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बहुजन राजनीति की विफलताएं, वजहें और निदान

डॉ. आंबेडकर और डॉ. लोहिया के परिनिर्वाण के बाद क्षेत्रीय स्तर पर क्षेत्रीय नेताओं के उदय ने गैर-ब्राह्मण आंदोलन को और विभाजित कर दिया। इस प्रकार अखिल भारतीय स्तर पर बहुजनवादी गैर-ब्राह्मण राजनीति का पतन होता गया। बता रहे हैं बापू राऊत

बहुजनवाद सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक असमानता और भारत के हाशिए पर रहनेवाले समुदायों, विशेष रूप से दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के सामूहिक संघर्ष की एक प्रणाली है। इसका लक्ष्य उच्च जातियों के प्रभुत्व को चुनौती देते हुए राजनीतिक प्रतिनिधित्व, आर्थिक अवसर और सामाजिक न्याय के माध्यम से इन समुदायों को सशक्त बनाना है। हालांकि, अपने ऊंचे लक्ष्यों के बावजूद इसे कई चुनौतियों और सीमाओं का सामना करना पड़ता है। बहुजन समुदाय जनसंख्या में अधिक होने के बावजूद सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से वंचित है। इसका कारण वे धर्मशास्त्रीय और पुरोहिती भारतीय ढांचा है, जिसे वे स्वीकार करते हैं। इससे पैदा हुई रुकावटों के कारण ही बहुजनवाद की राजनीतिक गति बाधित होती रहती है।

आजादी से पहले और आजादी के बाद के दौर में स्थापित पार्टियों में ऊंची जाति के लोगों का दबदबा ज्यादा था। इसलिए गैर-ब्राह्मणों की संख्या अधिक होने पर भी उन्हें विधानमंडल में स्थान नहीं मिल रहा था। यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि जोतीराव फुले द्वारा 1873 में स्थापित सत्यशोधक समाज एक गैर-राजनीतिक सामाजिक संगठन था और इस कारण वह प्रत्यक्ष राजनीति के लिए उपयोगी नहीं था। इसकी एक वजह यह भी थी कि तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियां अनुकूल भी नहीं थीं और फुले का जोर जाति-धर्म पर आधारित भेदभाव, पाखंडवाद आदि सामाजिक समस्याओं को खत्म करने पर था। बाद में कांग्रेस और मुस्लिम लीग की स्थापना हुई और ब्रिटिश सरकर भी भारतीयों को राजनीतिक हिस्सेदारी देने की तरफ आगे बढ़ रहे थे। ऐसी स्थिति में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के ऊंची जातियों के राजनीतिक वर्चस्व को चुनौती देने के लिए मराठों, ओबीसी और वंचित समुदायों के हितों की रक्षा करने व उन्हें राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी देने की दृष्टि से 1917 में गैर-ब्राह्मण पार्टी का गठन किया गया। यह पार्टी तमिलनाडु की जस्टिस पार्टी की तर्ज पर गठित की गई थी। इस पार्टी के प्रमुख संगठनकर्ता छत्रपति शाहूजी महाराज थे और उनके नेतृत्व में ही यह पार्टी अपनी गतिविधियों का संचालन करती थी। 

इस गैर-ब्राह्मण पार्टी का उद्देश्य दोहरा था– शिक्षा के माध्यम से असंबद्ध लोगों को आत्मनिर्भर बनाना और राजनीतिक व सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना। लेकिन इस गैर-ब्राह्मण पार्टी के कई सदस्य जैसे अन्नासाहेब लट्ठे (9 दिसंबर, 1878 – 16 मई, 1950) और वालचंद कोठारी (13 सितंबर, 1872 – 10 फरवरी, 1974) सत्यशोधक समाज के विचारों के प्रति गंभीर नहीं थे। हालांकि जेधे बंधु, भास्करराव जाधव, खंडेराव बागले और दिनकर जवलकर जैसे सत्यशोधक भी इसमें शामिल थे। इसके बावजूद वे समानतावादी बहुजन समाज का निर्माण नहीं कर सके, जो कि शाहूजी महाराज की कल्पना थी। 

6 मई, 1922 को शाहूजी महाराज के परिनिर्वाण के बाद, इन नेताओं ने सत्यशोधक समाज से दूरियां बनाकर अपनी भूमिका बदल दी और गांधी की कांग्रेस (1922-24) में अपनी पार्टी का विलय कर दिया। इस प्रकार फुले और शाहूजी महाराज द्वारा प्रारंभ किए गए बहुजनवादी गैर-ब्राह्मण आंदोलन का एक अध्याय बंद हो गया। 

बहुजन राजनीति के लिए अलग-अलग खेमों में बंटना खतरनाक

बहुजन राजनीतिक आंदोलन का दूसरा अध्याय डॉ. आंबेडकर और राममनोहर लोहिया से शुरू होता है। दोनों बहुजनों और वंचित वर्गों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय लाना चाहते थे। उसके लिए उन्होंने सामाजिक जागरूकता, अधिकारों की मांग तथा राजनीतिक सत्ता में भागीदारी के लिए आंदोलन किया। इस कड़ी के प्रथम चरण में आंबेडकर ने जाति और पूंजीवादी संरचनाओं का विरोध एंव भारतीय श्रमिक वर्गो के हितों के लिए 15 अगस्त, 1936 को इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी गठित की। इस पार्टी द्वारा डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में स्वतंत्रता-पूर्व करीब बीस हजार किसान और मजदूरों का कोंकण से मुंबई तक विशाल मार्च निकाला गया था। 1942 में उन्होंने दलित समुदायों के अधिकारों के लिए अभियान चलाने हेतु था शेड्यूल कास्ट फेडरेशन (अनुसूचित जाति परिसंघ) की स्थापना की। वहीं दूसरी ओर लोहिया, 1934 में गठित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य थे और आजीवन सामाजिक न्याय के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध समाजवादी ही रहे। 

लेकिन डॉ. आंबेडकर का सपना संपूर्ण बहुजन समाज की राजनीति का सपना था, इसीलिए उन्होंने बहुजन समाज के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्या के समाधान के उद्देश्य से बहुजन विचारधारा पर चलनेवाली “रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया” (आरपीआई) की स्थापना की। इस पार्टी का गठन इस स्थिति में किया गया था कि, कांग्रेस और उच्च जाति के दल बहुजन समाज के समग्र विकास की अनुमति नहीं देंगे। लेकिन डॉ. आंबेडकर ने भारतीय संविधान के माध्यम से आरक्षण, महिलाओं के अधिकारों और राजनीतिक सत्ता में भागीदारी के माध्यम से बहुजन समुदाय के सशक्तिकरण के प्रावधान किए। 

6 दिसंबर, 1956 को डॉ. आंबेडकर और 12 अक्टूबर, 1967 को डॉ. लोहिया के परिनिर्वाण के बाद क्षेत्रीय स्तर पर क्षेत्रीय नेताओं के उदय ने गैर-ब्राह्मण आंदोलन को और विभाजित कर दिया। इस प्रकार अखिल भारतीय स्तर पर बहुजनवादी गैर-ब्राह्मण राजनीति का पतन होता गया।

बेशक कांशीराम के काल में बहुजनवाद को नई धार मिली। उनके बहुजनवाद ने ओबीसी और वंचित समुदायों को आकर्षित किया और उन्हें राजनीतिक सत्ता में भागीदार बनने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए उन्होंने डॉ. आंबेडकर के विचारों के आधार पर 6 दिसंबर, 1978 को बामसेफ का निर्माण किया। इसके पीछे मुख्य एजेंडा समाज बौद्धिक संपदा, धन और प्रतिभा की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित कर बहुजनों को शिक्षित करना और उन्हें इतना शक्तिशाली बनाना था कि वे राजनीतिक सत्ता पर कब्जा कर सकें। उन्होंने सीमित राजनीति के लिए 1981 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) की स्थापना की। इस संगठन ने उत्तर और दक्षिण भारत के लोगों पर प्रभाव डाला। बाद में उन्होंने बामेसफ का गठन किया। लेकिन इसे  भी बीच भंवर छोड़कर उन्होंने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का गठन किया। इस तरह उन्होंने आरएसएस की तर्ज पर मातृसंगठन बनाने के अपने ही सपने को हाशिए पर छोड़ दिया। यह बहुजन समाज के सर्वांगीण विकास के लिए बहुत बड़ा झटका था। 

फिर भी, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सत्ता और कुछ राज्यों में राजनीतिक सफलता बहुजनवाद की एक छोटी-सी सफलता थी। लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और एच.डी. देवेगौड़ा के नेतृत्व का उदय बहुजनवाद से ही हुआ। लेकिन इस बहुजनवाद के दीर्घकालिक प्रणाली का हिस्सा बनने में कई बाधाएं और सीमाएं हैं। 

बहुजनवाद के विफल होने के कारणों पर ईमानदारी से विचार करने की आवश्यकता है। मसलन, सांप्रदायिक विखंडन और एकता की कमी। यद्यपि बहुजनवाद विविध समुदायों का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी जाति पदानुक्रमता, एकता के कारण प्रमुख जातियों के अपने विशेषाधिकार खोने का डर और परस्पर विरोधी हितों के चलते अविश्वास के कारण एकता की कमी सामने आती है। दूसरा अहम कारण संसाधनों की कमी। यह स्वीकार करने में कोई अतिरेक नहीं होना चाहिए कि आंदोलनों में दीर्घकालिक राजनीतिक लामबंदी को बनाए रखने के लिए वित्तीय और संस्थागत संसाधनों की आवश्यकता होती है। तीसरा कारण सीमित संगठनात्मक संरचना है। बहुलतावादी राजनीतिक दलों और आंदोलनों की संगठनात्मक ताकत और पहुंच स्थापित राजनीतिक दलों की तुलना में कमजोर है। चौथी वजह चुनावी चुनौतियां और सीमित सफलता कही जा सकती है। वजह यह कि बहुजन समाज के बड़ा वोटबैंक होने के बावजूद, बहुजन पार्टियां अपनी संख्यात्मक शक्ति को चुनावी सफलता में बदलने में असमर्थ रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप अप्रभावी सीमित सफलता मिली है। 

पांचवीं वजह बहुजनवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में विफलता और महिलाओं, ओबीसी और इसी तरह के वंचित वर्गों को इसका लाभ पहुंचाने में असफलता को माना जाना चाहिए। इसके अलावा प्रभावी नेतृत्व और संगठन का अभाव भी विफलता की अहम वजह है। यह तो स्वीकार करना ही होगा कि राष्ट्रीय स्तर पर करिश्माई, ईमानदार और संगठित नेताओं की अनुपस्थिति व कैडर आधारित संगठन की कमी रही है, जो मौजूदा सत्ता संरचनाओं को प्रभावी ढंग से चुनौती दे सके। साथ ही, पार्टी अनुशासन और संगठन में पारदर्शिता की कमी के कारण जनता के विश्वास में कमी भी कारण है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। 

स्वतंत्रोत्तर बहुजनवादी आंदोलनों की विफलता के कारण में नेताओं का अवसरवादी होना एक बड़ा कारण है। बहुजन जनता नेताओं के लिए अपना तन-मन-धन सब झोंक देती है, लेकिन ऐसे नेता जनता को भुलाकर अपना धन और कद बढ़ाने का प्रयास करते हैं। इसके अलावा समाज के सर्वांगीण विकास के लिए निर्मित राजनीतिक पार्टी, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आदि संगठनों के नियमन और देखरेख के लिए मातृसंगठन की जरूरत होती है। ठीक वैसे ही जैसे देश में आरएसएस काम करता है। बहुजनवादियों के पास ऐसे संगठन की कमी है। बामसेफ में क्षमता थी जो यह भूमिका का निर्वहन कर सकता था, लेकिन वह नियामकता, व्यक्ति विशेषता पर जोर, पदो का विकेंद्रीकरण और पारदर्शिता के अभाव  के कारण भरोसेमंद नहीं रह पाया है। 

निश्चित तौर पर बहुजनों की कई पार्टियों का होना है। बहुजन वंचित वर्ग के कई गुट और पार्टी संरचनाएं हैं। इससे सकारात्मक सामूहिक राजनीतिक लड़ाई की संभावनाएं कम हुई हैं और बहुजन वंचित पार्टी के कुछ नेता भाजपा और संघ के करीबी बन गए हैं, जो संवैधानिक समतावादी व्यवस्था के विरोधी हैं। इसने एकीकृत राजनीतिक आंदोलन का बड़ा निर्माण करना कठिन बना दिया है, जिससे प्रभावी पार्टियां और संगठनों को चुनौती दी जा सके। 

ऐसे में बहुजन राजनीति की असफलता में अपना समय व्यतीत करने के बजाय बहुजन जनता के विकेंद्रीकृत सामाजिक और आर्थिक विकास के मुद्दे पर ध्यान केंद्रित कर देना चाहिए। वर्तमान सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक स्थिति पर विचार करें, तो देश अलोकतांत्रिक, असमान अतीतपरक गौरव, संविदावाद और पूंजीवाद की ओर बढ़ रहा है, जहां से वह तेजी से धार्मिक उत्पीड़न की तरफ बढ़ रहा है। 

जाहिर तौर पर बहुजन समाज के लिए अलोकतांत्रिक विषमता और पूंजीवादी राजनीति विनाशकारी होगी। इस स्थिति को बदलने की जरूरत है। सवाल यह है कि, इस स्थिति को बदलने का तरीका क्या हो? विभाजित बहुजन आंदोलन और उसकी राजनीति ऐसी बढ़ती हुई कट्टर धर्मांध राजनीति को रोक नहीं सकता। लेकिन इसमें बहुजनों के वोटबैंक की राजनीति ही कुछ अच्छा कर सकती है। उसके लिए अवसरवादी राजनीतिक नेताओं की कमियों को उजागर कर बलिदान की भावना रखनेवाले बुद्धिजीवियों को चाहिए कि वे बहुजन-वंचित वर्गों के विकास के लिए आगे आएं।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

बापू राउत

ब्लॉगर, लेखक तथा बहुजन विचारक बापू राउत विभिन्न मराठी व हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लिखते रहे हैं। बहुजन नायक कांशीराम, बहुजन मारेकरी (बहुजन हन्ता) और परिवर्तनाच्या वाटा (परिवर्तन के रास्ते) आदि उनकी प्रमुख मराठी पुस्तकें हैं।

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