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‘समान नागरिक संहिता आदिवासी संस्कृति और परंपराओं के लिए खतरा’

आदिवासी समुदाय को समान नागरिक संहिता के दायरे में लाना आदिवासी समुदाय के लिए किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। इसके लागू होने से संवैधानिक संकट पैदा होगा। साथ ही देश की विविधता की एकता को चोट पहुंचेगा। बता रहे हैं मध्य प्रदेश के मनावर विधानसभा क्षेत्र से विधायक डॉ. हिरालाल अलावा

[प्रस्तुत प्रतिक्रिया डॉ. हिरालाल अलावा, सदस्य, मध्य प्रदेश विधानसभा के गत 30 जून, 2023 को भारतीय विधि आयोग (22वीं) के सदस्य सचिव को लिखे गए पत्र पर आधारित है। मूल पत्र में आंशिक संशोधन कर इसे पाठकों के लिए पठनीय बनाया गया है]

बाइसवें विधि आयोग द्वारा समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के संबंध में विज्ञप्ति जारी करने के पश्चात देश भर के आदिवासी समुदायों में इसका कड़ा विरोध होने लगा है। सर्वविदित है कि आदिवासी समाज के परंपराओं, प्रथागत कानूनों, पद्धतियों, रीति-रिवाजों, स्वशासी कानूनों, पहचान एवं अन्य अधिकारों को संविधान में विशेष संरक्षण मिला है। लेकिन समान नागरिक संहिता (यूसीसी) आदिवासी समाज को संविधान में मिले विशेष अधिकारों के प्रति आशंकित करता है।

मेरा मानना है कि आदिवासी समाज के परिप्रेक्ष्य में यूसीसी देश की विविधता में एकता पर गंभीर चोट करेगा, और निम्नलिखित कारणों से देश के समक्ष एक बड़ी संवैधानिक संकट की स्थिति उत्पन्न करेगा–

1. आदिवासी समाज के अपने रीति-रिवाज और परंपराएं हैं तथा उन्होंने अपनी सामाजिक और राजनीतिक प्रणालियां विकसित किए हैं। वे अपने स्वयं के प्रथागत कानून से अपने सामाजिक जीवन को नियंत्रित करते हैं। उनकी सांस्कृतिक विशिष्टता विविध भाषा, लिपि, पोशाक, नृत्य, संगीत, सामाजिक व्यवस्था, भोजन, रीति-रिवाजों और परंपराओं आदि में प्रकट होती हैं। इस तरह की विविधताओं के बावजूद वे व्यापक भारतीय संस्कृति में विविधता में एकता के परिचायक हैं।  

विवाह और तलाक

विवाह के संबंध में, आदिवासियों के विभिन्न प्रथागत कानून हैं। विवाह जोड़े प्राप्त करने के तरीके अलग-अलग हैं। अधिकांश आदिवासी समुदाय अंतर्विवाह और गोत्र बहिर्विवाह को प्राथमिकता देते हुए पितृवंशीय और एकपत्नी प्रथा का पालन करते हैं। जबकि कुछ आदिवासी समुदाय, विशेष रूप से मेघालय की गारो, खासी और जयंतिया जनजाति मातृवंशीय हैं। गारो में सबसे छोटी बेटी (नोकना), खासी में (खादुह) संपत्ति का उत्तराधिकारी होती है। एक तरफ, गारो और खासी में पति पत्नी के साथ रहने पत्नी के यहां जाता है, तो जयंतिया में शादी के बाद पति-पत्नी दोनों अपने-अपने माता-पिता के साथ रहना जारी रखते है, और पति अपने ससुराल में पत्नी से मिलने आता रहता है। वहीं असम और अरुणाचल के मिकिर जनजाति में यदि लड़की उत्तराधिकारिणी और इकलौती बेटी है, तो वह विवाह के बाद भी अपना घर नहीं छोड़ती है। हालांकि अधिकांश आदिवासियों (जैसे गोंड, भील, हलबा, सहरिया, कोरकू, संथाल, उरांव, मुंडा, हो आदि) में एकपत्नी प्रथा है, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों, जैसे बांझपन, पागलपन आदि मामले में द्विविवाह/बहुविवाह की अनुमति दी जाती है। लेकिन कुछ आदिवासी समुदाय जैसे– गारो, हिमाचल प्रदेश के किन्नौरा, गद्दी जनजाति, उत्तराखंड के जौनसार बावर और खस जनजाति और अरूणाचल में गाइलोंग, तमिलनाडु के नीलगिरी में टोडा, केरल में माला आर्यन जनजाति में बहुपतित्व/बहुविवाह की प्रथा प्रचलित है, तथा कुछ संबंधों के बीच परहेज के नियम भी हैं, लेकिन ये एक समान नहीं हैं। ज्यादातर मामलों में महिला की सहमति मायने रखती है। तलाक अपेक्षाकृत आसान है, लेकिन इसके लिए वैध आधार और कुछ दायित्वों की पूर्ति जरूरी है। आदिवासी समाज में विधवा और विधुर दोनों के लिए पुनर्विवाह के विकल्प मौजूद हैं। तलाक व पुनर्विवाह के लिए विभिन्न जनजातियों में अलग-अलग रिवाज हैं। 

इनमें से अधिकांश जनजातियों के अपने कानून संहिताबद्ध/दस्तावेजीकृत नहीं हैं। ऐसे में कई जनजातियों के रीति-रिवाजों, परंपराओं को जानना कठिन है, पर वे समाजिक स्तर पर लोक-व्यवहार में बनी हुई हैं। मेघालय में विविधता को ध्यान में रखते हुए, 21वें विधि आयोग ने पारिवारिक कानून में सुधार (2018) पर अपने परामर्श पत्र के पैरा 1.33 में कहा है– 

“हालांकि ऐसे रीति-रिवाज मुख्यधारा की नैतिकता की धारणाओं में फिट नहीं हो सकते हैं, लेकिन इन्हें मेघालय में सामान्य प्रथाओं के रूप में माना जाता है और ऐसे विवाहों को मेघालय अनिवार्य विवाह पंजीकरण अधिनियम 2012 के तहत अनिवार्य रूप से पंजीकृत किया जाता है, जो आदिवासी संस्कृतियों में अंतर को पहचानता है। इस प्रकार, धर्मनिरपेक्षता बहुलता का विरोधाभासी नहीं हो सकती। यह केवल सांस्कृतिक मतभेदों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को सुनिश्चित करता है …”

बांस से दैनिक उपयोग की वस्तुओं का निर्माण करतीं ओडिशा की आदिवासी महिलाएं

उत्तराधिकार और विरासत 

भारत के सभी आदिवासी समुदायों में उत्तराधिकार/विरासत की पद्धति भी काफी विविधतापूर्ण है। अधिकांश पैतृक वंशानुक्रम का तो कुछ मातृवंशीय पद्धति का पालन करते हैं। जबकि कुछ पितृवंशीय-मातृवंशीय के अपवाद भी हैं, जिसे द्विपक्षीय पद्धति कहते हैं। आदिवासियों में संपत्ति की अवधारणा बहुत कठोर है। चल संपत्ति में मवेशी, धान, धन, कपड़े, आभूषण, कृषि उपकरण, आदि शामिल हैं। जबकि, अचल संपत्ति में मुख्य रूप से भूमि, पेड़, कुएं, टंकी और तालाब आदि शामिल है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़िशा, झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, तेलंगाना आदि में पितृवंशीय जनजातियां जैसे– गोंड, कोरकू, भील, हलबा, मुंडा, संथाल, हो, उरांव, बथुडी, कोरकस, इरुला, येरुकला इत्यादि; हिमाचल प्रदेश के गद्दी, किन्नौरा; उत्तराखंड के जौनसारी आदि का मानना है कि पैतृक संपत्ति उनके कबीले से बाहर नहीं जाती है। इसलिए, बेटियों और विधवाओं को संपत्ति विरासत में नहीं मिलती है। हालांकि, उन्हें विवाह तक या जीवन भर के लिए उपभोग/भरण-पोषण का अधिकार प्रदान किया जाता है। लेकिन पैतृक संपत्ति अलग करने का अधिकार नहीं है। वहीं न्यायालय और सरकार द्वारा यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 14, 21 और लिंग आधारित भेदभाव के आलोक में संशोधन किया जा सकता है। लेकिन यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि आदिवासी भूमि का हस्तांतरण गैर-आदिवासी को न हो, आदिवासियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो और संविधान की 5वीं अनुसूची तथा पेसा कानून, 1996 का उल्लंघन न हो। 

वहीं मेघालय, केरल और लक्षद्वीप में उत्तराधिकार और विरासत में मातृवंशीय पद्धति का पालन करते हैं। मेघालय के खासी, गारो और केरल-तमिलनाडु की सीमाओं पर रहने वाले कादर, पुलायन, कुरिद्रिया, कनिक्कर, मन्नान आदि और लक्षद्वीप के मूल निवासी हैं। केरल में मातृवंशीय व्यवस्था को मरुमक्कथायम कहा जाता है। निकोबारियों में भी उत्तराधिकार का पैटर्न मातृवंशीय है। गारो में, समाज जिस धुरी पर घूमता है वह माचोंग है, जिसका अनुवाद कर्नल डाल्टन ने ‘मातृत्व’ के रूप में किया है। लक्षद्वीप में तारावाद जनजाति सामान्य मातृवंशीय है। अधिकार, महिला सदस्यों के माध्यम से गुजरता है; एक पुरुष सदस्य के पास तरावाड़ संपत्ति (पैतृक घर) पर केवल उपभोग का अधिकार होता है। कुछ ऐसे जनजातीय समूह हैं, जिनमें विरासत पुरुष या महिला में से किसी एक को पसंद के आधार पर दी जा सकती है। मध्य निकोबारियों में प्रचलित वंशानुक्रम के इस पैटर्न को मकलानी नाम से जाना जाता है, जिसके अनुसार, परिवार का मुखिया सारी संपत्ति का मालिक होता है और यह उस पर निर्भर करता है कि वह अपनी मृत्यु के बाद अपनी संपत्ति किसे देगा। वहीं ग्रेट निकोबार के शोम्पेन जनजातीय समाज में विरासत का पैटर्न भी द्विपक्षीय है। इसका अर्थ है कि बच्चों का सामाजिक जुड़ाव पिता और माता दोनों से होता है। यदि कोई शोम्पेन लड़का शादी के बाद अपने पिता के साथ रहता है, तो उसे अपने पिता की संपत्ति पाने का अधिकार है। यदि लड़का पत्नी के साथ रहने के लिए अपना मूल परिवार छोड़ देता है तो, मूल परिवार की संपत्ति में लड़के का अधिकार समाप्त हो जाता है। इस प्रकार, देखें तो आदिवासी विरासत के संदर्भ में भी बहुत विविध हैं, और विरासत के सभी प्रकार प्रचलित हैं। इसी प्रकार गोद लेना, भरण-पोषण और संरक्षण के भी अलग-अलग नियम प्रचलित हैं।

यदि इन विविध परंपराओं और कानूनों में किसी प्रकार की विसंगति है तो उन्हें दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। लेकिन यूसीसी के नाम पर एक जैसा कानून थोपा जाना न तो आदिवासियों और ना ही राष्ट्र के हित में होगा।

उल्लेखनीय है कि टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि– 

“भारत में धर्मनिरपेक्षता का सार विभिन्न भाषाओं और विभिन्न मान्यताओं वाले विभिन्न प्रकार के लोगों की मान्यता और संरक्षण है, और उन्हें एक साथ रखना है ताकि संपूर्ण अखंड भारत का निर्माण करना है। इस प्रकार, एक एकजुट राष्ट्र में आवश्यक रूप से एकरूपता की आवश्यकता नहीं है, यह मानवाधिकारों पर कुछ सार्वभौमिक और निर्विवाद तर्कों के साथ विविधता का सामंजस्य बना रहा है।”

आदिवासी परंपराओं, रिवाजों, पहचान, अधिकार एवं प्रथागत कानूनों को भारतीय संविधान में मान्यता दी गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इनकी वैधता को स्वीकार किया है। 

2. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(4) के तहत आदिवासी समुदाय की परंपराओं, रूढ़ियों, रीति-रिवाजों एवं विवादों को निपटाने की पद्धतियों को मान्यता दी गई है और उसका संहिताकरण कर रूढ़िजन्य विधि संहिता का प्रावधान है। संविधान की 5वीं अनुसूची एवं 6वीं अनुसूची में दिए गए विशेष प्रावधानों के अनुसार राष्ट्रपति या राज्यों के राज्यपालों को रूढ़िजन्य विधि संहिता को कानूनी स्वरूप दिए जाने का अधिकार है। आदिवासियों के परंपराओं, रूढ़ियों, रीति-रिवाजों, विवाह, जन्म-मृत्यु संस्कार, उत्तराधिकार एवं प्रथागत कानूनों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13(3)(क) में भी मान्यता दिया गया है। 

3. आदिवासी समुदाय संविधान के अनुच्छेद 244 की 5वीं और 6वीं अनुसूची के तहत संरक्षित है। इसके अलावा, देश के आदिवासियों, पूर्वोत्तर एवं अन्य राज्यों में, के सुरक्षा और उत्थान के लिए कई अन्य विशेष प्रावधान भी हैं। यूसीसी इसके खिलाफ है।

4. देश के 16 राज्यों में लगभग 75 से अधिक विशेष रूप से कमजोर जनजाति समूह आदिम जनजातियों के उत्थान एवं विकास के लिए भारतीय संविधान में, संसद एवं विधानमंडलों के नियम-कानूनों में विशेष प्रावधान किए गए हैं। 

5. भारत की संसद द्वारा पारित पेसा कानून 1996 की धारा 4 क, ख, ग, घ, में जनजातीय समुदाय से संबंधित निम्नलिखित प्रावधान दिए गए हैं–

संविधान के भाग 9 के अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य का विधानमंडल, उक्त भाग के अधीन ऐसे कोई विधि नहीं बनाएगा, जो निम्नलिखित विशिष्टियों में से किसी से असंगत हो, अर्थात –
(क) पंचायतों पर कोई राज्य विधान जो बनाया जाए रूढ़िजन्य विधि, सामाजिक और धार्मिक पद्धतियों और सामुदायिक संपदाओं की परंपरागत प्रबंध पद्धतियों के अनुरूप होगा;
(ख) ग्राम साधारणतया आवास या आवासों के समूह अथवा छोटा गांव या छोटे गांवों के समूह से मिलकर बनेगा, जिसमें समुदाय समाविष्ट हो और जो परंपराओं तथा रूढ़ियों के अनुसार अपने कार्यकलापों का प्रबंध करता हो;
(ग) प्रत्येक ग्राम में एक ग्राम सभा होगी, जो ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनेगी जिनके नामों का समावेश ग्राम स्तर पर पंचायत के लिए निर्वाचक नामावलियों में किया गया है;
(घ) प्रत्येक ग्रामसभा, जनसाधारण की परंपराओं और रूढ़ियों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संपदाओं और विवाद निपटाने के रूढ़िजन्य ढंग का संरक्षण और परिरक्षण करने में सक्षम होगी;

लेकिन यूसीसी लाने की योजना पेसा कानून, 1996 के हित में भी साबित नहीं होगा।

6. आदिवासी राज्य नागालैंड को अनुच्छेद 371(ए), मिजोरम को अनुच्छेद 371(जी) समेत अन्य कई राज्यों को प्रथागत कानूनों पर विशेष सुरक्षा दी गई है। 5वीं एवं 6वीं अनुसूचित राज्यों में स्वायत्त जिला और क्षेत्रीय परिषदों, ग्रामसभाओं के रूप में स्वायत्तता प्राप्त है।

7. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित किया गया है। वर्तमान में, देश में 10 राज्यों में “अनुसूचित क्षेत्र” चिह्नित हैं। 4 राज्यों में “ट्राइबल क्षेत्र” चिह्नित हैं। इन राज्यों के अलावा अन्य राज्यों में भी आदिवासी बहुल क्षेत्रों को विशेष रूप से चिह्नित किया गया है। भारत में आदिवासी आबादी काफी विषम है और देश के कठिन भौगोलिक क्षेत्रों में निवास करती है। लोकुर समिति (1965) ने अनुसूचित जनजाति की पहचान के लिए पांच मानदंड बताए थे, जैसे, आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बड़े पैमाने पर समुदायों के साथ संपर्क में शर्म और सामान्य पिछड़ापन। इन्हीं आधारों पर एसटी की वर्तमान सूची तैयार की गई है। 

शासकीय नौकरियों, शिक्षा, एवं अन्य शासकीय संस्थाओं में आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यव्यस्था है। अनुच्छेद 344 के तहत संसद और विधानमंडलों में सांसद और विधायक पद के लिए आदिवासियों को आरक्षण दिया गया है। अनुच्छेद 275(1) जनजातीय उपयोजना के तहत आदिवासियों के लिए अलग बजट का प्रावधान है। अनुच्छेद 244(1) पांचवी अनुसूची के तहत कोई भी कानून अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासियों के परंपरा, प्रथागत कानून, रीति-रिवाज, इत्यादि में हस्तक्षेप नहीं करेगा। ऐसे में इसकी उपेक्षा कर यूसीसी लागू करने से संवैधानिक संकट पैदा होगा।

8. सुप्रीम कोर्ट का समता जजमेंट समेत अनेक फैसलों में आदिवासी पहचान, अधिकार, परंपरा, रीति-रिवाज और आदिवासी स्वायत्तता को मान्यता दी गई है। 

इस प्रकार इन सभी की उपेक्षा व सभी को अमान्य कर आदिवासी समुदाय को समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के दायरे में लाना आदिवासी समुदाय के लिए किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। इसके लागू होने से संवैधानिक संकट पैदा होगा। साथ ही देश की विविधता की एकता को चोट पहुंचेगा। भारत के संविधान में आदिवासी समुदाय को प्राप्त विशेष अधिकारों एवं मूल अधिकारों की अवहेलना कर राज्य के नीति के निदेशक तत्वों को थोपना ठीक नहीं।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

हिरालाल अलावा

दिल्ली के प्रसिद्ध ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्‍थान (एम्‍स)’ में असिस्टेंट प्रोफेसर रह चुके डॉ. हिरालाल अलावा आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन ‘जय आदिवासी युवा शक्ति’ (जयस) के राष्ट्रीय संरक्षक व मध्य प्रदेश के मनावर विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं

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