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राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में एक बार फिर ‘जाति का विनाश’

भाजपा की सांस्कृतिक शक्ति पर वही पार्टी प्रहार कर सकती है, जो स्वयं अपनी ताकत सांस्कृतिक क्रांति से अर्जित करती रहती है। आज के समय में देश में ऐसी एक ही पार्टी है और वह है द्रविड़ मुणेत्र कषगम। एम.के. स्टालिन के नेतृत्व में इस दल ने एकदम वाजिब समय पर भारतीय राजनीति के क्षितिज पर धमक दी है। बता रहे हैं श्रावण देवरे

जाति के विनाश का एजेंडा राष्ट्रीय स्तर पर एजेंडे के रूप में न आने पाए, इसके लिए ब्राह्मणी छावनी सतत दांव-पेंच व षड्यंत्र रचती रही हैं। सन् 1947 तक अंग्रेजों के शासन में रहने के कारण फुले, शाहू, पेरियार व डॉ. आंबेडकर आदि को जाति के विनाश का सवाल राष्ट्रीय स्तर पर ले जाना आसान था। जोतीराव फुले के सत्यशोधक आंदोलन के प्रभाव के कारण अंग्रजों को 1872 से जाति आधारित जनगणना कराने को बाध्य होना पड़ा था। आधुनिक काल में जाति के सवाल को राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने का यह पहला यशस्वी प्रयत्न था।

उसके बाद शाहूजी महाराज ने 1902 में अपने राज्य में गैर-ब्राह्मणों के लिए 50 प्रतिशत जगहें आरक्षित करने का कानून बनाकर अखिल भारतीय स्तर पर ब्राह्मण वर्ग में खलबली मचा दी थी। उसके बाद डॉ. आंबेडकर ने 1932 में ब्राह्मण वर्ग के नेतृत्वकर्ता गांधी को गोलमेज सम्मेलन में आमने-सामने चुनौती दी।

 

लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत शासन-प्रशासन में ब्राह्मण वर्ग के एकछत्रीय वर्चस्व व उनके द्वारा लागू नीतियों ने जाति के विनाश के सवाल की लहर को किनारे कर दिया। इस क्रम में जाति आधारित जनगणना बंद करना, हिंदू कोड बिल नकारना, बाबा साहेब की देश की राजनीति से अपमानजनक तरीके से बेदखली आदि कृत्यों से जाति के विनाश के सवाल को सीमित करने का प्रयास हुआ। संविधान लागू होते ही एक ही साल के भीतर अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों के लिए संविधानप्रदत्त आरक्षण पर रोक लगाने का प्रयत्न सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से किया गया। लेकिन उसी समय रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व में हुए उग्र ओबीसी आंदोलन के कारण संविधान में पहला संशोधन करना पड़ा। आजादी के बाद यह पहली क्रांतिकारी घटना थी, जिसके कारण जातिगत भेदभाव आधारित व्यवस्था के विरोध का प्रश्न अखिल भारतीय स्तर पर राजनीतिक एजेंडे में शीर्ष पर था। लेकिन इसकी एक खामी यह रही कि हिंदी विरोध के कारण यह आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन न बनकर मद्रास प्रांत तक ही सीमित रह गया। 

फिर कालेलकर आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने की जिम्मेदारी नेहरू द्वारा राज्यों को सौंपकर जाति के प्रश्न को राष्ट्रीय एजेंडे से दूर रखने का प्रयास किया गया। तब ब्राह्मण वर्ग का यह अनुमान था कि जाति के विनाश के सवाल को राज्य स्तर पर लाकर दबाया जा सकेगा। लेकिन इसके कारण यह सवाल और अधिक ही उग्र बनता गया। ओबीसी बहुल राज्यों में ओबीसी की स्वतंत्र राजनीति खड़ी होने लगी। बिहार में जननायक कर्पूरी ठाकुर, उत्तर प्रदेश में रामनरेश यादव व तमिलनाडु में अन्नादुरई जैसे मुख्यमंत्रियों ने जाति के विनाश की राजनीति स्वतंत्र रूप से खड़ी की। राज्य स्तर की यह राजनीति आगे चलकर जनता पार्टी के रूप में फिर से राष्ट्रीय स्तर पर संगठित रूप में और अधिक मजबूत हो गई। फिर मंडल आयोग का गठन हुआ। 

करीब दस साल बाद फिर से गठित तीसरे मोर्चे से जनता दल का उदय हुआ। इसने वह कर दिखाया, जिसकी उम्मीद ब्राह्मण वर्ग को कभी नहीं थी। राजनीति में ओबीसी के बढ़ते प्रभाव के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह की सरकार को मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करना पड़ा। इसके कारण सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई।

राष्ट्रीय स्तर पर मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने के कारण जाति के विनाश के प्रश्न ने देश की राजनीति को आमूलचूल बदल कर रख दिया। ब्राह्मण वर्ग के लिए यह ऐतिहासिक रूप से प्रतिकूल परिस्थिति थी। फिर उसने चार रणनीतिक निर्णय लेकर और षड्यंत्र पर षड्यंत्र करते हुए भारतीय राजनीति में बाजी मार ली। इनमें सबसे अहम था ओबीसी का धार्मिक व सांस्कृतिक स्तर पर अपहरण करना। इसके लिए उन्होंने देश को बांटनेवाली मंदिर-मस्जिद व हिंदू-मुस्लिम राजनीति की। 

ब्राह्मण वर्गों की दूसरी रणनीति के तहत प्रत्येक राजनीतिक पार्टी में ओबीसी वर्ग की प्रत्येक जाति से ‘जाति का नेता’ तैयार किया गया, जिसके कारण ओबीसी वर्ग की सामाजिक-राजनीतिक गुणात्मकता को प्रभावहीन करने में ब्राह्मण वर्गों को सफलता मिली। तीसरी रणनीति के तहत ब्राह्मण वर्ग के वर्चस्ववाद के विरोध में मजबूती से लड़ने वाले यादव, कुनबी, कुर्मी, माली, जैसी बहुसंख्यक ओबीसी जातियों के खिलाफ ओबीसी की अल्पसंख्यक जातियों को भड़काकर उन्हें अलग-थलग करना।

इसके लिए जी. रोहिणी आयोग का खेल खेला गया। जाहिर तौर पर इस रोहिणी आयोग से ओबीसी की अल्पसंख्यक जातियों को कुछ भी मिलने वाला नहीं है, लेकिन ओबीसी में फूट डालकर संघ-भाजपा को फायदा निश्चित रूप से हो रहा है। घूमंतू व गैर-अधिसूचित जातियों के मामले में रेणके आयोग ने भी यही काम किया है। हालांकि वर्ष 2006 में कांग्रेस सरकार में गठित इस आयोग ने 2008 में अपनी जो रिपोर्ट पेश की थी, उसमें कुछ अनुशंसाएं बेहतर थीं, लेकिन भाजपा सरकार ने इदाते आयोग का गठन कर रेणके आयोग की अनुशंसाओं को सीमित करते हुए निर्रथक बना दिया।

बहरहाल, रेणके आयोग व दादा इदाते आयोग से प्रत्यक्षतः कुछ नहीं मिला, घूमंतू व गैर-अधिसूचित जातियों को ओबीसी से तोड़ने में भाजपा-कांग्रेस को सफलता जरूर मिल गई। ब्राह्मणी वर्ग का चौथा सबसे षड्यंत्र था देश के दलित नेताओं को सत्ता का लालच दिखाकर संघ-भाजपा के खेमे में लाना।

एम.के. स्टालिन, मुख्यमंत्री, तमिलनाडु

ब्राह्मण वर्ग यह सब करने में कामयाब हुआ क्योंकि उसने डॉ. आंबेडकर के विचारों का अध्ययन किया, जिसके मूल में दलित, आदिवासी और ओबीसी जातियों को संगठित रखते हुए जाति के विनाश का आह्वान था। 

संघ-भाजपा के बैनर तले ब्राह्मण वर्गों के उपरोक्त चारों षड्यंत्र लगभग पूरे देश में सफल रहा। लेकिन तमिलनाडु निश्चित रूप से अपवाद रहा, जहां पिछले 50-55 सालों से ब्राह्मण वर्गों की कोई चाल सफल नहीं हो सकी है।

अब देश में फिर से एक बार राष्ट्रीय स्तर पर संघ-भाजपा के विरोध में एक राजनैतिक गठबंधन खड़ा करने का प्रयत्न चल रहा है। महत्वपूर्ण यह कि आज तक के हुए गठबंधन और अभी होनेवाले गठबंधन में एक मूलभूत अंतर रहने की उम्मीद है। 

संविधान बचाओ व लोकतंत्र बचाओ जैसे मुद्दे लेकर कांग्रेस इस गठबंधन का नेतृत्व करने की इच्छा रखती है। संघ-भाजपा को इससे कोई अधिक परेशानी नहीं है। राहुल गांधी को गुजरात न्यायालय से दो साल की सजा सुनाने और उसके आधार पर उनकी सांसदी रद्द करने के पीछे यही दिखाने का प्रयत्न है कि राहुल गांधी ही भाजपा के शत्रु हैं। यह कोशिश की जा रही है कि विरोधी गठबंधन का नेतृत्व राहुल गांधी के पास अपने आप आ जाए। 

मूल बात यह है कि केवल राफेल, अडाणी समूह के भ्रष्टाचार आदि मुद्दों के जरिए संघ-भाजपा से लड़ाई नहीं जीती जा सकती है। यह समझने की आवश्यकता है कि ब्राह्मण वर्ग को मंडल के विरोध में राम के नाम पर धार्मिक-सांस्कृतिक राजनीति करनी पड़ी। मंदिर- मस्जिद ध्रुवीकरण की राजनीति से लेकर ओबीसी वर्ग में फूट डालने के लिए रोहिणी आयोग और रेणके व इदाते आयोग तक का खेल खेलना पड़ा। 

यह याद रखा जाना चाहिए कि भाजपा केवल कांग्रेस के विरोध में बड़ी पार्टी नहीं हुई है, बल्कि वह अपनी विचारधारा व रणनीतिक एजेंडे के क्रियान्वयन से बड़ी हुई है। लोकतंत्र विरोध व संविधान विरोध यह सिर्फ उसका ऊपर का कवच है। उसका मानस ब्राह्मणवादी मानसिकता से भरा है। वह जाति के विनाश के सवाल को खारिज करने के प्रयास में जुटी है। 

ऐसे समय में केवल लोकतंत्र बचाओ, संविधान बचाओ जैसे कामचलाऊ नारे के बूते उसे पराजित नहीं किया जा सकता है। भाजपा अपनी ताकत सांस्कृतिक प्रतिक्रांति से अर्जित करती रहती है। उससे मुकाबले के लिए यह सांस्कृतिक प्रतिक्रांति का मार्ग अपनाये रखना आवश्यक होगा। भाजपा की सांस्कृतिक शक्ति पर वही पार्टी प्रहार कर सकती है, जो स्वयं अपनी ताकत सांस्कृतिक क्रांति से अर्जित करती रहती है। आज के समय में देश में ऐसी एक ही पार्टी है और वह है द्रविड़ मुणेत्र कषगम (डीएमके)। एम.के. स्टालिन के नेतृत्व में इस दल ने एकदम वाजिब समय पर भारतीय राजनीति के क्षितिज पर धमक दी है। 

बताते चलें कि डीएमके पार्टी का जन्म ही मूलतः ब्राह्मणवाद के विरोध से हुआ है। पेरियार दक्षिण भारत में कांग्रेस के जाने-माने नेता थे। एक समय वे गांधी के अत्यंत नजदीकी नेता थे। वायकम जैसे मंदिर सत्याग्रह के कारण वे उस समय के सबसे बड़े नेता के रूप में भी प्रसिद्ध हुए थे। लेकिन गांधी व कांग्रेस की आरक्षण विरोधी नीतियों के कारण उन्होंने कांग्रेस को त्याग स्वतंत्र रूप से आत्मसम्मान आंदोलन खड़ा किया और इसी आंदोलन से डीएमके का जन्म हुआ है। इस दल ने आरक्षण, मंदिर प्रवेश जैसे सामाजिक विषयों के आंदोलनों के साथ रामायण-महाभारत के विरोध में अब्राह्मणी प्रबोधन करके सांस्कृतिक क्रांति की भी शुरुआत की। भाजपा नाम की पार्टी जब पैदा भी नहीं हुई थी, उस समय डीएमके अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक ताकत के साथ मजबूती से खड़ी थी।

डीएमके की स्थापना 17 सितंबर, 1949 को हुई और सिर्फ 19 वर्ष के अंदर ही वह तमिलनाडु की सत्ता पर काबिज हो गई। ओबीसी के नेतृत्व में हुई यह क्रांति केवल राजनैतिक ही नहीं, बल्कि ब्राह्मणी संस्कृति के विरोध में अब्राह्मणी क्रांति थी। इसके कारण इस राज्य में बीते 50-55 सालों से ब्राह्मणवादी सत्ता से दूर रहे हैं। 

डीएमके ने आरक्षण की व्यापकता सभी अब्राह्मण समाज घटकों तक ले जाते हुए उसे 69 प्रतिशत तक पहुंचाया। आंदोलन के बूते इस अब्राह्मणी आरक्षण को संविधान की नौंवी अनुसूची में संरक्षित किया गया। किसी भी परिस्थिति में नौकरशाही में ब्राह्मण वर्गों का प्रतिनिधित्व 3 प्रतिशत से ऊपर न होने पाए, इसका ध्यान रखना, ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू न करना डीएमके सरकार की उपलब्धियों के कुछ उदाहरण मात्र हैं। मंदिरों से ब्राह्मण पुजारियों को बाहर करके दलित, आदिवासी व ओबीसी पुजारियों को सरकारी कर्मचारी के रूप में भर्ती करना भी एक अहम उपलब्धि है।

एक यही काम उत्तर भारत में अनेक बार सत्ता प्राप्त करने के बावजूद कांशीराम-मायावती व लालू- मुलायम नहीं कर सके। यदि डीएमके पार्टी का अनुकरण करते हुए कांशीराम-मायावती व लालू-मुलायम आदि यूपी व बिहार में ऐसी अब्राह्मणी क्रांति किए होते तो ब्राह्मण वर्ग 2014 में प्रतिक्रांति कतई नहीं कर पाता। लोहियावादी समाजवादी विचारधारा के नेताओं से यह अपेक्षा करना गलत ही होगा, क्योंकि खुद लोहिया राम-कृष्ण के भक्त थे, लेकिन खुद को आंबेडकरवादी कहलवाने वाले कांशीराम-मायावती से यह अपेक्षा बनती थी। लेकिन उन्होंने भी साहस न किया और घुटने टेक दिये। 

आज भारत में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पार्टी, केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, ठाकरे की शिवसेना पार्टी, नवीन पटनायक की बीजू जनता दल पार्टी (उड़ीसा), फारुख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस व महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (जम्मू कश्मीर), जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी व चंद्राबाबू नायडू की तेलुगुदेशम पार्टी (आंध्र प्रदेश) जैसी अनेक पार्टियां हैं। 

कांग्रेस सहित सभी पार्टियां और तमाम कम्युनिस्ट पार्टियां सभी भाजपा के विरोध में तो एक हो सकती हैं, लेकिन वे जाति के विनाश के सवाल पर खामोश ही रहेंगीं।

आज संपूर्ण भारत में ओबीसी वर्ग जाति आधारित जनगणना आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है। इसके कारण जाति के विनाश का प्रश्न फिर से एक बार देश के राजनीतिक एजेंडे में शामिल हुआ है। निस्संदेह इसमें डीएमके के नेता स्टालिन की भूमिका अहम है। बीते 8 अप्रैल, 2023 को उन्होंने दिल्ली में सामाजिक न्याय परिषद आयोजित किया था। इस परिषद का मुख्य एजेंडा जाति आधारित जनगणना और देश की संघीय व्यवस्था से जुड़े सवाल थे। इस परिषद में सभी भाजपा विरोधी मुख्य पार्टियों के प्रतिनिधि उपस्थित थे। यह आयोजन संकेत दे गया कि अब स्टालिन के नेतृत्व में अखिल भारतीय भाजपा विरोधी राजनीतिक गठबंधन साकार होगा और 2024 के चुनाव में भाजपा हार सकती है और स्टालिन के नेतृत्व में फुले-शाहू-पेरियार-आंबेडकरवादी सरकार की स्थापना हो सकती है।

(मराठी से अनुवाद चंद्रभान पाल, संपादन : राजन/नवल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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