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विमर्श : दलित-बहुजनों के इतिहास की हो वैज्ञानिक तलाश, फिर करें पुनर्लेखन

आज शहरों और गलियों के नाम बदले जा रहे हैं। लेकिन यह कोई क्रांतिकारी विचार नहीं है, बल्कि यह इतिहास के निशानों को मिटाने का जघन्य रूप है। क्या यह तर्कसंगत होगा कि भारत का नाम बदलकर जंबू द्वीप रख दिया जाय? पढ़ें, बापू राउत का नजरिया

सामान्यत: इतिहास में महत्वपूर्ण व सत्यापित घटनाओं का तथ्यात्मक विवरण तारीखों के क्रमानुसार होता है। इतिहास काल्पनिक विचारों का दस्तावेजीकरण नहीं करता है। किसी भी घटना को दर्ज करने का आधार साक्ष्य होते हैं। जब कोई साक्ष्य नहीं होता, कह दिया जाता है कि यह परंपरा के साथ चलते आ रहा है या फिर हमारी धार्मिक किताबों में यही लिखा है। लेकिन सच तो यह है कि ऐसी बातें बेतुकी हैं और महज सच पर पर्दा डालने के लिए कही जाती हैं। हमारे देश में ऐसा ही चल रहा है। इन्हें मिथक कहा जाता है और इसके लिए प्रमाण, वास्तविक परीक्षण और तथ्यों की कोई आवश्यकता नहीं होती।

दरअसल, हमारे देश में इतिहास पुनर्लेखन के नाम पर स्कूली पाठ्यक्रम में बदलाव किया जा रहा है। पुराने इतिहास को हटाए बिना, दूसरे तथ्य जोड़ना तो समझ में आता है, लेकिन इतिहास की कुछ घटनाओं को पाठ्यक्रम से हटा देना ठीक नहीं है। फिर, क्या इतिहास के पुनर्लेखन का मतलब यह है कि आज तक जो भी पढ़ाया गया, वह इतिहास नकली था? 

अगर नए शोधों, उत्खननों से मिले, स्मारकों, अभिलेखों और सिक्कों में से प्राप्त तथ्यों से पुराने तथ्यात्मक बातों को जोड़कर रखा जाता तो कहा जाता कि ऐसा कर इतिहास को समृद्ध बनाया जा रहा है। लेकिन इतिहास को मिटाकर पुनर्लेखन नहीं किया जा सकता। अगर जबरदस्ती ऐसा होता है, तो इतिहास को अपनी सुविधा के हिसाब से बनाने के लिए काल्पनिकअसत्य घटनाओं को शामिल करने का खतरा बढ़ जाता है।

लगभग 3100 ईसा पूर्व सुमेर (दक्षिणी मेसोपोटामिया) में इतिहास लेखन शुरू हुआ। भारत में कल्हण द्वारा लिखित राजतरंगिणी के पहले इतिहास लेखन के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। जिस समय लेखन कला का ज्ञान ही नहीं था, उस समय की निराधार घटनाओं को इतिहास के रूप में स्वीकार करना तर्कसंगत नहीं है। पाषाण युग से ईसा पूर्व चौथी शताब्दी तक भारत में लेखन कला और इसके उपकरणों का अभाव था। भारत में सिंधु सभ्यता का अस्तित्व आधुनिक शोधों व खुदाई से प्राप्त साक्ष्यों के कारण मिलते हैं। वहीं आर्य सभ्यता के अस्तित्व के साक्ष्य खुदाई से कहीं नहीं मिलते, क्योंकि यह एक लंबे समय के बाद में प्रतिलिखित किया गया।

धौलावीरा, गुजरात में हड़प्पा कालीन सभ्यता के अवशेष

भारत में इतिहास संबंधी कुछ जानकारियां अभिलेखों के रूप में पत्थरों पर लिखे गए हैं और वे मुख्य रूप से ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों में हैं। भारत में इस प्रकार के शिलालेख (शिलालेख, स्तंभ, गुफा शिलालेख आदि) लिखने की परंपरा सम्राट अशोक के समय से शुरू हुई। लगभग 1400 ईसा पूर्व एशिया माइनर के ‘बोगाज-कोई’ शिलालेख से हमें आर्यों के क्षेत्र और वैदिक वेदों के बारे में जानकारी मिलती है। डेरियस (522-486 ईसा पूर्व) के ‘नक्श-ए-रुस्तम’ शिलालेख से भी यह ज्ञात होता है कि आर्य पंजाब तक आगे बढ़े थे। मिस्र में अल-अमरना में मिली एक मिट्टी की तख्ती पर खुदे हुए बेबीलोन के शासकों के नाम आर्यों के नामों से मिलते-जुलते हैं। इससे आर्यों की उत्पत्ति का अनुमान लगाया जा सकता है।

इतिहास को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से फिर से लिखने की कार्यवाही वर्तमान में चल रही है। इतिहास को छात्रों और समाज के सामने न केवल राष्ट्रीय दृष्टिकोण से बल्कि अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए, क्योंकि आज की दुनिया एक प्रतिस्पर्धी दुनिया है, इसीलिए इतिहास को इसकी प्राचीन और पुरातन मूल्यों के साथ समग्रता में पढ़ाया जाना चाहिए। लेकिन कुछ चीजों को तथ्यों और ऐतिहासिक उपकरणों के बिना इतिहास के रूप में थोपना और सही ऐतिहासिक अभिलेखों को फेंक देना इतिहास के मापदंडों में शामिल नहीं है। लेकिन भारत में इतिहास लेखन के दृष्टिकोण से देखें तो असली संघर्ष यही है।

सर्वविदित है कि 1947 में भारत को आजादी मिली। उसके बाद भारतीय इतिहासकारों ने इतिहास लिखा। इस इतिहास-लेखन में प्रयुक्त उपकरण ब्रिटिश द्वारा किए गए शोध (खुदाई, सर्वेक्षण, अभिलेख, मुहर) और पश्चिम के ग्रीक और रोमन लेखकों, चीनी लेखकों (इत्सिंग, फाहियान, ह्यूनत्सांग) और अल-बेरूनी जैसे फारसी लेखकों के दस्तावेज थे। इसके साथ ही वैदिक, बौद्ध और जैन जैसे धार्मिक साहित्य का भी उपकरण के रूप में प्रयोग किया गया था। लेकिन धार्मिक साहित्य को इतिहास नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें अतिशयोक्तिपूर्ण और काल्पनिक घटनाएं हैं। आज भी, भूमिगत खुदाई में बौद्ध और जैन धर्म से संबंधित संरचनाएं पाई जा सकती हैं। लेकिन कहीं भी वैदिक धर्म के संबंध में कोई अवशेष नहीं मिलते। हालांकि कुछ वैदिक साहित्य आर्यों के मूलनिवास स्थानों (भारत में नहीं) में लिखे हो सकते हैं, जबकि शेष सामग्री भारत में प्रवेश के बाद लिखे गए। वैदिक साहित्य में तर्कपूर्ण बातें नहीं मिलती हैं। वे अतिशयोक्तिपूर्ण, अवैज्ञानिक और अविश्वसनीय रूप से काल्पनिक प्रतीत होते हैं।

असल में हुक्मरान जिस राष्ट्रवाद के नाम पर इतिहास का पुनर्लेखन कराना चाहते हैं, वह खास धर्म पर आधारित व्यवस्था और देवत्व के पुनरुत्थान के लिए है। जबकि इतिहास में इसके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। 

सनद रहे कि राष्ट्रवाद एक ही राष्ट्र में रहनेवाले विभिन्न समुदायों के लोगों के लिए समानता, आनंद व सद्भाव के साथ रहने और संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के माध्यम से सद्भावना बनाए रखने के लिए बनाई गई एक प्रणाली है। होना तो यह चाहिए कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ऐसा राष्ट्रवाद स्पष्ट रूप से रेखांकित हो। लेकिन राष्ट्रवाद के नाम पर हिंसा के साथ-साथ घृणा, असमानता, पूर्वाग्रह और देवत्व का प्रसार करना निश्चित रूप से राष्ट्रवाद नहीं है। 

इसे इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि सत्ता में बने रहने के लिए राष्ट्रवाद की घृणित परिभाषा लोगों के ऊपर थोपना विवेकवाद को नकारना है। छद्म राष्ट्रवादियों का अंतिम लक्ष्य सत्ता की खातिर लोगों को धोखा देना होता है। छद्म राष्ट्रवादी सुधार समानता और बहुसंस्कृतिवाद का दुश्मन हैं।

इतिहास को छद्म राष्ट्रवाद से प्रभावित नहीं होना चाहिएआज विज्ञान, नए आविष्कार और कृत्रिम बुद्धिमत्ता का युग है। विश्व के अन्य देश आधुनिक विचारों को अपनाकर आगे बढ़ रहे हैं। हमें सोचना चाहिए कि हमारा देश और लोग इसमें पीछे न रह जाय। 

अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा प्रणाली के माध्यम से भारत के इतिहास को नष्ट कर दिया और इसमें विकृतियों, विसंगतियों, मिथकों और असत्य घटनाओं को शामिल किया, इस आरोप में कोई सच्चाई नहीं है। सच्चाई तो यह है कि भारतीय संस्कृति ने मिथकों, विकृतियों, विसंगतियों, अंधविश्वास और जातिवाद की वकालत कर महिलाओं और बहुजनों को नीच माना। उनके शैक्षिक अवसर छीन लिए गए। यह सब देखकर जेम्स मिल और विलियम आर्चर जैसे लेखकों ने भारतीय संस्कृति की आलोचना की थी। इस विसंगति को दूर करने के लिए जोतीराव फुले (11 अप्रैल, 1827 – 28 नवंबर, 1890), गोविंद रानाडे (18 जनवरी, 1842 – 16 जनवरी, 1901) और रामकृष्ण गोपाल भंडारकर (6 जुलाई, 1837 – 24 अगस्त, 1925) ने विषमतावादी व पूर्वगौरववादी संस्कृति को दरकिनार करते हुए तथ्यों, तर्कसंगत और सुधारवादी इतिहास की नींव डाली।

दूसरी ओर तिलक, सावरकर, ए.सी. दास और अरविंदो घोष जैसे लोगों ने एक नई राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाया। लेकिन यह विचारधारा शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का समर्थन कर रही थी। वह विषमता, जातिवाद, महिलाओं के शोषण और सांस्कृतिक संरक्षण के नाम पर कट्टरता को हवा दे रही थी। 

आज शहरों और गलियों के नाम बदले जा रहे हैं। लेकिन यह कोई क्रांतिकारी विचार नहीं है, बल्कि यह इतिहास के निशानों को मिटाने का जघन्य रूप है। क्या यह तर्कसंगत होगा कि भारत का नाम बदलकर जंबू द्वीप रख दिया जाय? 

वास्तव में, सनातनियों और पूर्वगौरववादियों को राष्ट्रवाद का मुखिया कहना, बहुजन लोगों का अपमान है। राष्ट्रवाद के नाम पर रामजन्मभूमि आंदोलन खड़ा किया गया। लेकिन अयोध्या में हो रही खुदाई में राम से संबंधित किसी भी साक्ष्य के बारे में अभी तक जनता को जानकारी नहीं दी गई है। सवाल यह है कि खुदाई में मिली वस्तुओं की प्रदर्शनी क्यों नहीं लगाई गई? लोगों को पता होना चाहिए कि इतिहास का पुनर्लेखन तर्कवादी तथ्यों के आधार पर हो रहा है या फिर काल्पनिक आधार पर। 

इसमें कोई शक नहीं कि भारत पर आक्रांताओं ने आक्रमण किया। यह आक्रमण आर्यों से शुरू होता है। बाद में शक, हूण, मंगोल, अफगान, मुग़ल और अंग्रेज आए। इनमें से हर शासक ने अपने प्रतीकों के अवशेष बनाकर छोड़े। लेकिन इस प्रक्रिया में मूलनिवासी भारतीयों की मूल पहचान खो गई। यदि कोई उसे खोजना चाहता है, तो उसे जंगल, घाटी, पहाड़, गुफा और जमीन के अंदर खोदकर देखना होगा। वहीं सच्चा भारतीय इतिहास मिलेगा। यही वास्तविक इतिहास का पुनर्लेखन होगा। क्या ऐसा करने के लिए तथाकथित छद्म राष्ट्रवादी अपनी बौद्धिकता का परिचय देंगे?

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

बापू राउत

ब्लॉगर, लेखक तथा बहुजन विचारक बापू राउत विभिन्न मराठी व हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लिखते रहे हैं। बहुजन नायक कांशीराम, बहुजन मारेकरी (बहुजन हन्ता) और परिवर्तनाच्या वाटा (परिवर्तन के रास्ते) आदि उनकी प्रमुख मराठी पुस्तकें हैं।

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