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राजदंड से राजशाही अनुभूति पाने का अनैतिक लोभ

संघी खेमा जो भी करता है, उसे महान साबित करने वाली कहानियों को विश्वसनीय बना कर लोगों तक पहुंचाने में कभी कोई कमी नहीं करता। अब भी यही किया जा रहा है। जबकि लोग सवाल कर रहे हैं कि संसद भवन के उद्घाटन में भारतीय लोकतंत्र की प्रमुख द्रौपदी मुर्मू क्यों आमंत्रित नहीं हैं। बता रहे हैं भंवर मेघवंशी

यह सवाल उठना लाज़िमी है कि जब भारत एक संवैधानिक लोकतंत्र बन चुका है, जहां दंड की एकमात्र पद्धति संविधान के आधार पर तय होती है, ऐसे में धर्मदंड और राजदंड जैसे शब्दों की आवश्यकता ही क्या है। क्या किसी विशेष प्रकल्प के तहत भारत के राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तंभ के स्थान पर इस कथित राजदंड ‘सेंगोल’ को प्रस्थापित किया जा रहा है? आखिर यह राजदंड क्या है? इसकी प्राचीनता और प्रामाणिकता क्या है? यह किस राजतंत्र की पुरा संपत्तियों में पाया गया? मीडिया में जिस तरह से इसे चोल साम्राज्य से शुरू करके मौर्य शासन तक ले जा रहे हैं, वह भी बेहद हास्यास्पद है। लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि असली ‘सेंगोल’ या उसका मूल कहां संरक्षित है? क्या यह किसी जगह की खुदाई से मिला है या ऐसी परंपराओं का कहीं ज़िक्र मिलता है, जहां पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस प्रकार का ‘सेंगोल’ सत्ता हस्तांतरण के समय एक-दूसरे को सौंपा जाता था?

‘सेंगोल’ स्थापना की जिस तरह भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने घोषणा की और उसके बाद से मीडिया और आईटी सेल ने अपना काम शुरू किया तथा लगभग यह विमर्श खड़ा कर दिया है कि यह ‘सेंगोल’ भारत की पहचान रहा है प्राचीन उज्ज्वल अतीत का यह स्वर्णिम पृष्ठ है, जो कहीं कोने में दबा हुआ था या इतिहास के इस गौरवशाली प्रतीक को जानबूझकर छिपा लिया गया, या उपेक्षित रखा गया है। अब कहा यह जा रहा है कि इसे नरेंद्र मोदी खोजकर लाए हैं और नई संसद में स्थापित करके देश की महानसेवा कर रहे हैं।

संघी खेमा जो भी करता है, उसे महान साबित करने वाली कहानियों को विश्वसनीय बना कर लोगों तक पहुंचाने में कभी कोई कमी नहीं करता। अब भी यही किया जा रहा है। जबकि लोग सवाल कर रहे हैं कि संसद भवन के उद्घाटन में भारतीय लोकतंत्र की प्रमुख द्रौपदी मुर्मू क्यों आमंत्रित नहीं हैं, उनके हाथों यह लोकार्पण क्यों नहीं हो रहा है। विपक्ष के 19 दल इस बात को उठाते हुए संसद भवन के उद्घाटन कार्यक्रम में नहीं जा रहे हैं। इन सवालों का जवाब देने के बजाय ‘सेंगोल’ राग छेड़ दिया गया है, यह देश की जनता का ध्यान भटकाने के अलावा कुछ भी नहीं है।

सेंगोल, जिसे आनंद भवन, प्रयागराज से हटाकर नए संसद भवन में स्थापित किया जाना है

यह बहस तेजी पकड़ रही है कि कथित ‘सेंगोल’ की ऐतिहासिकता और जरुरत क्या है? क्या लोकतंत्र में संस्कृति के नाम पर ऐसी मूर्खताओं को बर्दाश्त किया जा सकता है? चूंकि किसी मठ के पुजारी ने दिल्ली आ कर यह सेंगोल (राजदंड) जवाहरलाल नेहरू को सौंपा, इसलिए वह वैधानिक नहीं हो जाता है। हमें यह भी सोचना होगा कि उस समय संविधान नहीं बना था, छोटी-छोटी रियासतों में राजा राज करते थे। क्या उन तमाम चीज़ों को फिर से दोहराए जाने की ज़रूरत महसूस होती है?

सवाल है कि क्या नरेंद्र मोदी वर्तमान के राजा हैं? संसद भवन उनका राजमहल है और जनता प्रजा है? आख़िर क्यों एक लोकतांत्रिक देश को ग़ुलाम भारत के राजतांत्रिक प्रतीकों की पुनर्स्थापना करनी चाहिए? ‘सेंगोल’ का जिस तरह महिमामंडन किया जा रहा है, उससे ऐसा लग रहा जैसे मोदी सरकार कोहिनूर भारत वापस ले आई हो, यह ‘सेंगोल’ न तो ऐतिहासिक है और न ही संपूर्ण भारत के जनमानस का प्रतिनिधित्व करता है। 

तर्क दिया जा रहा है कि दक्षिण के चोल साम्राज्य में ऐसा राजदंड अपने उत्तराधिकारी को सौंपने का प्रचलन था, इसके पक्ष में कोई अकाट्य प्रमाण नहीं दिए गए है। बस सुनी-सुनाई बातें और वही काल्पनिक पौराणिक किस्सेबाजी ही काम में ली जा रही है। हो सकता हो कि सभी राजतंत्रों में यह प्रथा रही हो, कहीं दंड तो कहीं तलवार सौंपते रहे हों, धातु सौंपने के अलावा कुछ था भी नहीं कि ज्ञान-विज्ञान का कोई भंडार सौंपते या कला-साहित्य-संस्कृति का कोई ख़ज़ाना देते। ऐसा कुछ जब था ही नहीं तो बस यह राजदंड सौंपकर ही परंपरा का निर्वहन किया जाता था, ताकि राजा को दंडाधिकारी होने का गर्व प्राप्त हो सके।

अब सवाल यह भी है कि मोदी किससे उत्तराधिकार ले रहे हैं? क्या संसद भवन का यह उद्घाटन भारत की नई आज़ादी है, जिसके लिए इलाहाबाद के म्यूज़ियम से इस ‘सेंगोल’ को खोजना पड़ा? वैसे भी यह कोई प्राचीन वस्तु नहीं है कि चोल वंश के राजाओं का असली पुश्तैनी राजदंड नेहरू को मिला हो। यह बाज़ार से बनवाकर मंगवाया गया था। नेहरू ने उसे महत्व नहीं दिया और संग्रहालय में रखने की वस्तु मानकर एक तरफ़ रखवा दिया।

खैर, अतीतजीविता से ग्रस्त और नेहरू की नक़ल में व्यस्त वर्तमान शासकों को राजशाही वाली अनुभूति चाहिए और इसलिए राजदंड का दिखावा किया जा रहा है। फिर यह सवाल तो है कि क्या यह किसी अंधविश्वास से जुड़ी बात है या सत्ता की हनक है, अथवा चमकीली धातुओं के प्रति मोह या निपट जड़ता? क्या कहा जाए इसे?

 (संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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