नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक (आरएसएस) और उसकी विचारधारा के अनुरूप आजादी के अमृतकाल के नारों के बीच ही आदिवासियों के विस्थापन की नई पटकथा लिख दी है। आदिवासी समुदाय तथा पर्यावरण के लिए कार्यरत संगठनों की आपत्ति को दरकिनार करते हुए संसद के मानसून सत्र में बिना किसी चर्चा के लोकसभा और राज्यसभा में जिस तरह से वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक-2023 को पारित करवाया गया, उससे यह आशंका बढ़ती जा रही है कि जंगलों पर निर्भर समाज, जिसमें सबसे बड़े हिस्सेदार आदिवासी हैं, को विस्थापन का दंश झेलना पड़ेगा।
इतना ही नहीं, इस संशोधन विधेयक के कई प्रावधान ऐसे हैं, जिन्हें जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ने वाले न केवल समुदाय, बल्कि जैव-विविधता के लिए भी खतरा बता रहे हैं। इनका आरोप है कि पूंजीवादी ताकतों के दबाव में मोदी सरकार द्वारा न केवल ग्राम सभा, बल्कि न्यायालय के पूर्ववर्ती निर्णयों को भी खत्म करने के लिए यह विधेयक लाया गया है। इसके साथ ही यह विधेयक पेसा कानून और भारतीय संविधान की पांचवी और छठवीं अनुसूची में आदिवासी बहुल क्षेत्रों के लिए किए गए प्रावधानों को भी अनुपयोगी बना देता है।
उल्लेखनीय है कि इसी वर्ष लोकसभा द्वारा विधेयक पारित होने से कुछ दिन पहले 18 जुलाई, 2023 को आदिवासी समुदाय के अधिकारों और पर्यावरण पर कार्यरत लगभग चार सौ से अधिक व्यक्तियों और संगठनों ने केंद्रीय वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय सहित संसद के कई सदस्यों को पत्र लिखकर प्रस्तावित विधेयक को पेश न करने का अनुरोध किया था। उक्त पत्र में, उन्होंने विधेयक के प्रावधानों के ऊपर विशेषज्ञों के साथ अधिक चर्चा की मांग करते हुए अनुरोध किया था कि अब समय आ गया है जब प्रशासन देश की विशाल जैव विविधता की सुरक्षा के प्रति अपने समर्पण की पुष्टि करे। पत्र में इस बात की आशंका भी जाहिर की गई थी कि इस विधेयक का मुख्य लक्ष्य भारत के प्राकृतिक वनों के विनाश को तेज करना है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी हो जाता है कि पारित विधेयक केवल उस भूमि को शामिल करता है, जिसे भारतीय वन अधिनियम, 1927 या किसी अन्य कानून के तहत वन के रूप में घोषित या अधिसूचित किया गया है। यह स्पष्ट तौर पर वर्ष 1996 में उच्चतम न्यायालय द्वारा गोदावर्मन प्रकरण में पारित उस ऐतिहासिक निर्णय को कमजोर करता है, जिसमें वन संरक्षण अधिनियम के तहत जंगल के रूप में नामित सभी भूमि को शामिल किया गया था, भले ही इसका मालिक कोई भी हो।

पर्यावरणविद कहते हैं कि इस विधेयक के पारित होने के बाद अब अरावली के एक बड़े हिस्से के साथ तराई और मध्य भारत में बाघ के आवास क्षेत्र, पश्चिमी और पूर्वी घाट, उत्तर-पूर्व के जैव विविधता से परिपूर्ण वन और तटों पर मौजूद कई मैंग्रोव क्षेत्रों को अब वन नहीं माना जाएगा। गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में करीब 39,063 हेक्टेयर वन क्षेत्र ऐसा है, जिसे स्थानीय समुदायों द्वारा वनों के रूप में संरक्षित और प्रबंधित किया जाता है, भले ही वे वर्तमान में वनों के रूप में अधिसूचित नहीं हैं। इसी प्रकार गोवा के लगभग पचास प्रतिशत जंगल अधिसूचित नहीं होने के बाद भी गोदावर्मन प्रकरण मे उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित निर्णय के चलते ही नष्ट होने से बचे हुए हैं।
पर्यावरणविदों की एक वाजिब चिंता इस विधेयक में राष्ट्रीय महत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में भारत की अंर्तराष्ट्रीय सीमा के 100 किमी के भीतर जगलों की निर्बाध कटाई के प्रावधान को लेकर भी है। इस तरह के प्रावधान रक्षा परियोजनाओं, अर्धसैनिक शिविरों और सार्वजनिक उपयोगिता वाली परियोजनाओं के लिए भी किए गए हैं। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि इस विधेयक में सार्वजनिक उपयोगिता वाली परियोजनाओं को अपरिभाषित रखा गया है। पर्यावरणविदों के अनुसार देश का एक बड़ा हिस्सा सीमा के 100 किमी के भीतर आ जाएगा। भारत की सीमाएं भूमि पर 15,106.7 किमी तक फैली हुई हैं और इसकी तटरेखा द्वीप क्षेत्रों सहित 7,516.6 किमी तक फैली हुई है। यह विधेयक इको-टूरिज्म क्षेत्रों और चिड़ियाघरों जैसी गतिविधियों के लिए भी जंगलों को खोल देता है। जबकि भारत के पास सस्टेनेबल ईकोटूरिज्म पर एक नीति है। कई गैर सरकारी शोध यह भी बतलाते हैं कि ईकोटूरिज्म केंद्रों में वन हानि की दर, गैर ईकोटूरिज्म क्षेत्रों की तुलना में अधिक रही है।
इस विधेयक के पारित होने से पूर्व वन क्षेत्र में किसी भी प्राकर के गैर वानिकी कार्य के लिए वन भूमि पर काबिज निवासियों की सहमति की आवश्यकता होती थी। मगर अब भूमि के बड़े हिस्से को वन की परिभाषा से बाहर कर, यह विधेयक इस सहमति को हटा देता है। भले ही 2006 के वन अधिकार अधिनियम में वन भूमि पर स्थानीय समुदाय कानूनी रूप से इसके हकदार हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय संसद के दोनो सदनों द्वारा पारित इस विधेयक में गांवों या जंगलों में रहने वाले मूलनिवासियों का उल्लेख भी नहीं है।
केंद्र द्वारा किए गए संशोधन से हिमालयी राज्यों के लिए अधिक खतरा उत्पन्न हो जाएगा। सर्वविदित है कि पिछले अनेक वर्षों की ही तरह 2023 में भी भारत के हिमालयी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन में तेजी के खतरों के साथ ही भारी बाढ़ और भूस्खलन का भी सामना कर रहे हैं। वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक-2023 में किए गए संशोधनों का इन क्षेत्रों के पर्यावरणीय स्थिति पर दुष्प्रभाव पड़ना तय है। भारतीय वन सर्वेक्षण की इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट-2021 में पहली बार जंगलों में ‘क्लाइमेट हॉटस्पॉट’ को देखा गया। इन्हें तापमान और वर्षा, दोनों में उच्च भिन्नता प्रदर्शित करने वाले क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया गया था। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में जलवायु हॉटस्पॉट की घटनाएं बहुत अधिक पाई गईं। ये वे राज्य भी हैं जिनके साथ चीन और पाकिस्तान की सीमाएं लगी हुई हैं। यह हिमालय क्षेत्र के साथ कुल मिलाकर लगभग 4,000 किमी और 750 किमी तक फैली हुई हैं। इन सीमाओं को लेकर विवाद भी होते रहते हैं।
वन संरक्षण अधिनियम के तहत अब तक प्राप्त सुरक्षा खोने का मतलब है कि ऐसी भूमि अब प्री-क्लीयरेंस जांच के अधीन नहीं रहेगी। इसका साफ मतलब यह है कि अब मूल रूप से जंगलों में रहने वाले समुदायों से सहमति लेने या नष्ट हुए पारिस्थितिकी तंत्र के लिए प्रावधान करने की जरूरत नहीं रहेगी।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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