h n

मल्लिकार्जुन खड़गे ने दिया है कांग्रेस को प्रभावशाली नेतृत्व : उदित राज

कांग्रेस भारत की पहली एक ऐसी पार्टी है जिसमें 50 प्रतिशत रिजर्वेशन एससी, एसटी, ओबीसी को नीचे बूथ लेवल से लेकर उपर तक किया है और संवैधानिक रूप से किया है। आप समझ सकते हैं कि किसी पार्टी ने ऐसा नहीं किया है। इसमें खड़गे जी का योगदान पूरा है। पढ़ें, पूर्व सांसद उदित राज का यह साक्षात्कार

साक्षात्कार

‘इंडिया’ के गठन की सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है? क्या अब यह मान लिया जाना चाहिए कि कांग्रेस अपने सामाजिक सरोकारों में दलित-बहुजनों के सरोकारों को प्राथमिकता देने को तैयार है? इसमें मल्लिकार्जुन खड़गे की भूमिका क्या है? 

देखिए, जो रायपुर में अधिवेशन हुआ था, उसमें एक बात बड़ी प्रमुखता से रखी गई और [पार्टी के] संविधान में संशोधन हुआ कि 50 प्रतिशत का आरक्षण लागू होगा, जिसमें पिछड़े, दलितों, अल्पसंख्यकों को हर पद पर बैठाया जाएगा। कांग्रेस भारत की पहली एक ऐसी पार्टी है जिसमें 50 प्रतिशत रिजर्वेशन एससी, एसटी, ओबीसी को नीचे बूथ लेवल से लेकर उपर तक किया है और संवैधानिक रूप से किया है। आप समझ सकते हैं कि किसी अन्य पार्टी ने ऐसा नहीं किया है। इसमें खड़गे जी का योगदान पूरा है। और यह भी कहा जा सकता है कि उनकी पहलकदमी से ही ऐसा हुआ कि इसमें सामाजिक न्याय को कांग्रेस ने समाहित कर लिया यानि अंगीकार कर लिया है, यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

कर्नाटक में दलित-पिछड़ा गंठजोड़ सामने आया और यह देखने को मिला कि किस तरह भाजपा को वहां हार मिली। क्या आपको नहीं लगता है कि इसमें खड़गे की भूमिका महत्वपूर्ण रही? साथ ही, क्या अब यह मान लिया जाय कि अब कांग्रेस इसी ढर्रे की राजनीति करेगी? वजह यह कि अगले साल लोकसभा चुनाव से पहले छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान आदि राज्यों में भी चुनाव होने हैं?

दलितों का वोट इस बार कर्नाटक के चुनाव में सर्वाधिक मिला है। यह एक कारण था जीत का। दलित-पिछड़ों का गठजोड़ उभरकर कर्नाटक में जो सामने आया है, इसमें खड़गे जी की भूमिका बहुत अच्छी रही। खड़गे जी की जो सोच है, कमिटमेंट है और फैसला लेने की जो क्षमता है, वह बहुत ज्यादा है। इसलिए वहां पर गुटबाजी होने के बावजूद में भी हम सफलतापूर्वक जीते और बड़े अंतर से जीते। वहां पूरा चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी हो गया था और मोदी को पटखनी मिली। कर्नाटक के चुनाव में भारी जीत के कारण दलित-पिछड़ा का जो गठजोड़ है, उसी तर्ज पर हम राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में चुनाव लड़ेंगे और वहां भी जीतेंगे। इसके बाद लोकसभा का चुनाव भी इसी तर्ज पर हम लड़ेंगे। लोगों को अब समझ में आ गया है कि एक तरफ मनुवादी और दूसरी तरफ सामाजिक न्याय की ताकत है।

कांग्रेस के वर्तमान स्वरूप के बारे में स्वयं दलित होने के नाते आप क्या कहेंगे? क्या अब इस दल में दलितों-पिछड़ों की हिस्सेदारी बढ़ी है? 

जहां तक कांग्रेस में दलितों-पिछड़ों की बात है तो एक चीज मैं जानता हूं कि चाहे वह राहुल गांधी जी हों या प्रियंका जी हों या पी.एल. पुनिया जी, इन लोगों का दिल बड़ा साफ है। गरीबों के लिए, दलितों के लिए कोई भेदभाव नहीं है। जब यूपीए की सरकार थी तो इतने क्रांतिकारी कार्य हुए, जिन्हें समाज ने खूब सराहा। जैसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून हो, सामाजिक सुरक्षा कानून हो, नरेगा कानून हो। इसके अलावा वेंडर एक्ट-2013 है। इतना ही नहीं, विनिर्माण के क्षेत्र के लिए वर्कर कंस्ट्रक्शन बोर्ड है। घरेलू कामगारों के लिए भी कानून बनाया गया। कांग्रेस ने इतने सारे काम आम लोगों के लिए किए हैं और कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि नरसिम्हा राव विनिवेश की नीति को लेकर आए। हां, यह सच है कि मनमोहन सिंह और नरसिम्हा राव इस नीति को लेकर आए। लेकिन यह सच है कि अपने समय में तीन केंद्रीय लोक उपक्रमों का निजीकरण कर किया गया था तो यह भी सच है कि 21 नए लोक उपक्रम बनाए भी गए थे। तो कई बार ये तथाकथित आंबेडकरवादी, जो नकारात्मकता की बात करतें हैं, वे कभी मुद्दे की लड़ाई नहीं लड़ते, केवल गाली देने, शोषण की कहानी कहते हैं, अपने अधिकार को लेकर लड़ते ही नहीं। 

यह सच है कि पार्टी में विचारधारा के आधार पर काफी बदलाव हुआ है। जैसा कि मैंने कहा कि रायपुर अधिवेशन में पार्टी ने यह महसूस किया। लेकिन सवर्ण हावी हैं और मुझे यह कहने से गुरेज नहीं कि वे जर्रे-जर्रे पर हावी हैं। उन्होंने घेर रखा है तो जो महत्व दलितों-पिछड़ों को मिलना चाहिए, वह यहां भी नहीं मिल रहा और कहीं भी नहीं मिल रहा है। कारण है कि कई पीढ़ियों से उनका एक सोशल कैपिटल बना हुआ है, जो हावी हो जाता है। दूसरा दलित-पिछड़े किसी भी दल में रहेंगे तो एक-दूसरे को काटने लगते हैं। एकजुट नहीं होते और आपसी अंतर्विरोध के चलते पीछे रह जाते हैं। 

उदित राज, पूर्व सांसद व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता

दलित वर्ग में अभी यह सवाल है कि ‘इंडिया’ में बसपा को शामिल करने की कोई कोशिश नहीं की गई। आखिर सच क्या है? क्या कांग्रेस चंद्रशेखर आजाद को अपने साथ शामिल करने के बारे में सोच रही है?

देखिए, जहां तक मायावती जी की बात है, पिछली बार उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के समय उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करके भाजपा को जीत दिलाई। अब तो हालत यह है कि वह सेंगोल हाथ में लेकर प्रधानमंत्री द्वारा संसद के नए भवन के उद्घाटन का समर्थन कर रही हैं। यह एक आंबेडकरवादी पार्टी का हाल है। सभी जानते हैं कि सेंगोल चोल राजाओं द्वारा ग्रहण किया जाता था। तो क्या यह राजतंत्र है? अब ऐसे कार्यों को भी मायावती जी समर्थन दे रही हैं तो क्या कहा जा सकता है। रही बात ‘इंडिया’ में शामिल करने की तो वे हमेशा से निगेटिव रही हैं। विपक्ष की एकता के लिए कई बार उनसे कहा गया, लेकिन वे हमेशा नकारात्मक रहीं और परोक्ष रूप से भाजपा का साथ दे रही हैं। 

राज्यों के स्तर पर बात करें तो अनेक छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल हैं, जिनका अपने-अपने क्षेत्रों में खासा प्रभाव माना जाता है। क्या इन क्षेत्रीय दलों के लिए ‘इंडिया’ में कोई भूमिका होगी?

तमाम राज्यों में जो छोटी पार्टियां हैं, उनका भाजपा ने बड़ा फायदा उठाया है। ये वे पार्टियां हैं, जिनके नेता कभी स्वयं तो कभी अपने किसी परिजन को एमपी या एमएलए बनाने के लिए समझौते कर लेते हैं। निश्चित तौर पर इनके पीछे इनकी जाति होती है। उनके हिस्से में चार-पांच सीटें होती हैं, उनके ऊपर भी भाजपा अपने लोगों को पैसा देकर भेजती है कि जाओ, जाकर सीट खरीद लो। लेकिन मुझे लगता है कि कांग्रेस को भी छोटे-छोटे दलों से बात करनी चाहिए। अभी तक कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया है।

कांग्रेस के रूख में कई बदलाव आए हैं। फिर चाहे वह जातिगत जनगणना का सवाल हो या फिर दिल्ली अध्यादेश के सवाल पर आम आदमी पार्टी का समर्थन का। इसके पीछे क्या कांग्रेस की मंशा केवल विपक्षी दलों को एकजुट करने तक सीमित है? या फिर कांग्रेस के पास कोई रोडमैप है?

जहां तक कांग्रेस के रूप में बदलाव की बात है तो यह सभी ने देखा है कि कैसे इसने जातिगत जनगणना का समर्थन किया। और यह देखिए कि रायपुर अधिवेशन में पार्टी ने हर स्तर पर पचास फीसदी आरक्षण के प्रस्ताव को मंजूरी दी। फिर एक प्रभावशाली दलित राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना। तो प्रत्यक्षं किं प्रमाणम्? जो सामने है उसके लिए प्रमाण की क्या आवश्यकता है? जातिगत जनगणना का सवाल महत्वपूर्ण है और सबके हित के लिए है। कांग्रेस ने यह देखा कि मनुवादी लोग अब भाजपा को वोट करेंगे तो उसने मनुवादियों को छोड़ दिया है।

भाजपा ‘इंडिया’ के खिलाफ एक नॅरेटिव गढ़ने का प्रयास कर रही है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह मोर्चा संभाल लिया है। इस संदर्भ में आप क्या कहेंगे? आखिर अपने नॅरेटिव की रक्षा ‘इंडिया’ के घटक दल कैसे करेंगे?

वह तो प्रधानमंत्री चौबीसों घंटे कर रहे हैं। ‘इंडिया’ के खिलाफ वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। वे पुलवामा करा सकते हैं, वे गोधरा करा सकते हैं, वे मणिपुर करा सकते हैं। वे तो इंडिया को आतंकवादियों से जोड़ रहे हैं। वे हर संभव निगेटिव नॅरेटिव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उनसे हो नहीं पाएगा। इस बार जो विपक्षी दलों की एकता बनी है, वह उन्हें उखाड़ फेंकेगी। यही वजह है कि प्रधानमंत्री डरे हुए हैं।

(संपादन : राजन/अनिल)

अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

संबंधित आलेख

जातिगत जनगणना का विरोध एक ओबीसी प्रधानमंत्री कैसे कर सकता है?
पिछले दस वर्षों में ओबीसी प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने ओबीसी वर्ग के आमजनों के लिए कुछ नहीं किया। जबकि ओबीसी वर्ग...
मोदी फिर अलापने लगे मुस्लिम विरोधी राग
नरेंद्र मोदी की हताशा का आलम यह है कि वे अब पाकिस्तान का नाम भी अपने भाषणों में लेने लगे हैं। गत 3 मई...
‘इंडिया’ गठबंधन को अब खुद भाजपाई मान रहे गंभीर चुनौती
दक्षिण भारत में तो फिर भी लोगों को यक़ीन था कि विपक्षी दल, ख़ासकर कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करेगी। लेकिन उत्तर, पूर्व, मध्य और पश्चिम...
परिणाम बदल सकता है गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र में पिछड़ा बनाम अगड़ा का नॅरेटिव
गोरखपुर में पिछड़े और दलित मतदाताओं की संख्या सबसे ज़्यादा है। एक अनुमान के मुताबिक़ यहां पर क़रीब 4 लाख निषाद जाति के मतदाता...
राजस्थान : लोकसभा चुनाव में जाति महत्वपूर्ण, मुद्दे गौण
यहां चुनाव, लोकतंत्र का उत्सव नहीं, बल्कि जातीय-संघर्ष का अखाड़ा बन गया था। एक तरफ विभिन्न जातियों ने प्रत्याशी चयन के लिए अलग-अलग पैमाने...