पिछली कड़ी के आगे
बीते दिनों जब राहुल गांधी की पदयात्रा शुरू हुई और मुझे कांग्रेस के दिल्ली कार्यालय से फोन आया कि आप इस पदयात्रा में शामिल हों। मैंने प्रत्युत्तर में कहा कि मैं अकेले पदयात्रा में शामिल होने के बजाय अपने अनेक सहयोगियों के साथ पदयात्रा में शामिल हो सकता हूं, लेकिन राहुल गांधी हमारे ओबीसी शिष्टमंडल से चर्चा करें और ठोस कार्यक्रमों की घोषणा करें, तभी हम पदयात्रा में शामिल होंगे। उधर से सकारात्मक उत्तर मिलने पर मैं काम में जुट गया।
इस क्रम में मैंने अपने लोगों से बातचीत की और उनका विचार जानना चाहा कि इस पदयात्रा में शामिल हुआ जाय या नहीं। कइयों ने कहा कि पत्थर से ईंट ही भली। यानी कांग्रेस भाजपा का अच्छा विकल्प हो सकती है। वहीं कुछ लोगों ने कहा कि कांग्रेस–भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, वे कभी भी एक–दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते। कुछ लोगों को शिष्टमंडल के रूप में राहुल गांधी से मुलाकात का विचार पसंद आया।
दरअसल, यहां मामला किसी का अनुयायी बनना नहीं है, बल्कि स्वतंत्र शक्ति के रूप में समूह को स्थापित करना है। हमारा इरादा स्पष्ट रहा कि हमें शामिल होना है तो हम जिस ओबीसी आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो इस आंदोलन का मिनिमम एजेंडे को मानने के लिए सामने वाले को तैयार होना ही चाहिए। तभी इस मेल-मिलाप को स्वाभिमानी मेल-मिलाप कहा जा सकता है।
देशभर के ओबीसी आंदोलनों का एक ही एजेंडा है– जातिवार जनगणना। यह केवल ओबीसी वर्ग के हित का कार्यक्रम नहीं, बल्कि पूरे देश के विकास में बाधक बनी जाति-व्यवस्था को नष्ट करने का एक प्रभावशाली कार्यक्रम है। अभी तमाम वामपंथी और प्रगतिशील जाति के विनाश को लेकर एकमत हैं। लेकिन मूल सवाल यही है कि जाति के संबंध में आंकड़े ही नहीं हैं।
जाहिर तौर पर सभी वामपंथी, प्रगतिशील व फुले–आंबेडकरवादियों को इस आंदोलन में शामिल होना चाहिए। लेकिन परिस्थिति इसके ठीक उलट है। जैसे लगता है कि जाति के विनाश की जिम्मेदारी अकेले ओबीसी आंदोलन की है। ऐसी मानसिकता से वामपंथी, व अन्य समान विचारधर्मी दलों को मुक्त होना चाहिए।
लेकिन उन्हें ओबीसी वर्ग के नेतृत्व में चल रहे जातिवार जनगणना आंदोलन से कुछ भी लेना–देना नहीं है।
हालांकि पदयात्रा के दौरान राहुल गांधी से 10-15 ओबीसी कार्यकर्ताओं ने चर्चा की। इस चर्चा में राहुल गांधी ने ओबीसी वर्ग की भरपूर स्तुति करते हुए कहा कि “ओबीसी इस देश के विकास की धुरी है। वह उत्पादक वर्ग है। वे पैर से पैदा हुए शूद्र नहीं हैं।” आगे उन्होंने कहा कि “ओबीसी जनगणना के बारे में मुझसे कुछ कहने के बजाय वर्तमान भाजपा सरकार पर दबाव बनाइये! यदि यह सरकार तैयार नहीं होती तो अगले दस वर्ष के लिए ऐसी सरकार लाइए जो ओबीसी जनगणना कराए।”

बहरसूरत अब केवल आश्वासनों का समय नहीं रह गया है। सनद रहे कि इसके पहले 2019 में जब लोकसभा चुनाव हुए तब कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में जातिवार जनगणना के बाबत कोई वादा नहीं किया था। ऐसे में केवल उनके कह देने मात्र से बात आगे नहीं बढ़ेगी। केवल सेलिब्रेटी से मिलने का कोई मतलब नहीं। मैंने पूर्व में बताया कि 1977 में ओबीसी ने कांग्रेस के विरोध में संघ–जनसंघ से गठबंधन करके संघर्ष किया। इस संघर्ष के कारण कालेलकर व मंडल आयोग का विषय देश के एजेंडे में शामिल हुआ।फिर 1989-90 में प्रस्थापित पार्टियों से ऐसा ही गठबंधन करके ओबीसी नेताओं ने मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू कराया।
आज फिर कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों को ओबीसी वोट बैंक की जरूरत है तो उनसे गठबंधन करते समय जातिगत जनगणना को प्राथमिकता देनी ही होगी। लेकिन इससे इतर मौजूदा परिदृश्य कुछ और बातें कहता है। शिवसेना के अनेक विधायक–सांसद टूट चुके हैं और आज वे भाजपा की ताकत बने हुए हैं, जिसके कारण महाराष्ट्र में शिवसेना राजनीतिक रूप से कमजोर हुई है। ऐसी परिस्थिति में शिवसेना राजनीतिक शक्ति बढ़ाने का प्रयास कर रही है। लेकिन राजनीतिक शक्ति सामाजिक आंदोलन से आती है। वर्तमान में ओबीसी आंदोलन का बोलबाला होने के कारण शिवसेना ने कुछ ओबीसी कार्यकर्ताओं को अपने पाले में शामिल कर लिया है। वह भी केवल विधायकी के लिए शिवसेना का टिकट प्राप्त करने की शर्त पर। वे भूल गए हैं कि जिस ओबीसी आंदोलन ने उन्हें शिवसेना में जाने लायक बड़ा किया है, उस ओबीसी आंदोलन से शिवसेना को कुछ भी लेना देना नहीं है। ऐसे ही वंचित बहुजन आघाडी द्वारा शिवसेना से किया गया गठबंधन है। अभी भी मामला मुद्दे पर नहीं, बल्कि सीटों की संख्या पर अटका पड़ा है। मुद्दे प्राथमिकता में नहीं हैं। यहां तक कि जातिवार जनगणना का मुद्दा भी उनके बीच के विमर्श से गायब है।
ऐसे दलों को अतीत की ओर देखना चाहिए। जो सियासत जानते-समझते हैं, वे मानते हैं कि ऐसा ही हश्र कांशीराम द्वारा संघ-भाजपा के साथ गठबंधन का हुआ था। कांशीराम ने यदि बसपा की तरफ से सीता–शंबूक–एकलव्य–कर्ण का सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा किया होता तो आज मायावती को रामनाम का जप नहीं करना पड़ता व परशुराम का मंदिर बनाने की घोषणा नहीं करनी पड़ती।
प्रकाश आंबेडकर ने कोई भी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, व जाति अंतक एजेंडा आगे न करके केवल ‘सीट बंटवारे’ के मुद्दे पर ही यदि गठबंधन किया तो वंचित बहुजन आघाडी की हालत बसपा से अलग नहीं होगी, क्योंकि ब्राह्मण–पेशवाओं की भाजपा द्वारा इतने अपमान के बावजूद शिवसेना नेता राममंदिर की यात्रा कर रहे हैं एवं हिंदुत्व से चिपके हुए हैं। कुल मिलाकर अब यदि वंचित समुदायों को राजनीति करनी है तो अपने लक्ष्य स्पष्ट रखने होंगे।
समाप्त
(मूल मराठी से अनुवाद : चंद्रभान पाल, संपादन : नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in