मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में जन्मे बहुजन संत गुरु घासीदास का नाम गर्व से लिया जाता है। उनके सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोगों ने अपनी जातियां छोड़कर सतनामी पंथ स्वीकार किया। इनमें चमार, तेली, कुर्मी, लोहार, धोबी, गंडा और लोधी सहित बड़ी संख्या पिछड़े व दलित थे। गुरु घासीदास ने ‘मनखे-मनखे (मानव-मानव) एक बरोबर’ का सिद्धांत दिया था।
लोगों के बीच अपने सतनाम दर्शन के प्रसार के लिए गुरु घासीदास ने पंथी नृत्य की परिकल्पना की। द्विज वर्गों की पाखंडपूर्ण संस्कृति के बरअक्स यह एक सांस्कृतिक आंदोलन था, जिसमें नृत्य एवं गीत शामिल थे। इसका असर इतना व्यापक था कि लोगों ने जाति-बंधन तोड़ रोटी-बेटी का संबंध भी स्थापित किया। बुद्ध, कबीर, नानक, रैदास की तरह गुरु घासीदास भी वैज्ञानिक तर्क की कसौटी पर कसकर सतनामी आंदोलन चलाया। उनका कहना था कि “मंदिरवा में का करे जाबो अपन घट के ही देव ले मनाबो”। मतलब यह कि मंदिर में क्या करने जाओगे, अपने अंतस में झांको। ठीक यही बात बुद्ध ने कही थी– “अत्त दीपो भव:”। यानी अपना दीप स्वयं बनो। इसी तरह रैदास ने कहा था– “मन चंगा तो कठौत में गंगा”।
आगे गुरु घासीदास कहते हैं– “पथरा के देवता हाले नहीं डोले वो हाले नहीं डोले”। मतलब यह कि पत्थर का भगवान हिलता-डुलता नहीं है, उसकी क्यों पूजा कर रहे हो। इस तरह से गुरु घासीदास ने मूर्तिपूजा, चमत्कार, अंधविश्वास, कुरीतियों और ब्राह्मणवाद पर कड़ा प्रहार किया। उनके आंदोलन ने सतनामियों को सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से एकजुट किया। इसका असर आज भी छत्तीसगढ़ में देखा जा सकता है। वे संविधान प्रदत्त अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। वे छत्तीसगढ़ में आरक्षण सहित बहुजन समाज के सभी तरह के सामाजिक एवं संवैधानिक हित-अधिकार के लिए खड़े होते हैं।
कहना अतिशयोक्ति नहीं कि सतनामी पंथ ब्राह्मणवाद को आज भी कड़ी चुनौती देता है। इन सबके बावजूद आज के समय में सतनामी पंथ माननेवाला समाज एक जाति-विशेष में तब्दील हो गया है और एक तरह से सतनामी को अछूत बना दिया गया है। गुरु घासीदास द्वारा परिकल्पित पंथी नृत्य व गीतों में कबीर के दोहों की तरह समाज को जागृत करने वाली वैज्ञानिक वैचारिकी होती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से पंथी नृत्य में ब्राह्मणवादी चमत्कारिक गाथाएं शामिल कर दी गई हैं। इतना ही नहीं, गुरु घासीदास को चमत्कार दिखानेवाले बाबा के रूप प्रचारित किया जा रहा है।

हद तो यह कि गुरु घासीदास के जन्मस्थान गिरौदपुरी में भी उनके विचारों के विपरीत यज्ञ-अनुष्ठान आदि देखने को मिल जाता है। यह बिल्कुल वैसे ही होता है जैसे ब्राह्मणें के मंदिरों में होता है।
‘सतनाम दर्शन’ पुस्तक के लेखक एवं सामाजिक चिंतक टी.आर. खूटे बताते हैं कि गुरु घासीदास का सतनाम आंदोलन एक ‘जाति-तोड़क, समाज-जोड़क’ आंदोलन था। लगभग सौ प्रकार के जातियों के लोग इस आंदोलन में शामिल हुए और सतनामी बने तथा सतनामी कहलाए। उनके मुताबिक, 1881 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार हिंदू धर्म से अलग सतनाम पंथ को मानने वालों की गणना हुई थी, जिसमें सतनामियों की संख्या लगभग 3 लाख 56 हजार थी। यह एक स्वतंत्र पंथ था। वहीं 1931 की जनगणना में इसे अछूत श्रेणी में शामिल कर दिया गया।
बताते चलें कि 1925-26 में पंडित सुंदरलाल शर्मा, जिन्हें छत्तीसगढ़ का गांधी भी कहा जाता है, ने 72 सतनामियों को हिंदू बनाने के लिए कानपुर के ब्राह्मण सभा में ले गए थे, जिन्हें ब्राहमणों ने अपनी सभा से भगा दिया था। बाद में जबलपुर के पास भेड़ाघाट में उन सतनामियों का मुंडन संस्कार एवं जनेऊ धारण कराया गया था। वहीं से हिंदुकरण की प्रथा की शुरूआत हुई।

एक और तथ्य उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ के अकलतरा के रहने वाले नंदकेशर लाल टंडन ने एक कैलेंडर प्रकाशित कराया, जिसमें उन्होंने अपने ही चेहरे को गुरु घासीदास के चेहरे के रूप में प्रकशित कराया। यह काफी प्रचलित हुआ और यही चेहरा गुरु घासीदास के चेहरे के रूप में प्रचलन में आ गया। यह घटनाक्रम 1975 के बाद की है।
गुरु घासीदास मूर्ति पूजा के सख्त विरोधी थे। इसलिए गिरौदपुरी धाम जहां गुरु घासीदास की जन्मभूमि है वहां गुरु की गद्दी एवं पादुका (खड़ाऊं) है। यह भी उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी द्वारा गुरु घासीदास तपोभूमि गिरौदपुरी में कुतुबमीनार से ऊंचा जैतखाम बनाने का घोषणा की गई थी। इसके लिए बजट भी पास हो गया। लेकिन सूबे में सरकार बदल गई। भाजपा की रमन सिंह सरकार के राज में जैतखाम तो बना ही, लेकिन साथ ही जैतखाम से पहले मंदिर भी बना दिया गया और उसमें घंटा भी लगा दिया गया। यह आरएसएस द्वारा गुरु घासीदास के प्रांगण में पहला प्रवेश था।
वर्तमान में सतनाम पंथ एवं दर्शन से लोगों को जोड़ने के लिए किसी भी तरह की मुहिम नहीं चलायी जा रही है, जिससे आज की पीढ़ी सतनामी दर्शन को जान-समझ सके।
वर्तमान में गुरु घासीदास के विचार, सतनाम दर्शन व सतनामियत को फिर से जागृत करने की आवश्कता है। सतनामी को जाति की परिधि से बाहर रखने की आवश्यकता है, तभी गुरु घासीदास के महान समतावादी-न्यायवादी एवं वैज्ञानिक सोच पर आधारित सतनाम दर्शन समाज में फिर से जागृति विस्तार पाएगी।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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