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विश्व पुस्तक मेला : सावरकर के नाम पर शोर के बीच कबीर की खोज

मेले में न सिर्फ बहुजन विचार, बल्कि स्त्री विमर्श, और जनवादी साहित्य अपनी शानदार उपस्थिति बनाए हुए है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वंचित और कमज़ोर वर्गों की आवाज़ें समय के साथ बुलंद हो रही हैं। बता रहे हैं सैयद ज़ैगम मुर्तजा

दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला तीन साल के अंतराल के बाद लौटा है। गत 25 फरवरी से शुरु होकर 5 मार्च तक चलने वाले इस मेले में क़रीब एक हज़ार प्रकाशक, वितरक, और कारोबारी हिस्सा ले रहे हैं। कारोबारी गतिविधियों, उपलब्ध पुस्तकों, और विमोचन आयोजनों के अलावा लोगों की दिलचस्पी यह जानने में भी है कि कोविड काल के ब्रेक के बाद किताबों की दुनिया में क्या बदलाव आए हैं, और देश की इस सबसे बड़ी पुस्तक प्रदर्शनी पर मौजूदा राजनीतिक हालात का क्या असर है। वही आलम यह है कि मेले में जहां एक ओर सावरकर के नाम पर शोर है और दूसरी तरफ कबीर को खोजने वाले लोग भी।

 

दरअसल, 2020 के वैश्विक कोविड काल के बाद दुनिया बहुत बदल गई है। महामारी काल का असर लोगों की जीनवशैली के अलावा तमाम आदतों पर पड़ा है, लेकिन मेले में उमड़ रही भीड़ को देखकर अंदाज़ा होता है कि अभी भी लोगों को किताबें पढ़ना पसंद है। हालांकि इस बार मेले में कई चीजें बदली-बदली नज़र आ रही हैं। बदलाव महसूस करने की शुरुआत मेट्रो स्टेशन के नाम से ही हो जाती है। प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन अब सुप्रीम कोर्ट मेट्रो स्टेशन के नाम से जाना जाता है। 

मेले में प्रवेश के टिकट मेट्रो स्टेशन से ही ले लेने में भलाई है, क्योंकि पहले की तरह अंदर गेट नंबर 10 के पास बने टिकट काउंटर अब बंद हैं। यहां से आपके नए बने प्रदर्शनी कक्षों तक पहुंचने के लिए लंबा मार्च करना पड़ सकता है, इसके बावजूद कि मेला आयोजकों ने निशुल्क शटल सर्विस मुहैया कराया है, लेकिन उतनी ही भीड़ भी है। मेले में लगने वाले स्टाल से जुड़ी जानकारी ऑनलाइन है, लेकिन फिर भी बहुत से लोगों के लिए यह भूलभलैया साबित हो रहा है। आयोजकों में से एक नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) के निदेशक युवराज मलिक के मुताबिक़ इस बार मेले में स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से जुड़ी क़रीब 750 शीर्षक मौजूद हैं। 

ज़ाहिर है मौजूदा सियासी हालात के मद्देनज़र स्वतंत्रता सेनानियों की लिस्ट में कई ऐसे नाम भी हैं, जिन्हें लेकर कुछ लोगों को हंसी आ सकती है और कुछ लोग नाराज़ भी हो सकते हैं। बहरहाल, हिंदी की किताबें हॉल नंबर दो में प्रमुखता से उपलब्ध हैं और इस हॉल का एक बड़ा हिस्सा व्यवसायिक प्रकाशकों के अलावा उन संस्थाओं या प्रकाशकों के पास है, जो इस आयोजन को सांस्कृतिक-धार्मिक राष्ट्रवाद के प्रचार-प्रसार के नज़रिए से देखते हैं। वैसे मेले में बच्चों के लिए विशेष मंच भी मौजूद हैं। लेकिन सवाल है कि इतने बड़े आयोजन में वंचित तबक़ों के लोग कहां हैं?

मेले में जुट रहे हैं देश भर के दिग्गज लेखक

मेले में कुल हिस्सेदारी, कुल आयोजनों में वंचितों की भागीदारी, या कुल प्रदर्शित किताबों में दलित विमर्श, महिलाओं के सवाल, या बहुजनों के मुद्दे कितने हैं, इसे लेकर आंकड़े शायद ही मिल पाएं। इसके बावजूद बहुजनों की सक्रिय भागीदारी, और मेले में उनकी हिस्सेदारी तसल्ली तो देती ही है। फारवर्ड प्रेस के अलावा पुस्तक मेले में आदिवासी इंडिजनस बुक अखड़ा, गौतम बुक सेंटर, बुद्धम पब्लिशर और दास पब्लिकेशन जैसे तमाम स्टॉल्स पर जुटने वाली भीड़ आश्वस्त करती है कि वंचितों की आवाज़ें सुनने में लोगों की दिलचस्पी है। और सिर्फ स्टॉल नहीं, लेखक मंच और दूसरी जगहों पर होने वाले आयोजनों में बहुजन समाज के लोग पूरे उत्साह से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। 

हालांकि यह बात देखने में जितनी सामान्य सी लगती है, उतनी है नहीं। इसके कई कारण हैं। जातीय विद्वेष, और वंचित तबक़ों की अनदेखी हमारे समाज की वास्तविकता हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में अपने अधिकारों के अलावा बहुजन समाज में एक तरह नवचेतना है और लोग ख़ुद को व्यक्त करना चाहते हैं। ज़ाहिर है, मीडिया के अलावा किताबें अभिव्यक्ति का सबसे मज़बूत माध्यम हैं। न सिर्फ अभिव्यक्ति, बल्कि घटनाओं को दर्ज करने, दस्तावेज़ के रूप में संजोने, और अपनी बात आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने के लिए किताबें अब भी महत्वपूर्ण ज़रिया हैं। 

यह बात सही है कि पुस्तक मेले में आने वाली भीड़ में सभी लोग पुस्तक प्रेमी नहीं होते। मगर टाइमपास करने वाले, सेल्फी प्रेमी, और महज़ दिखावे के लिए आने वाले भी कुछ देर तो किताबों के संपर्क में आते ही हैं। लेकिन इस साल आने वालों में कई हैं, जो किताबों की इस दुनिया में ज्ञान के स्रोत तलाश रहे हैं। अमित सागर सहारनपुर से सिर्फ किताबें लेने के लिए ही मेले में आए हैं। गुलमोहर प्रकाशन पर किताबें खोजते अमित बताते हैं, “एक तो इतनी सारी किताबें एक साथ कहीं और मिलती नहीं हैं, दूसरे मैं जानना चाहता था कि हमारे मुद्दों पर देश में क्या लिखा-पढ़ा जा रहा है।”

फारवर्ड प्रेस के स्टॉल पर जयपुर से तशरीफ लाए एक सज्जन कबीर साहित्य ढूंढते हुए पहुंचे हैं। आधुनिक भक्ति काल में कबीर की इस शिद्दत से तलाश आश्वस्त करती है कि अभी मध्यमार्गियों, मानवतावादियों, और सदभाव के आकांक्षियों के लिए दुनिया पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई है। शायद सरकारी कर्मचारी होने के नाते नाम बताने से घबरा रहे हैं, लेकिन कबीर में अपनी आस्था की अभिव्यक्ति करने में उन्हें कोई घबराहट नहीं है। उन्हीं की तरह सुनीता हैं जो फरीदाबाद में रहती हैं और पुस्तक मेला इसलिए आई हैं क्योंकि उनके शहर में बहुजन साहित्य आसानी से उपलब्ध नहीं है।

इससे भी बड़ी बात है कि जो प्रकाशन मुख्यधारा में गिने जाते हैं, या व्यवसायिक दृष्टि से किताबों के कारोबार में हैं, वह भी बहुजन चिंतकों का महत्व समझ रहे हैं। आंबेडकर, सावित्रीबाई फुले, और पेरियार को आमजन भी ख़ूब पढ़ रहे हैं और बाज़ार इस बात को बख़ूबी जानता है। हालांकि यह नॅरेटीव गढ़ने का दौर है और बहुजन चिंतकों को हर कोई अपने हिसाब से परिभाषित करने या उनका फायदा उठाने में कोताही नहीं कर रहा है। फिर भी किताबों के गंभीर पाठक हैं और वह जानते हैं क्या पढ़ना है, क्या समझना है।

मेले में न सिर्फ बहुजन विचार, बल्कि स्त्री विमर्श, और जनवादी साहित्य अपनी शानदार उपस्थिति बनाए हुए है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वंचित और कमज़ोर वर्गों की आवाज़ें समय के साथ बुलंद हो रही हैं। हो सकता है कि अभी इन आवाज़ों को वाजिब जगह और समान तवज्जो न मिल रही हो, फिर भी किताबों के इस कुंभ में यह आवाज़ें कह रही हैं कि हां, हम भी हैं। इस दौर में इस ज़मीन पर हम भी हैं होना भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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