h n

हरियाणवी समाज के प्रदूषक लोक कवि लखमी चंद

लखमी चंद की रागनियां पूरी तरह ब्राह्मणवादी और सामंतवादी आचार-विचारों और मूल्यों की स्थापना करती हैं। वह वेद-शास्त्रों, पुराणों और खासकर मनुस्मृति के अनुसार लोक जीवन को चलाना चाहते थे। बता रहे हैं कंवल भारती

हरियाणा के लोक-जीवन में जातीय भेदभाव सबसे अधिक है। खासकर, दलितों के प्रति घृणा और हिंसा और, स्त्रियों की गुलामी के बंधन सबसे अधिक हैं। लड़कियों की तुलना में लड़कों की संख्या सबसे अधिक है, ब्राह्मणवादी और पितृसत्तात्मक वर्चस्व सबसे अधिक है, तो इन सबका एक बड़ा कारण हरियाणा के लोक कवि और उनकी रागनियां भी हैं। हरियाणा के सारे लोक कवियों ने अपनी रागनियों के माध्यम से इसी ब्राह्मणवाद और पितृसत्तात्मक सामंतवाद में लोक के विश्वास को मजबूत करने का काम किया है। ऐसे ही लोक कवियों और गायकों में बीसवीं सदी के पहले दशक में सोनीपत के एक गौड़ ब्राह्मण परिवार में जन्मे पंडित लखमी चंद हैं, जिनके बारे में एक अन्य लोक कवि जगदीश चंद्र का मत है कि वह मनुष्य नहीं थे, गंधर्व लोक से आए थे।

लखमी चंद 1901 में पैदा हुए और स्वतंत्रता मिलने से दो साल पहले 1945 में ही संसार छोड़ गए थे। वह लोक अंचलों में सांग, नौटंकी और नाच का दौर था। लखमी चंद सांगी थे, सांग लिखते भी थे और मंच पर अभिनय भी करते थे। उनके रचना-कर्म के बारे में उनकी ग्रंथावली के संपादक पूर्ण चंद शर्मा लिखते हैं–

“पंडित लखमी चंद ने कबीर की तरह ‘मसि कागद छूयो नहीं, कलम गहि नहीं हाथ’, फिर भी अपने सांगों में वेद, पुराण, श्रुति, स्मृति, उपनिषद, गीता, रामायण और महाभारत के प्रसंगों को प्रशंसनीय रूप में प्रस्तुत किया है। शास्त्रीय ज्ञान को लोकभाषा में घोलकर जनमानस को ऐसा अनोखा आसव पिलाया कि आस्वादन करने वाले लोग धन्य हो गए। ऐसा (ज्ञान) काव्य में वेद-पुराणों के प्रसंग-हार में मोती-माणिक्य की भांति अनूस्यूत है। उन्होंने अपने काव्य में यथाशक्य वैदिक संस्कृति का प्रतिपादन किया है। उनकी यह दृढ़ धारणा रही कि वेद-निहित मार्ग पर चलकर ही सांसारिक दु:खों से छुटकारा पाया जा सकता है। यदि जीवन की गाड़ी पाप-पंक में धंस जाए, तो वह धर्म के धक्के से ही पार निकल सकती है। धर्म हमारे शास्त्रों का सार तत्व है और यही जीवन के असाध्य रोगों की अचूक दवा है।”[1]

लखमी चंद ने उन्नीस सांग लिखे– नौटंकी, ज्यानी चोर, शाही लकड़हारा, हूर मेनका, रघुबीर सिंह-धर्मकौर, राजा भोज-सरणदे, चंद्र किरण, हीर-रांझा, चाप सिंह, चीर पर्व, विराट पर्व, नल-दमयंती, पूरणमल, सत्यवान-सावित्री, राजा हरिश्चन्द्र, सेठ तारा चंद, पद्मावत, भूप पुरंजन, और मीराबाई। इन सांगों के अलावा उन्होंने 111 फुटकर रागनियां भी लिखीं, जो ‘काव्य विविधा’ के अंतर्गत संकलित हैं। हरियाणा क्षेत्र के अंचलों में आज भी, रागनी-गायकों द्वारा सर्वाधिक संख्या में लखमी चंद की लिखी रागनियां ही गाई जाती हैं, हालांकि, अन्य लोककवियों– मांगे राम, पीरू, गौरीशंकर, हरेराम बैसला, लड्डन सिंह, छज्जू लाल सिलाणा, दयाचंद मायना, रामकिशन व्यास, सरूप चंद, हरदेवा आदि की रागनियां भी लगभग उसी ढर्रे की हैं।

लखमी चंद ने जिन पौराणिक और लोक-कथाओं पर सांग लिखे, उनमें उन्होंने वास्तविक कहानी को धर्म और उसकी रूढ़ियों से जोड़कर कई कल्पनाएं ऐसे कीं, जिनका मूल से कोई संबंध नहीं था। उदाहरण के लिए, उन्होंने ‘मीराबाई’ सांग में जोड़ा कि मीरा की मां मीरा को क्या-क्या पढ़ने को कहती है–

विष्णु सहस्र नाम पढ़ो और हनुमान चालीसा।
कंवल नेत्र और दुर्गे पढ़, सत्यनारायण पी घी सा।
शिव रुद्री और भागवत गीता रामायण का किस्सा।
अमरकोष और मनुस्मृति ये पुस्तकें हैं सीसा।[2]

इसी तरह ‘सेठ ताराचंद’ सांग में जब सेठ कंगाल हो जाता है, तो वहां लखमी चंद की कल्पना से एक साधु आता है और कहता है कि धर्म के रास्ते पर चलो, तो तुम्हारे फिर अच्छे दिन आ जायेंगे। वह धर्म क्या है, इसे लखमी चंद इस तरह बताते हैं–

गऊ ब्राह्मण साधु की सेवा अतिथि टहल बजाणे से।
तीन जनम के पाप कटेंगे ईश्वर के गुण गाणे से।[3]

इसी कोरे अंधविश्वास को लखमी चंद ने सांग के माध्यम से जनमानस में भरा। लेकिन वह यह कभी नहीं देख पाए कि दिन-रात ईश्वर और सभी देवी-देवताओं का जाप करते रहने से भी दलित जातियों के कभी अच्छे दिन नहीं आए।

‘सेठ ताराचंद’ में दो चरित्र हैं, एक सेठ हरिराम और दूसरा सेठ तारा चंद। ताराचंद धर्म-कर्म करता है, गऊ-ब्राह्मणों की सेवा करता है, उन्हें दान देता है, जिससे उसकी शहर भर में ख्याति हो जाती है। इस ख्याति से जलकर सेठ हरिराम दिनभर उसे कंगाल करने के लिए सोचता रहता है। एक दिन उसकी पत्नी (सेठानी) उसकी परेशानी का कारण पूछती है, तो वह बताता है कि ताराचंद का सब जगह नाम है, पर उसे कोई नहीं पूछता। इस पर सेठानी कहती है–

पुन्न धर्म खर्चे खाए बिन बण कै पशु कमाया।
तेरा नाम कड़े तै हो दुनिया में, तू निंदक बण्या पराय।
अग्निहोत्र पांच महायज्ञ गीता नहीं बिचारी।
शूद्रों वाले काम करै, शुभ कर्म कै ठोकर मारी।[4]

यहां ‘शूद्रों वाले कर्म’ गौरतलब है। कवि बताना चाहता है कि शूद्रों के कर्म अशुभ होते हैं। सेठ हरिराम अग्निहोत्र, यज्ञ नहीं करता था, न गीता पढ़ता था, इसलिए वह शूद्रों वाला कर्म करता था। इस प्रकार लखमी चंद ने जनता को खुला संदेश दिया कि अगर यज्ञ नहीं करोगे, गीता नहीं पढ़ोगे, तो शूद्र कहे जाओगे। इस संदेश से लखमी चंद यह भी बताते हैं कि शूद्रों के आचार-विचार हिंदुओं से अलग होते हैं।

पंडित लखमीचन्द ग्रंथावली का मुख पृष्ठ

सेठ ताराचंद कंगाल कैसे हुआ? इसका कारण भी कवि ने बताया है कि सेठ ताराचंद ने सेठ हरिराम के छल में आकर धर्म-कर्म करना और ब्राह्मणों को दान देना बंद कर दिया, जिसके दुष्परिणाम से वह इतना कंगाल हो गया कि उसके घर रोटी बनाने के लिए आटा भी न रहा। क्या यह अंधविश्वास नहीं है कि कोई दान देना बंद कर दे, और इस कदर कंगाल हो जाए? क्या यह तर्क से सही ठहराया जा सकता है कि दान नहीं करने से कोई कंगाल होता है? पर, कवि को तो अंधविश्वास फैलाना था, लोगों के दिलों में गऊ-ब्राह्मणों और वेद-शास्त्रों के लिए अंधी भक्ति पैदा करनी थी। ताराचंद की गरीबी यहां तक आ जाती है कि वह हापुड़ के सेठ मंशाराम के यहां दो सौ रुपए में अपना बेटा गिरवी रखने जाता है, और जब वह रुपए लेकर लौट रहा होता है, तो रास्ते में एक नदी में नहाने के लिए उतरता है, और इसी बीच एक चोर उसके वह दो सौ रुपए भी चुरा कर चला जाता है। घर लौटकर ताराचंद सारी हकीकत सेठानी को बताता है, तो सेठानी भी सेठ को गऊ-ब्राह्मण की सेवा करने का स्मरण कराती है। यथा–

उन्नीस कर्म मनुष मात्र के धर्म-शास्त्र में सारे।
चारों वर्ण के मनुस्मृति में भेद लिखे न्यारे-न्यारे।
वेद पढ़े और यज्ञ करै दान पुन्न में नीत रहै।
बुद्धि से रक्षा करै प्रजा की विषयों में मोहजीत रहै।
गऊ ब्राह्मण साधू की सेवा करै रात दिन ले शरणा।
दान पुन्न में नीत रहै पड़े नहीं कोए भी दुख भरणा।
ब्राह्मण क्षत्री वैश्य के घर जै शूद्र आज्या टहल करण।
मनुस्मृति में लिख्या है सेवा करणी एक परण।
अपने अपने कर्मा पै जो जमें रहैं ये चारों वरण।
आकाश आदि पवन अगन जल अन्न की वृद्धि करै धरण।
कहै लखमी चंद हरि भक्ति का प्रेम नेम से गुण गा रे।[5]

यहां लखमी चंद वर्णव्यवस्था के अनुसार चलने की शिक्षा दे रहे हैं, जिसके अनुसार शूद्र का काम केवल सेवा-टहल करना है। वह यह भी बता रहे हैं कि वर्णव्यवस्था के अनुसार जब सभी वर्ण अपना-अपना कर्म करते हैं, तो उससे अन्न की वृद्धि होती है।

आगे की कथा इस तरह है कि सेठ ताराचंद, जो प्रतिदिन स्नान करने जमना नदी पर जाया करता था, एक दिन जमना के किनारे एक साधु को देखता है। अगले दिन वह साधु के पास भोजन लेकर जाता है। साधु भोजन ग्रहण करने से पहले सेठ से पूछता है–

कौण गाम शुभ नाम आप सो जी कौण वर्ण के।
भोजन द्विज जाति के पाते, फेर सही ईश्वर के गुण गाते।[6]

यहां लखमी चंद ने छुआछूत का समर्थन करते हुए, हरियाणा की लोक संस्कृति में सामाजिक अंधविश्वासों और धार्मिक रूढ़ियों को कायम रखने पर जोर दिया है। इसके अतिरिक्त जादू-टोना, जंत्र-मंत्र, शकुन-अपशकुन, आदि अंधविश्वासों को लेकर भी उन्होंने अपने सांगों का ताना-बाना बुना है। उनकी रागनियों में जब कोई व्यक्ति किसी काम से बाहर निकले, तो उस समय किसी का छींकना, विधवा स्त्री का केश बिखेरे मिलना, कुत्ते का कान मारना या रोना, बाईं ओर कौए का बोलना, खाली घड़ा मिलना आदि अपशकुनों की भरमार है, जिनके घटने से, वह बताते हैं कि मनुष्य के साथ अशुभ होता है। उदाहरण के लिए ‘राजा हरिश्चंद्र’ सांग में जब रोहतास बाग से फूल लेने के लिए घर से निकलता है, तो लखमी चंद ने इन अपशकुनों का वर्णन किया है–

होग्ये सोण कसोण कंवर जब घर से बाहर चल्या।
जब करल्यी चलने की त्यारी, सन्मुख छींके कन्या कंवारी।
केश खिन्डाए पाई विधवा नारी।
मुस्सा लारया बिलाई का दा, कान कतरण की करी थी सला।
जब लीन्हीं चलने की ठान, कुत्ता रोया मार कै कान।
बामैं कागा बोल्या आन।
कोतरी सन्मुख करै थी जवाब, ना कर्मा का लेख टला।[7]

डॉ. पूर्ण चंद शर्मा लिखते हैं कि लखमी चंद ने अपने कथानकों में जो रूढ़ियां प्रयोग की हैं, वे “लोक जीवन को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए उत्प्रेरित करती हैं।” वह इन रूढ़ियों को लोक जीवन में भक्ति-भाव को पुष्ट करने वाली अचूक औषधि मानते हैं।[8]

रूढियां ही नहीं, लखमी चंद ने पौराणिक गपोड़ेबाजी में भी लोकमानस का विश्वास जगाया है। ‘शाही लकड़हारे’ सांग में भाग्य में विश्वास पैदा करने के लिए इस कथा का निरूपण किया गया है कि एक राजा की कई बेटियां थीं, जिनसे राजा ने पूछा कि वे किन के भाग्य का खाती हैं। कई बेटियों ने कहा कि वे पिता के भाग्य का ही खाती हैं, पर एक बेटी ने कहा कि वह तो अपने भाग्य का खाती है। राजा ने गुस्से में भरकर उसकी शादी एक लुंज-पुंज पुरुष से कर दी। वह बेटी उसी को अपना भाग्य मानकर पतिव्रता स्त्री के रूप में उस लुंज-पुंज पति की सेवा करने लगी। वह एक टोकरे में पति को रखकर उसे जलसा दिखाने ले गई। मार्ग में उस टोकरे की रगड़ से एक ब्राह्मण ऋषि को चोट लग गई। उस ऋषि ने उसे विधवा होने का शाप दे दिया। वह भी पतिव्रता थी, उसके सत से ग्यारह दिन तक सूरज नहीं निकला। अंधेरा छ गया। विष्णु ने ब्रह्मा को बुलाकर कहा, क्या मामला है, देखो। तब ब्रह्मा ने जाकर पतिव्रता से कहा कि कम से कम सूरज तो निकलने दे। पतिव्रता बोली, सूरज निकलेगा, तो मेरा पति मर जाएगा। जब तक शाप वापस नहीं होगा, सूरज भी नहीं निकलेगा। पर ब्राह्मण का वचन खाली नहीं जाता। ब्रह्मा ने शाप को टाल दिया, उसके पति को मूर्छा दे दी। यह लखमी चंद के शब्दों में देखिए–

मंडप ऋषि चढ़े सूली पै रगड़ लगी काया दुख पाई।
ऋषि नै श्राप दिया रांड होण का जब पतिव्रता घबराई।
पतिव्रता के सत के कारण रहा ग्यारह रोज अंधेरा।
विष्णु कहण लगे ब्रह्मा से सूर्य नजर नहीं आता।
ब्रह्मा जाकै कहण लगे तू दिन को लिकड़ण दे माता।
जै मैं दिन को लिकड़ण देती मेरा पति जीवता ना पाता।
ग़ऊ ब्राह्मण साधु का वाक्य कभी नहीं खाली जाता।
श्राप टाल दिया मूर्छा दे दी, किया स्वर्ग केसा चेहरा।
लखमी चंद कहैं दमयन्ती के सत से बण में नीच पराधी आण मरया।
इन्द्राणी के सत से राजा नहुष स्वर्ग से आण गिरया।[9]

सांग ‘चीर पर्व’ में लखमी चंद ने रजस्वला स्त्री के दर्शन को भी धर्म को क्षीण करने वाला माना है। द्रौपदी दुशासन से कहती है–

जो रजस्वला स्त्री के दर्शन पाते।
उनके क्रिया कर्म सब धर्म नष्ट हो जाते।[10]

सांग ‘पूरणमल’ में लखमी चंद पतिव्रता स्त्री के काम गिनवाते हैं–

पतिव्रता का काम रात दिन करै पति की सेवा।
ईश्वर के तुल समझ पति नै, पार तार दे खेवा।[11]

इसी सांग में वह आगे कलयुग के लक्षण बतलाते हैं–

तेरा क्यूंकर खोट बताऊंगा, मनै खोटी करी कमाई री मौसी।
उलटे लक्षण कलूकाल के, न्यूं ऋषियों ने बतलाई री मौसी।
ब्राह्मण क्षत्री कर्म छोड़ दे, शूद्र सेवा शर्म छोड़ दे।
पतिव्रता भी धर्म छोड़ दे, झूठी करेंगे बड़ाई री मौसी।
गऊ माता मर्याद छोड़ दे, काटे गला कसाई री मौसी।
दाता करना दान छोड़ दे, विप्र वेद सम्मान छोड़ दे।[12]

कलयुग का समय भारत में मुसलमानों के आने के बाद से शुरू होता है। इससे पहले पूरी तरह देश भर में हिंदू राजतंत्र कायम थे, और शूद्र सख्ती से गुलाम बने हुए थे। लेकिन मुसलमानों के साथ आने वाले उनके इस्लाम ने समानता के नए ज्ञान की खिड़की खोली, जिससे शूद्र जातियां सबसे अधिक प्रभावित हुईं, और वे हिंदूधर्म की गुलामी से निकलकर इस्लाम की छाया में आए गईं। इसके बाद अंग्रेजों के आने से कलयुग नए ज्ञान-विज्ञान का भी महान युग बन गया। इस महान कलयुग के खिलाफ सबसे बड़ा रोष गोस्वामी तुलसीदास की ‘कवितावली’ में मिलता है, जो उनमें शूद्रों को वर्णव्यवस्था के बंधनों से मुक्त हुआ देखकर फूटा था।

‘सत्यवान सावित्री’ सांग में राजा अश्वपति अपनी पुत्री सावित्री से पूछता है कि उसे कैसा वर चाहिए? लखमी चंद ने, सावित्री के मुख से, उसकी पसंद का वर इस तरह बताया है–

वेद रीत और हवन कुंड एक श्रेष्ठ सा घर चाहिए सै।
इन्द्रजीत पराक्रमी पति मेरे को वर चाहिए सै।
ब्रह्मचर्य पै कायम रहै, दान करै कुछ जाति भी हो।
गऊ ब्राह्मण का दास रहै, उसकी शुद्धि मति भी हो।[13]

इसी सांग में आगे लखमी चंद राजा अश्वपति के मुख से कहलवाते हैं कि घर में कन्या को कुंवारी रखने से, अर्थात उसका विवाह न करने से, उस घर में पापों का उदय होने लगता है। ऋतु काल में जो पुरुष स्त्री के पास नहीं जाता है, उसे ब्रह्म-हत्या का दोष लगता है। यथा–

जवान अवस्था देख कै बोल्या खुद बेटी तै बाप।
हमने ब्राह्मणों से वचन सुने हैं वेद शास्त्र के।
जड़े कवारी जवान रहै घर पै, उड़े पाप उदय हो घर कै।
तेरे कवारी रहने तै दिन दिन चढ़े श्राप।
ऋतु काल में जो नर त्रिया के पास नहीं जाते।
ब्रह्म-हत्या का दोष लगै फल अपनी करणी का पाते।
अपने हाथां धरै शीश पै तीन जनम का पाप।[14]

सांग ‘राजा हरिश्चंद्र’ ब्राह्मणवाद, जातिवाद और दासप्रथा के समर्थन की कहानी है। अवधपुरी के राजा हरिश्चंद्र के सत्य की परीक्षा लेने के लिए ऋषि विश्वामित्र ब्राह्मण वेश में राजा से उसका राजपाट और सौ स्वर्ण मुद्राएं दान में मांग लेते हैं। राजपाट देने के बाद, सौ स्वर्ण मुद्राएं चुकाने के लिए राजा अपनी रानी मदनावत और पुत्र रोहतास को लेकर काशी नगरी के बाज़ार में, जहां दास-दासियां बेचीं और खरीदी जाती थीं, अपने आप को बेचने के लिए पहुंच जाते हैं। यह कहानी एक ओर भारत में दास-प्रथा के अस्तित्व को प्रमाणित करती है, तो दूसरी ओर हिंदुओं के क्षत्रिय राजे ब्राह्मणों के किस कदर गुलाम थे, यह भी बताती है। काशी के दास बाज़ार में रानी और रोहतास को पचास स्वर्ण मुद्राओं में रामलाल ब्राह्मण खरीद लेता है, और पचास स्वर्ण मुद्राओं में राजा हरिश्चन्द्र को कालिया भंगी खरीद लेता है। हरिश्चंद्र कालिया को अपना नाम हरिया बताता है। कालिया हरिया को वरणा नदी से पानी लाकर सूअरों को पिलाने का काम सौंपता है। घड़े से पानी ढोते हुए उसे सत्ताईस दिन हो गए, और सत्ताईस दिन से उसने कुछ भी खाया-पिया नहीं, क्योंकि भंगी के घर खाकर वह धर्मभ्रष्ट होना नहीं चाहता था, उसे भूख से मरना स्वीकार था। लेकिन अब उसमें पानी से भरे घड़े को उठाकर सिर पर रखने की ताकत नहीं थी। इसलिए वह घाट पर घड़ा उठाने के लिए किसी के आने का इंतज़ार कर रहा था। उसी समय नदी पर रामलाल ब्राह्मण भी मदनावत को पानी भरकर लाने ले लिए नदी पर भेजता है। नदी पर दोनों पति-पत्नी का सामना होता है। हरिया उसे घड़ा उठाने में मदद करने को कहता है। लेकिन अब उसकी पत्नी के सामने उसका पति नहीं, बल्कि हरिया भंगी था। लखमी चंद उससे कहलवाते हैं–

तेनै जाति धर्म सब खो लिया रह कै भंगी के घरा।[15]
तेरे घड़े को हाथ लगाद्यूं धर्म बिगड़ ज्यागा मेरा।
तू भंगी कै नीर भरै, मेरा ब्राह्मण के घर डेरा।
लत्ते कपड़े ना लाए जां तनै अन्न भंगी का खाया।
एक जगह रहै राम रटे, नै यो किसनै काम बताया?[16]

यहां रानी को ब्राह्मण की नौकरानी होने पर ग्लानि नहीं है, बल्कि गर्व है, लेकिन हरिश्चंद्र के लिए भंगी के मन में घृणा है, और भंगी के घर के अन्न से भी वह छुआछूत करता है, जबकि दोनों ही दास-कर्म करते हैं। इस तरह की कहानियां जब जन-मानस में सांग और रागनियों के द्वारा स्थापित की जाएंगी, तो क्या दलितों के प्रति छुआछूत की भावना खत्म हो सकेगी?

लेकिन लखमी चंद ब्राह्मणवाद और अस्पृश्यता को खत्म करना ही नहीं चाहते थे, बल्कि और भी मजबूत करना चाहते थे। वह एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे, जिसमें लोग गऊ-ब्राह्मणों की भक्ति करने वाले और वेदशास्त्रों तथा मनुस्मृति के नियमों का पालन करने वाले हों, स्त्रियां पतिव्रता और पति को ईश्वर मानकर उनकी पूजा करने वाली हों, और शूद्र लोग द्विज जातियों की सेवा करने वाले हों। आइए, ‘काव्य-विविधा’ के अंतर्गत संकलित उनकी कुछ रचनाओं पर नजर डालते हैं।

लखमी चंद को जो समाज चाहिए, वह इस तरह के विचारों वाला हो–

गुण कर्म की बात हौण नै, सत्सगियों का साथ होण नै।
पुन्न धर्म खैरात होण नै, साध संत की फेरी चाहिए।
साधु चाहिए सै ज्ञान करण नै, गऊ माता सन्मान चाहिए।
फिर विप्र जिमाकै दान करण नै, धन-माया की ढेरी चाहिए।[17]

गऊ और ब्राह्मण की बढ़ाई में तो लखमी चंद ने कलम तोड़ दी है। वह कहते हैं कि आज दुनिया इसीलिए परेशान है, क्योंकि लोग गऊ-ब्राह्मणों की सेवा करना भूल गए हैं। यथा–

धर्म सनातन भूल गर फिरै दुनिया मारी-मारी।
गऊ ब्राह्मण सिद्ध तीन वर्ण से पूजे जाया करते।[18]

वह गऊ माता की सेवा करने का आह्वान करते हुए बताते हैं कि चारों वेद गाय की बड़ाई करते हैं। उसके शरीर में तैतीस करोड़ देवता और हृदय में सात समुद्र वास करते हैं। उसकी पीठ में विश्वकर्मा और पूडया में लक्ष्मी का वास है, उसके चारों थन धर्म के खंबे हैं, उसकी नाभि के पास पृथ्वी का वास है, उसकी नाक में गणेश, और मस्तक में शिव वास करते हैं, कानों में अश्विनी कुमार, सींगों में धर्मराज, आंखों में चांद-सूरज, कंधे में सरस्वती और टांट में ब्रह्मा का वास है, पैरों में भैरो और मरीचि तथा पूंछ में शेषनाग वास करते हैं। यथा–

गऊ माता की सेवा करियो भारत के नर नारी।
चारों वेद बड़ाई करते ऋषि मुनि ब्रह्मचारी।
तैतीस करोड़ देवता सारे गऊ माता में रहते।
गऊ माता के हृदय के में सात समुद्र रहते।
पीठ में वासा विश्वकर्मा का पेट में संत कवारा।
पूडयाम में बासा लक्ष्मी जी का भेद बता दयूं सारा।
चारों थण धर्म के खम्बे बहती अमृत धारा।
अग्नि देवता करै ताड़ना, गऊ खाती है चारा।
नाभि धोरे बसै पृथ्वी, जाने दुनिया सारी।
गणेश नाक में शिव शंकर मस्तक में बास करै।
अश्विनी कुमार रहैं काना में सुनने को ख्यास करै।
धर्मराज सींगों में रहता, जो दुख का त्रास करै।
चांद सूरज दो रहैं सामने आंख्य में प्रकाश करै।
भैरूं और मरीचि रहैं अगले पाया की हलचल में।
कान्धै सरस्वती कंठ में विष्णु राहू केतु गल में।
टांट में बासा ब्रह्मा का जो सबसे भारी बल में।
पूंछ में बासा शेषनाग का आठ वसु फेरैं सैं।[19]

यही नहीं, लखमी चंद अपनी कई रागनियों में ब्राह्मण की महिमा का बखान करते हुए यहां तक कहते हैं कि ब्राह्मण का दर्जा न सिर्फ विष्णु से भी बड़ा है, बल्कि खुद ईश्वर ने ब्राह्मण को अपने से भी बड़ा बताया है। उनके अनुसार ब्राह्मण धरती का वह भगवान है, जिसका वचन कभी मिथ्या नहीं जाता। यथा–

दक्षादि से शिव शंकर बड़े जो ब्रह्मा से वर पाते।
ब्रह्मा से बड़े नाम सत विष्णु जो उनका पूजन चाहते।
विष्णु से बड़े ब्राह्मण गण जो सबके पूज्य कहाते।
ब्रह्म स्वरूप सतगुण की खुराक जो ब्राह्मण भोजन खाते।
इन ब्राह्मण बीच वास विष्णु का न्यूं ब्राह्मण बड़े बताए।[20]

जिन आर्यसमाजी स्वामी दयानंद सरस्वती ने ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं का खंडन किया है, उनके प्रचारक गायक महाशय हारमोनियम-ढोलक बजाकर भजन-रागनियों के माध्यम से जनता में मूर्ति-पूजा के खिलाफ प्रचार करते थे। लखमी चंद अपनी रागनी में उन दयानंद का भी विरोध करते हैं। यथा–

बेशर्म बेहया कुकर्मी लोग आपे को बड़ा जताते।
ब्राह्मण बीच वास विष्णु का जिनको नीच बताते।
ले खड़ताल हारमोनियम ढोलक कहकै पोप खिजाते।[21]

एक अन्य रागनी में कृष्ण के मुख से लखमी चंद कहलवाते हैं कि ब्राह्मण ही सृष्टि को चलाते हैं, इसलिए देवता तक ब्राह्मणों की सेवा करते हैं। देखिए–

ब्राह्मणों को तो भगवान नै अपने से भी बड़ा बताया।
प्रद्युमन नै कहा कृष्ण जी आप क्यों अपज्ञाते हो?
इन ब्राह्मणों को क्यों इतना शीश पै चढ़ाते हो?
कृष्ण बोले सुण ले बेटा हम तुम को समझाते हैं।
मेरे इलावा सृष्टी को ये ब्राह्मण ही रचाते हैं।
ब्राह्मणों की टहल सदा देवता बजाते हैं।
नजर है क्रूर इनकी ये मिण्ट मैं जलाते हैं।
परशुराम ऋषि केसा और और हुआ बलवान नहीं।
ब्राह्मणों की मिथ्या कदे होती है जबान नहीं। [22]

वास्तव में, लखमी चंद ऐसे किसी सामाजिक परिवर्तन के समर्थक नहीं थे, जो मनुस्मृति की व्यवस्थाओं के विरुद्ध हो। जैसे, स्त्री का पुरुष की निंदा करना, गऊ-ब्राह्मण की इज्जत न करना, ऊंची जाति वालों के साथ नीची जाति वालों का बैठना और नीच आदमी का ऊंची जाति के लोगों को उपदेश देना, उन्हें कतई पसंद नहीं था। इसे वह कलयुग का असर मानते थे। यथा–

अब गऊ ब्राह्मण साधु के ऊपर कलु कहर सा तोलै।
मरद की निंदा करै स्त्री हो कै परदै ओल्है।
ऊंचा के संग नीच बैठ वो नीच ऊंच नीच बण बोले।
लखमीचंद धरै छंद काफिए न्यारे-न्यारे खोलै।[23]

लखमी चंद पूर्वजन्म और पुनर्जन्म दोनों में लोगों की आस्था जगाते हैं। एक रागनी में वह कहते हैं–

पिछले जन्म में जाण बूझ कुछ कार करी खोटी थी।
याद करै नै बात गर्भ में के-के ओटी थी।
पिछले जन्म में कदे तनै एक पैसा तक दान करया ना।
गुरू गऊ गंगे गायत्री का तनै कदे भी ध्यान धरया ना।
कर्म लिखी सब पड़े भोगनी हृदय ज्ञान करया ना।
ले जन्म मरण दंड धर्मराज कै तेरी के पोटी थी।
पिछला जन्म खो दिया न्यूंए इब इसनै भी खोवेगा।
अगली अगत बिगड़ ज्यागी जै भूल में पड़ सोवेगा।
कई जन्मा के पाप करे हुए किस तरियां धोवेगा।
किसे बुरी जून में होग्या तै फेर जिंदगी भर रोवेगा।
जन्म सुधारण की ना सोची के उमर तेरी छोटी थी।[24]

लखमी चंद मनुस्मृति के अनुसार लड़की की शादी की उम्र भी दस-बारह साल की ही सही मानते हैं। सिर्फ यही नहीं, शादी से पहले कन्या को पतिव्रत धर्म का पालन करने की शिक्षा भी माता-पिता को देनी चाहिए। यह शिक्षा किस तरह की होनी चाहिए? इसे भी लखमी चंद ने इस तरह स्पष्ट किया है–

जब ब्रह्मचारी श्यादी करते तीस वर्ष के हो कर कै।
दस और बारा साल की त्रिया ठीक कर्म से टोह करकै।
कुल जाति और गोत्र देख ले, जिससे ब्याह करना चाहवै।
विष तारा योनि गृह मित्रता भृकुटी नाड़ी गिन पावै।
ब्याह के समय पुत्री से माता दे पतिव्रता का धर्म बता।
चूड़ी पहरावे सुहाग भाग की परम नियम शुभ कर्म बता।
पति परमेश्वर के तुल्य समझे पुत्री सेवक नर्म बता।
पतिव्रता धर्म के पालन में भी याद वेद का लेख करै।
अतिथि सेवा दान पुन्न और धर्म कर्म की देख करै।
गऊ ब्राह्मण साधु की सेवा करै सो करतब नेक करै।
वेद रीति से ठीक समय पै पुत्र पैदा एक करै।[25]

लखमी चंद यहीं नहीं रुके, बल्कि उन्होंने स्त्री के विरोध में भी अपनी कलम चलाई। वह कहते हैं कि तीन सौ साठ स्त्रियां मरती हैं, तब कोई एक स्त्री बेदाग होती है। यथा–

सब तै खोटी त्रिया हो सै खुद काट गरै ब्याहे नै।
अपने जाए नै आपै खाले नाग लुगाई हो सै।
मत करियो एतबार बीर का या कान काट ले छल कै।
कड़वी बेल विष की त्रिया मत धोरै जाइयो फल कै।
भीड़ पड़ी में धोखा दे कै दूर खड़ी हो टल कै।
दरगाह तक मिसली कर दे काले हाथ मसल कै।
कहै लखमीचंद तीन सौ साठ मरे बेदाग लुगाई हो सै।[26]

इस प्रकार लखमी चंद की रागनियां पूरी तरह ब्राह्मणवादी और सामंतवादी आचार-विचारों और मूल्यों की स्थापना करती हैं। वह वेद-शास्त्रों, पुराणों और खासकर मनुस्मृति के अनुसार लोक जीवन को चलाना चाहते थे। स्त्री-शूद्रों के प्रति उनका मत न लोकतांत्रिक था और न सुधारवादी। वह काफी हद तक मनुवादी ही था। जब तक हरियाणा के गांवों में इस तरह की रागनियों का गायन चलता रहेगा, तब तक लोक-संस्कृति और विचारों में लोकतांत्रिक परिवर्तन आना मुश्किल है।

[1] पंडित लखमी चंद ग्रंथावलो, सं. डा. पूर्ण चंद शर्मा, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, (हरियाणा), नौवां संस्करण 2009, भूमिका, पृष्ठ 28-29
[2] वही, मीराबाई, पृष्ठ 691
[3] वही, सेठ ताराचंद, पृष्ठ 591
[4] वही, पृष्ठ 573
[5] वही, पृष्ठ 589-590
[6] वही, पृष्ठ 625
[7] वही, राजा हरिश्चन्द्र, पृष्ठ 536
[8] वही, भूमिका, पृष्ठ 63
[9] वही, शाही लकड़हारा, पृष्ठ 219
[10] वही, चीर पर्व, पृष्ठ 375
[11] वही, पूरणमल, पृष्ठ 460
[12] वही, पूरणमल, पृष्ठ 466
[13] वही, सत्यवान सावित्री, पृष्ठ 501
[14] वही, पृष्ठ 503-504
[15] वही, राजा हरिश्चन्द्र, पृष्ठ 529
[16] वही, पृष्ठ 531
[17] वही, मीराबाई, पृष्ठ 717
[18] वही, काव्य विविधा, पृष्ठ 724
[19] वही, पृष्ठ 775
[20] वही, पृष्ठ 750
[21] वही
[22] वही, पृष्ठ 761-62
[23] वही, पृष्ठ 725
[24] वही, पृष्ठ 735
[25] वही, पृष्ठ 744-45
[26] वही, पृष्ठ 780-81

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

संबंधित आलेख

दलित स्त्री विमर्श पर दस्तक देती प्रियंका सोनकर की किताब 
विमर्श और संघर्ष दो अलग-अलग चीजें हैं। पहले कौन, विमर्श या संघर्ष? यह पहले अंडा या मुर्गी वाला जटिल प्रश्न नहीं है। किसी भी...
व्याख्यान  : समतावाद है दलित साहित्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आधार 
जो भी दलित साहित्य का विद्यार्थी या अध्येता है, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे बगैर नहीं रहेगा कि ये तीनों चीजें श्रम, स्वप्न और...
‘चपिया’ : मगही में स्त्री-विमर्श का बहुजन आख्यान (पहला भाग)
कवि गोपाल प्रसाद मतिया के हवाले से कहते हैं कि इंद्र और तमाम हिंदू देवी-देवता सामंतों के तलवार हैं, जिनसे ऊंची जातियों के लोग...
दुनिया नष्ट नहीं होगी, अपनी रचनाओं से साबित करते रहे नचिकेता
बीते 19 दिसंबर, 2023 को बिहार के प्रसिद्ध जन-गीतकार नचिकेता का निधन हो गया। उनकी स्मृति में एक शोकसभा का आयोजन किया गया, जिसे...
आंबेडकर के बाद अब निशाने पर कबीर
निर्गुण सगुण से परे क्या है? इसका जिक्र कर्मेंदु शिशिर ने नहीं किया। कबीर जो आंखिन-देखी कहते हैं, वह निर्गुण में ही संभव है,...