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जातिवार जनगणना का सवाल उठाते समय चूक करने से बचें दलित-बहुजन नेता

कपिल पाटिल को न्यायालय के विरोध में जाकर मराठा आरक्षण का गड़ा मुर्दा खोदकर निकालने की जरूरत ही नहीं थी। कम-से-कम उन्हें जातिवार जनगणना के ज्वलंत मुद्दे के बीच में इस मरे हुए मुद्दे को घुसाने की जरूरत तो बिल्कुल ही नहीं थी। लेकिन हमारे नेता वोट के लालच में ऐसे गलत मुद्दे उठाते रहते है। पढ़ें, प्रो. श्रावण देवरे का यह विश्लेषण

गत 9 मार्च, 2023 को महाराष्ट्र विधान परिषद में विधायक कपिल पाटिल जातिवार जनगणना के मुद्दे को अत्यंत मजबूती से रखा। उन्होंने बिहार में शुरू हुई जातिवार जनगणना के मुद्दे को रखते हुए महाराष्ट्र सरकार को अच्छी तरह घेरा और ओबीसी-बहुजन कल्याण विभाग के मंत्री अतुल सावे को निरुत्तर कर दिया। विधान परिषद में प्रस्ताव पर चर्चा करते हुए एक छोटी-सी गलती हो गई। जातिवार जनगणना का मुद्दा रखते समय अचानक उन्होंने बीच में ‘मराठा आरक्षण’ का मुद्दा भी घुसा दिया और वहीं पर वे चूक गए। उनकी इस चूक का फायदा उठाते हुए मंत्री ने अपने उत्तर में जातिवार जनगणना का मुद्दा किनारे फेंक दिया और केवल मराठा आरक्षण पर बोलते रहे। 

वास्तव में मराठा आरक्षण का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय देकर स्थायी रूप से खत्म कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने 5 मई, 2020 के अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा है कि “महाराष्ट्र सरकार द्वारा नियुक्त किये गए ‘गायकवाड आयोग’ के दिए आंकड़ों एवं सर्वेक्षण के अनुसार मराठा समाज सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा नहीं है, इसलिए मराठा समाज को आरक्षण नहीं दिया जा सकता।” ऐसी परिस्थिति में कपिल पाटिल को न्यायालय के विरोध में जाकर मराठा आरक्षण का गड़ा मुर्दा खोदकर निकालने की जरूरत ही नहीं थी। कम-से-कम उन्हें जातिवार जनगणना के ज्वलंत मुद्दे के बीच में इस मरे हुए मुद्दे को घुसाने की जरूरत तो बिल्कुल ही नहीं थी। लेकिन हमारे नेता वोट के लालच में ऐसे गलत मुद्दे उठाते रहते है।

बहुधा सभी राजनैतिक लोगों को एक भय सतत सताते रहता है कि “यदि वे ओबीसी के हित में कुछ बोलेंगे तो उन्हें मराठा वोट नहीं मिलेंगे। महाराष्ट्र में अनेक नेता खुद को ओबीसी नेता के रूप में पेश तो करते हैं, लेकिन आक्रामक होकर ओबीसी मुद्दे पर बोलने की उनकी हिम्मत नहीं होती। छगन भुजबल और उनके बेटे पंकज भुजबल को जेल में डालने के बाद लगभग सभी के दिल में यह डर बैठ गया है। ओबीसी के हित में कुछ बोलेंगे तो फडणवीस टिकट तो नहीं काट देंगे? बड़े पवार आंख तो नहीं दिखायेंगे? छोटे (अजीत) पवार गुस्सा तो नहीं होंगे? अथवा अशोक चव्हाण दिल्ली जाकर शिकायत तो नहीं कर देंगे? ऐसे डर ओबीसी नेता कहलवाने वाले हमारे राजनैतिक लोगों के मन में घर कर गया है। लेकिन कपिल पाटिल ने इस सर्वव्यापी डर को मात देते हुए संघ-भाजपा की सरकार को अच्छी तरह जातिवार जनगणना का पाठ पढ़ाया। 

कपिल पाटिल, सदस्य, महराष्ट्र विधान परिषद

ऐसी ही पहल नाना पटोले ने भी किया था। उन्होंने तत्कालीन महा विकास आघाडी सरकार के समय में विधानसभा अध्यक्ष जैसे पद पर रहते हुए भी जातिवार जनगणना का प्रस्ताव सदन में रखा था। उस प्रस्ताव से अजीत पवार, अनिल परब जैसे सर्वपक्षीय मराठा विधायकों को अत्यधिक दुख हुआ था। दलित-ओबीसी के विरोध में सभी पार्टियों के ब्राह्मण-मराठा विधायक-सांसद इकट्ठे आ सकते हैं, लेकिन ओबीसी नेता एकजुट नहीं होते। यह बड़ी विडंबना है। इस प्रस्ताव पर बोलते हुए तब विपक्ष के नेता देवेंद्र फडणवीस ने ‘मुंहदेखी’ समर्थन किया। लेकिन मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री को अंधेरे में रखकर यह प्रस्ताव रखा गया है, ऐसा खुराफाती नुक्स भी निकाल दिया। नाना पटोले ने मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री को विश्वास में लेकर यदि जातिवार जनगणना का प्रस्ताव विधानसभा में रखा होता तो रखने के पहले ही विधानसभा में इतना हंगामा मच जाता कि प्रस्ताव रखना ही असंभव हो जाता। ऐसा षड्यंत्र रचने का अवसर ब्राह्मण-मराठा विधायकों को देना मूर्खता ही होती। इसलिए मलिक अंबर एवं छत्रपति शिवाजी महाराज की ‘छापामार नीति’ को अपनाते हुए नाना पटोले ने वह प्रस्ताव अचानक रखा था। 

नाना पटोले के द्वारा रखे गए प्रस्ताव के आधार पर केंद्र सरकार को जातिवार जनगणना करवाने का सिफारिश पत्र भेजा गया, लेकिन केंद्र सरकार ने उस पत्र को अमान्य करते हुए जातिवार जनगणना कराने से इनकार कर दिया। उस समय हमने नाना पटोले को नया प्रस्ताव विधानसभा में रखने के लिए कहा था कि प्रत्येक दस वर्ष पर होने वाले राष्ट्रीय जनगणना में यदि जातिवार जनगणना नहीं होगी, तो महाराष्ट्र सरकार केंद्र सरकार के राष्ट्रीय जनगणना का बहिष्कार करेगी और राज्य स्तर पर स्वतंत्र रूप से जातिवार जनगणना करायेगी।

लेकिन यह सत्य है कि विशिष्ट सीमा तक काम करने की स्वतंत्रता ही ओबीसी नेताओं को होती है। उसके आगे जाने का साहस प्राय: ओबीसी नेता नहीं कर पाते।

अब बिहार सरकार के जातिवार जनगणना कराने के निर्णय से दबाव इतना बढ़ गया है कि केंद्र सरकार ने पूरे देश की जनगणना को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। वजह यह कि अब जातिवार जनगणना का मुद्दा केवल ओबीसी तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि सभी जातियों एवं उपजातियों की जनगणना तक विस्तृत हो चुका है। ब्राह्मण-मराठा सहित सभी जातियों-उपजातियों की जनगणना होगी तो कौन सी जाति कितनी आगे है और कौन कितनी पीछे है, यह मालूम चलेगा। उसी तरह यह भी पता चलेगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 75 वर्षों में दलित-आदिवासी-ओबीसी का कितना हिस्सा किस उच्च जाति ने खाया। साथ ही, वार्षिक बजट में आर्थिक हिस्सेदारी का आकलन भी हो सकेगा।

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि जातिवार जनगणना का मुद्दा जाति प्रथा के विनाश से जुड़ा हुआ है। फुले, शाहू जी महाराज और डॉ. आंबेडकर के जाति का विनाश आंदोलन के कारण आज जाति-व्यवस्था का खुलकर समर्थन कोई भी नहीं करता। संविधान में जाति का अंत भले न हो, लेकिन जाति-समन्वय के माध्यम से जाति के विनाश की भूमिका तो है ही। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि आज मोहन भागवत जैसे सरसंघचालक भी सार्वजनिक रूप से जाति खत्म करने की बात कर रहे हैं। सभी फुले-आंबेडकरवादी, मार्क्सवादी, समाजवादी व पूंजीवादी पार्टियां व संगठन एक स्वर में जाति खत्म करने की बात करते हैं। लेकिन जाति-व्यवस्था नष्ट करने के लिए जो आवश्यक और अनिवार्य कार्य है, उस पर कोई नहीं बोलता।

जाति-व्यवस्था किसी दूसरे ग्रह से नहीं लाया गया है। यदि ऐसा होता तो निर्यात करके उसे वापस भेजा जा सकता था। जाति जितना मन में है, उससे कई गुना व्यवहार में है, और उसने व्यवहार में क्रूरता की सीमा को भी पार कर दिया है। ऐसी परिस्थिति में भौतिकशास्त्र के अनुसार यदि किसी पदार्थ को नष्ट करना है तो उस पदार्थ का संख्यात्मक और गुणात्मक अध्ययन करना पड़ता है और यह सब व्यवस्थित अचूक तरीके से करना होता। इसके लिए आंकड़े और अन्य जानकारियों को इकट्ठा करना जरूरी होता है। ये आंकड़े व जानकारी केवल जाति-आधारित जनगणना से ही मिल सकती है। तभी जाति-व्यवस्था का गहन अध्ययन कर जाति के विनाश की नीति एवं कार्यक्रम निश्चित किया जा सकता है। 

बहरहाल, जातिवार जनगणना हो, इसके लिए दलित, ओबीसी और आदिवासी नेताओं को अपना अहंकार त्यागकर एकजुट होना ही पड़ेगा तथा उन्हें अपने दलों के नेतृत्व का दबाव खारिज करना होगा। विधायक कपिल पाटिल की अपनी ‘लोकभारती’ नाम की राजनीतिक पार्टी है, और इसलिए उनका कोई मराठा-ब्राह्मण मालिक नहीं है। इसके अतिरिक्त कपिल पाटिल मेरी तरह ही कर्मवीर जनार्दन पाटिल के ‘स्कूल’ से तैयार हुए हैं। उनसे अपेक्षा तो बनती ही है। 

(मराठी से हिन्दी अनुवाद : चंद्रभान पाल, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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