीय दलों के नेता, पाखंडी बुद्धिजीवियों और मीडिया के धन्नासेठों से डरते हैं जो अपने बच्चों को तो अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों में पढ़ाते हैं, लेकिन दूसरों को तमिल, मलयालम या कन्नड़ उप-राष्ट्रवाद पर गर्व करने की सीख देते हैं। दलित / आदिवासी बुद्धिजीवियों को पूरी ताकत से इस बुद्धिजीवी वर्ग का विरोध करना चाहिए और अंग्रेजी शिक्षा को सभी परिवारों और समुदायों तक पहुंचाना चाहिए। चिरकाल से चली आ रही गुलामी से उनकी मुक्त का यही एकमात्र तरीका है।  

(यह आलेख गत 27 दिसंबर, 2022 को दी फेडरल द्वारा प्रकाशित है। यहां लेखक की अनुमति से हिंदी में अनूदित व प्रकाशित)

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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