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बिहार में स्कूली शिक्षा : बच्चे ‘कहां’ हैं?

कटिहार और अररिया में सर्वेक्षण के दौरान पाया गया कि अधिकांश विद्यार्थी कोविड के दौरान लिखना-पढ़ना भूल गए हैं। जब दोबारा स्कूल खुले तो इस तरह के विद्यार्थियों की मदद के लिए कोई क़दम नहीं उठाए गए, जिसका बुरा असर उनके शैक्षणिक विकास पर पड़ा है। बता रहे हैं सैयद जै़गम मुर्तजा

बिहार में स्कूली शिक्षा की हालत बेहद ख़राब है और इसका ख़मियाज़ा राज्य के दलित-पिछ़ड़े तबक़ों से जुड़े छात्र-छात्राओं को भुगतना पड़ रहा है। सामाजिक संस्था जन जागरण शक्ति संगठन (जेजेएसएस) की ताज़ा रिपोर्ट पर यक़ीन करें तो राज्य में कोविड संकट के बाद स्कूली शिक्षा के हालात और भी ज़्यादा निराशाजनक हो गए हैं और इसमें फिलहाल सुधार की कोई उम्मीद नजर नहीं आती है।

जेजेएसएस ने बिहार की स्कूली शिक्षा के हालात का जायज़ा लेने के लिए हाल ही में एक सर्वेक्षण किया। यह सर्वेक्षण राज्य के अररिया और कटिहार ज़िलों में किया गया। यह रिपोर्ट गत 4 अगस्त, 2023 को बिहार की राजधानी पटना के अनुग्रह नारायण सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के सभागार में जारी किया गया। इस मौके पर प्राख्यात अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के अलावा भाकपा माले के विधायक संदीप सौरभ, प्रो. डी.एम. दिवाकर, डॉ. जावेद अख्तर खां, मीरा मिश्रा, व्यास जी मिश्रा, के.डी. यादव, प्रतिमा कुमारी पासवान, जितेंद्र पासवान, कामायनी स्वामी और परण अमिताभ सहित अनेक गणमान्य उपस्थित थे।

जनवरी-फरवरी के दौरान किए गए इस सर्वेक्षण में कुल 81 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय शामिल किए गए। हालांकि राज्य के 38 ज़िलों में फैले क़रीब 76 हज़ार स्कूलों के मद्देनज़र यह सैंपल साइज़ थोड़ा छोटा नज़र आता है, लेकिन इससे राज्य में स्कूली शिक्षा की बदहाली की एक झलक तो मिलती ही है।

‘बच्चे कहां है?’ नामक यह सर्वेक्षण रिपोर्ट कहती है कि इन दो ज़िलों में महज़ 35 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों में ही पांच या उससे अधिक कमरे हैं। इनमें महज़ 16 फीसदी ऐसे हैं जिनमें शौचालयों की हालत संतोषजनक कही जा सकती है। इन प्राथमिक स्कूलों में एक भी ऐसा स्कूल नहीं है, जिनमें बिजली, पानी और शौचालय, तीनों एक साथ मौजूद हों। इनमें 78 फीसद स्कूलों में महज़ एक ही शिक्षक या शिक्षिका से काम चलाया जा रहा है। हालांकि खेल मैदान और मिड-डे मील के मामले में इन दो ज़िलों में स्कूल थोड़ा बेहतर नज़र आते हैं। तक़रीबन 78 फीसदी प्राथमिक स्तर के सरकारी स्कूलों में खेल का मैदान है। अररिया और कटिहार के लगभग 75 फीसद प्राथमिक स्कूलों में मिड-डे मील वितरण संतोषजनक तरीक़े से किया जा रहा है।

‘बच्चे कहां हैं?’ रपट के मुख पृष्ठ पर प्रकाशित तस्वीर

इन दो ज़िलों के उच्च प्राथमिक विद्यालयों की हालत प्राथमिक विद्यालयों के मुक़ाबले थोड़ी बेहतर है। हालांकि महज़ 7 प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं जहां विद्यार्थियों की उपस्थिति 50 फीसदी से ज़्यादा रहती है। फिर भी 81 फीसदी स्कूलों में मिड-डे मील के पर्याप्त कोष की व्यवस्था है। 83 फीसदी स्कूलों में खेल का मैदान है और 22 फीसदी स्कूलों में बिजली, पानी और शौचालय की उपलब्धता है। लेकिन महज़ 40 फीसदी स्कूल ही ऐसे हैं, जहां शौचालयों की हालत संतोषजनक है। जबकि नौ फीसदी स्कूल इमारतविहीन हैं। ये स्कूल या तो खुले आसमान के नीचे या फिर झोपड़ियों में संचालित हैं। ऐसे कई स्कूलों को दूसरे स्कूलों के साथ मिला दिया गया है।

यह रिपोर्ट कहती है कि कोविड संकट का राज्य की स्कूली शिक्षा पर बेहद बुरा असर पड़ा है। इन दो ज़िलों में सर्वेक्षण के दौरान पाया गया कि अधिकांश विद्यार्थी कोविड के दौरान लिखना-पढ़ना भूल गए हैं। जब दोबारा स्कूल खुले तो इस तरह के उनकी मदद के लिए कोई क़दम नहीं उठाए गए, जिसका बुरा असर उनके शैक्षणिक विकास पर पड़ा है। रिपोर्ट यह भी कहती है निजी कोचिंग संस्थान और निजी स्कूलों से सरकारी शिक्षण व्यवस्था को गंभीर ख़तरा है। 

कार्यकम में मौजूद अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज

इस रिपोर्ट में सुझाया गया है कि सरकार इन स्कूलों पर विशेष ध्यान दे। इसके लिए आरटीई यानि शिक्षा के अधिकार का सही अनुपालन करने, मिड-डे मील का सही से वितरण सुनिश्चित करने, स्कूल खुलने के दौरान कोचिंग और ट्यूशन को प्रतिबंधित करने जैसे उपाय इस रिपोर्ट में सुझाए गए हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक़ इन स्कूलों में अधिकांश विद्यार्थी ग़रीब और बहुजन तबक़ों से आते हैं। इनको मुफ्त किताब, और यूनिफॉर्म के बदले प्रत्यक्ष लाभ अंतरण यानि डीबीटी (छात्र-छात्राओं के माता-पिता के बैंक खाते में सीधे एक निश्चित धनराशि के हस्तांतरण) के भरोसे छोड़ दिया गया है। इससे महंगी किताबें और स्कूली पोशाक ख़रीदना इन छात्र-छात्राओं के माता-पिता के बूते के बाहर हो जाता है। अधिकांश छात्र और उनके अभिभावक डीबीटी के ख़िलाफ हैं, लेकिन उनकी आवाज सुननेवाला कोई नहीं है। 

रिपोर्ट यह भी कहती है कि राज्य में शिक्षकों की भारी कमी है। इन दो ज़िलों में 35 प्रतिशत प्राथमिक स्कूल और महज़ 5 फीसदी उच्च-प्राथमिक सरकारी स्कूल ही ऐसे हैं जो विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात के मामले में आरटीई के मानकों को पूरा करते हैं। यानि अधिकांश स्कूलों में प्रति शिक्षक विद्यार्थियों की संख्या तीस से ज़्यादा है। ज़ाहिर है इसका ख़मियाज़ा इन स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों को भुगतना पड़ता है। हालांकि रिपोर्ट में दावा किया गया है कि सरकार अगर सुधार की नीयत से काम करे तो अभी भी देर नहीं हुई है। 

(संपादन : राजन/नवल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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