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समान नागरिक संहिता के बहाने मनु की दमनकारी संहिता को लादने की कोशिश : दीपंकर

डॉ. आंबेडकर चाहते थे कि समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को अपनाना या न अपनाना, नागरिकों के लिए ऐच्छिक रहना चाहिए। इक्कीसवें विधि आयोग का भी निष्कर्ष था कि यूसीसी न तो आवश्यक है और ना ही व्यवहार्य और इसकी जगह सभी वैयक्तिक कानूनों में लैंगिक न्याय और समानता सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त परिवर्तन और सुधार किए जाने चाहिए। बता रहे हैं भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य

मध्य प्रदेश के प्रवेश शुक्ला, जिसका एक आदिवासी के ऊपर मूत्र उत्सर्जित करते हुए वीडियो वायरल हो गया था, सत्ता पक्ष के लिए एक चुनावी बोझ बन गया और सरकार को उसके ऊपर कार्रवाई करनी पड़ी। ऐसे अपवादों को छोड़ कर सामाजिक भेदभाव, दमन, नफरत और हिंसा पर आधारित सामाजिक व्यवस्था, जिसमें मानवीय गरिमा और अधिकारों की संस्थागत वंचना आम है तथा जिसमें इन सबके लिए उत्तरदायी तत्वों को राजनैतिक संरक्षण दिया जाता है, वहां हम समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के मुद्दे को कैसे देखें? 

बाईसवें विधि आयोग ने इस विषय पर एक माह में आमजनों से राय मांगी है, लेकिन यह बताए बिना कि यूसीसी में क्या होगा?

इतिहास बताता है कि इस मुद्दे पर संविधान सभा में तीखी बहस के बाद यह निर्णय लिया गया था कि यूसीसी को राज्य की नीति निदेशक तत्वों में शामिल किया जाए, जिनका अनुपालन न तो अनिवार्य होता है और ना ही जिन्हें न्यायालयों के ज़रिए लागू करवाया जा सकता है। डॉ. आंबेडकर चाहते थे कि यूसीसी को अपनाना या न अपनाना, नागरिकों के लिए ऐच्छिक रहना चाहिए। इक्कीसवें विधि आयोग का निष्कर्ष था कि यूसीसी न तो आवश्यक है और ना ही व्यवहार्य तथा इसकी जगह सभी वैयक्तिक कानूनों में लैंगिक न्याय और समानता सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त परिवर्तन और सुधार किए जाने चाहिए। 

ऐसा अचानक क्या हो गया कि बाइसवां विधि आयोग इस मसले पर विचार करने को लेकर इतनी जल्दी में है?

जहां सरकार ने अब तक प्रस्तावित यूसीसी के स्वरूप और विषय-वस्तु के बारे में कोई ठोस प्रस्ताव या मसविदा जनता के सामने नहीं रखा है, वहीं संघ-भाजपा का प्रचारतंत्र मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने में जुट गया है तथा यूसीसी के विरोध को या तो मुसलमानों का तुष्टिकरण या उन्हें भड़काने का प्रयास बता रहा है। जबकि सच यह है कि यूसीसी का जितना विरोध मुस्लिम समुदाय की ओर से हो रहा है, उससे कई ज्यादा गुना ज्यादा विरोध मेघालय और नागालैंड जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों और पूरे देश के आदिवासी समुदायों द्वारा किया जा रहा है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और विधि पर संसद की स्थाई समिति के अध्यक्ष सुशील मोदी ने इस आशय के संकेत दिए हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों और ईसाईयों को यूसीसी के दायरे से बाहर रखा का सकता है। ठीक यही कारण है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने यूसीसी को नीति निदेशक तत्वों में शामिल किया था और अभी कुछ साल पहले (2018) इक्कीसवां विधि आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि यूसीसी न तो आवश्यक है और ना ही व्यवहार्य। यूसीसी से प्रथाओं और रीति-रिवाजों में विविधता के हनन का मसला हिंदुओं के लिए भी चिंता का विषय होना चाहिए, क्योंकि अलग-अलग क्षेत्रों में हिंदुओं के रीति-रिवाजों में जो अंतर है, वह गैर-हिंदू समुदायों से किसी तरह कम नहीं है।  

बजरंग दल का प्रदर्शन

इक्कीसवें विधि आयोग ने एकता के नाम पर एकरूपता को थोपने की बजाय, विविधता और समानता के बीच सामंजस्य स्थापित करने पर जोर दिया था। आश्चर्यजनक तो यह है कि आरएसएस के पूर्व मुखिया गोलवलकर ने भी भारत जैसे विशाल और विविधताओं से भरे देश में यूसीसी थोपने के प्रयास के विरुद्ध स्पष्ट चेतावनी दी थी। गोलवलकर ने 1971 में संघ के मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ के संपादक के.आर. मलकानी को दिए गए अपने एक लंबे साक्षात्कार में कहा था कि देश की एकता के लिए यूसीसी ज़रूरी नहीं है। लेकिन मोदी सरकार अपने ही विचारधारात्मक और प्रशासनिक पूर्ववर्तियों की चेतावनियों और सोच को दरकिनार कर इतनी हड़बड़ी में यूसीसी इसलिए लागू करना चाहती है, क्योंकि उसका मानना है कि वह किसी की भी चेतावनी को नज़रअंदाज़ करने की स्थिति में है। उसका मानना है कि यूसीसी देश के समक्ष उपस्थित गंभीर समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाने और समाज को सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण का सबसे अच्छा हथियार है।

समानता और न्याय सुनिश्चित करने के लिए विधिक सुधार एक सतत प्रक्रिया है और जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है, राज्य को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए और सभी समुदायों की महिलाओं के लिए लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने वाले कानून बनाने चाहिए। लेकिन अनुच्छेद 44 के क्रियान्वयन में भी राज्य एकतरफा कार्यवाही नहीं कर सकता और उसे सभी हितधारकों की सामूहिक भागीदारी और सहमति सुनिश्चित करनी होगी। अगर मोदी सरकार नीति निदेशक तत्वों के क्रियान्वयन में तेजी लाना चाहती है तो वह केवल अनुच्छेद 44 पर फोकस नहीं कर सकती। वह संविधान के अनुच्छेद 36 से लेकर 51 तक राज्य को दिए गए अन्य निर्देशों की अवहेलना नहीं कर सकती है। इन अनुच्छेदों में संविधान द्वारा राज्य को सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधन का अधिकार प्रदान करने, भौतिक संसाधनों के स्वामित्व और नियंत्रण को सामान्य जन-कल्याण के लिए व्यवस्था करने और कुछ ही व्यक्तियों के पास धन को संकेंद्रित होने से बचाने के निर्देश दिए गए हैं।

हम यह सोच कर अपना दिल बहला नहीं सकते कि भाजपा लैंगिक न्याय की स्थापना या नीति निदेशक तत्वों के प्रति अपने सम्मान के भाव से यूसीसी को लागू करने की हड़बड़ी में है। सच तो यह है कि यूसीसी का एजेंडा, मुसलमानों का खलनायकीकरण करने और समाज को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की व्यापक परियोजना का हिस्सा है। ‘लव जिहाद’ के विषाक्त मिथक को प्रसारित और प्रचारित किया जा रहा है तथा “मुस्लिम आबादी, हिंदुओं की आबादी से ज्यादा हो जाएगी” के निराधार और बेतुके नॅरेटिव का उपयोग कर यूसीसी को स्वीकार्य बनाने की कोशिशें हो रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी यह हास्यास्पद दावा कर रहे हैं कि बहुपत्नी प्रथा से आबादी में वृद्धि होती है। विपक्ष को चाहिए कि वह इस कुत्सित षड़यंत्र को सफल न होने दे और यह प्रयास करे कि बेरोज़गारी और जीवनयापन के बढ़ते खर्च से जनता किस कदर परेशान है, यह देशव्यापी विमर्श बने। विपक्षी दलों को संविधान के भारत को आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राज्य बनाने के लक्ष्य की राह के हर रोड़े को दूर करने का प्रयास करना चाहिए और सामाजिक दमन और हिंसा पर आधारित मनु की संहिता को देश पर लादने के हर प्रयास का विरोध करना चाहिए। हम सब लैंगिक न्याय और समानता के पक्षधर हैं। लेकिन यूसीसी के बहाने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और मुसलमानों को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने की राजनीति के खिलाफ हमें खड़ा होना होगा। 

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

दीपंकर भट्टाचार्य

दीपंकर भट्टाचार्य भाकपा (माले) लिबरेशन के महासचिव हैं।

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