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हरी नरके : एक ज्ञानकोश को अलविदा

फुले-शाहू-आंबेडकर की विचारधारा को पुख्ता सबूत और तथ्य के द्वारा सामने रखकर 19 साल की उम्र से ही हरी नरके ने महाराष्ट्र की फुले विरोधी ब्राह्मणवादी मानसिकता को अपनी कलम से जवाब दिया। यह एक जीवंत ज्ञानकोश के सफर की शुरुआत थी। स्मरण कर रही हैं डॉ. लता प्रतिभा मधुकर

गत 9 अगस्त, 2023 को महाराष्ट्र के जाने-माने फुले-शाहू-आंबेडकरवादी अन्वेषक, समीक्षक और विचारक प्रो. हरी नरके की अचानक मृत्यु से सभी प्रगतिशील आंदोलनों को गहरा सदमा लगा। गत एक साल से हार्ट और किडनी की बीमारी का सही निदान न होने और अस्थमा के गलत इलाज के बारे में 22 जून, 2023 को उन्होंने कई करीबी दोस्तों को एक पोस्ट भेजी थी। उनमें एक मैं भी थी। उन्होंने लिखा था– “अब घर आया हूं, और अब बहुत थकान है। तंदुरुस्त होने के बाद बात करूंगा।” उनको आराम मिले, इसलिए हममें से कुछ लोगों ने उन्हें फोन तक नही किए। 

लेकिन हरी नरके एक महीने पहले से फिर व्याख्यान देने जाने लगे थे। ठाणे नगर निगम के महापौर ने उनका व्याख्यान रखा था। वहां हजारों लोगों ने हरी नरके को सुना। वहां के महापौर ने कहा था कि आज जबकि धर्मांध ताकतें सर उठाकर भगवाकरण करने फैल रही है, ऐसे समय में हरी नरके जैसे प्रबोधनकार की नितांत जरूरत है। 

फुले-शाहू-आंबेडकर की विचारधारा को पुख्ता सबूत और तथ्य के द्वारा सामने रखकर 19 साल की उम्र से ही उन्होंने महाराष्ट्र की फुले विरोधी ब्राह्मणवादी मानसिकता को अपनी कलम से जवाब दिया। यह एक जीवंत ज्ञानकोश के सफर की शुरुआत थी। जो काम बड़े-बड़े विद्वान और प्रगतिशील लोग नही कर पाए, हरी ने कर दिखाया। उन्होंने एक वैकल्पिक सामाजिक अनुसंधान की नींव को मजबूत किया। एक समय टेल्को कंपनी में कामगार लड़का, अपनी गरीबी से जूझ रहा था। लेकिन उसके नैतिक मूल्य बहुत पक्के थे उसकी जहन में। अपने महानायक-महानायिकाओं का अपमान सहन नही करने के लिए केवल मोर्चा या अनशन की जरूरत नही, उसके लिए बुद्धिवादी, तार्किक आधार देना जरूरी है। इसी विचार पर हरी नरके का पूरा विश्वास था। हमारे समकालीन युवा साथी होने के कारण हमारे साथ मिलकर फुले, शाहू, आंबेडकरवादी तथा समाजवादी विचारधारा को उन्होंने सशक्त किया। उसी समय डॉ. बाबा आढाव जी से लेकर शरद पवार, पु.ल. देशपांडे, एस.एम. जोशी, यदुनाथ थते, नरेंद्र दाभोलकर, प्रकाश आंबेडकर, नामदेव ढसाल, राजा ढाले, यशवंत मनोहर, अर्जुन डांगले आदि मशहूर प्रगतिशील नेताओं व लेखकों का ध्यान इस युवक ने अपनी तरफ खींच लिया। बाल गांगल जैसे प्रतिगामी लेखक जो महात्मा फुले को दुर्गंध कह रहे थे, उनको इस तरह के पुख्ता तर्क की आदत नही थी। एक पूरे धर्मांध ताकत के खिलाफ हरी की एक छोटी किताब हम सब के लिए वैचारिक लड़ाई का एक दस्तावेज बन गई।

स्मृति शेष : प्रो. हरी नरके (1 जून, 1963 – 9 अगस्त, 2023)

इस तरह हरी नरके का नाम धनंजय कीर, य.दि. फड़के, सं.ग. मालशे, वसंत मून जैसे सामाजिक अनुसंधानकर्ताओं में शामिल हुआ। आंदोलन में एक अग्रणी कार्यकर्ता और शोधकर्ता होने के नाते हरी और उनकी पत्नी संगीता मेरे परिवार का हिस्सा बन गए। संगीता के पिताजी बालकृष्ण रेनके और माताजी शारदा रेनके घुमंतू विमुक्त जनजाति के संबंध में आंदोलन तथा वैकल्पिक खेती के प्रयोग सोलापुर में कर रहे थे।

इनके साथ मैं विकास सहयोग प्रतिष्ठान की उस समय अध्यक्ष भी रह चुकी थी। फिर रेनके आयोग की स्थापना हुई, जिसकी रिपोर्ट का मैने अंग्रेजी से मराठी में अनुवाद किया। इस दौरान अधिवक्ता पल्लवी रेनके ने लोकधारा की स्थापना से लेकर दिल्ली में रेंनके आयोग के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। हरी की पत्नी संगीता एक अध्यापिका है। हरी के घर में जो दस हजार से ज्यादा किताबें हैं, ऐसे एक ग्रंथ संग्रहालय की वह खुद अघोषित ग्रंथपाल है। इस ग्रंथालय के प्रेरणास्रोत डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ही थे। हरी की बेटी प्रमिती आज महाराष्ट्र के विख्यात युवा कलाकारों में लोकप्रिय कलाकार है। उसके द्वारा निभाई गई संत तुकाराम की पत्नी की भूमिका अत्यंत ही सराही गई है। हरी को प्रमिती की प्रगति को देखकर बहुत गर्व महसूस होता था। 

बीते 9 अगस्त, 2023 को जब हरी चल बसे, तब उनको मुंबई की एशियन हार्ट अस्पताल से लेकर पुणे वैकुंठ भूमि तक लाना, उनकी अंत्येष्टि सत्यशोधक तरीके से करना, जिसमें उनकी देह को विद्युत शवदाह गृह में जाने संबंधी सारे निर्णय उनकी बेटी प्रमिती और उनकी पत्नी संगीता ने लिए। हरी के आदर्शों को जिंदा रखने वाली प्रमिती और संगीता के इस जज्बे को वहां मौजूद सभी लोगों ने सलाम किया। वे किसी भी तरीके से अपने जाति, समुदाय या रिश्तेदारों के प्रभाव में नही आईं। और उनके आजू-बाजू में भी प्रगतिशील आंदोलन के अनेक लोग हरी नरके जी को अंतिम बार अभिवादन करने के लिए पूरे महाराष्ट्र से इकट्ठा हुए थे। समता परिषद के संस्थापक नेता छगन भुजबल, जनता दल यूनाईटेड के नेता कपिल पाटील, शिवसेना नेता सुषमा अंधारे, ओबीसी संगठन के नेता श्रावण देवरे, घुमंतू विमुक्त नेता व हरी नरके के श्वसुर बालकृष्ण रेनके, साहित्यकार सदानंद मोरे, संजय आवटे, श्रीमंत कोकाटे, लक्ष्मण माने, अरुण खोरे, सामाजिक कार्यकर्ता मानव कांबले, मारुति भापकर, अनवर राजन, राजीव तांबे, संजय कांबले, चंद्रकांत भुजबल तथा स्त्रीवादी साहित्यकार डॉ. वंदना महाजन और मैं स्वयं (डॉ. लता प्रतिभा मधुकर) के अलावा बहुत सारे उनके करीबी वहां मौजूद रहे। सभी ने ‘हरी नरके अमर रहे’ का उद्घोष करने के उपरांत सत्यशोधक प्रार्थना तथा बुद्ध वंदना के साथ हरी को अंतिम विदाई दी।

हरी नरके : एक प्रेरणादायी जीवनी

हरी का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ। उनको कुछ दिन श्मशान में भी गुजरने पड़े। प्रसिद्ध साहित्यकार अरुण कांबले जी की मां शांता कांबले उन दिनों नजदीक के स्कूल में अध्यापक थीं। उन्होंने हरी की मां, जो उन दिनों मजदूरी करती थीं, से कहा कि तुम अपने बेटे को स्कूल भेजो। उसका भविष्य बाबासाहेब जैसा उज्वल होगा। तब अपने बड़े बेटे को हरी की मां ने बताया कि उस शांताबाई की समाज में कोई बहुत बड़ा बाबा पैदा हुआ, जो पढ़-लिखकर बड़ा हुआ। उसने बताया है कि बच्चों को पढ़ाओ। तुम जाकर इसको (हरी) उस टीचर के स्कूल में दाखिला करा दो। हरी ने फिर इतिहास रचा। उन्होंने महात्मा जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले, डॉ. आंबेडकर साहित्य के अनेक खंडों का संपादन व विश्लेषण किया। उनके कार्यों का अनुवाद हिंदी, तेलगु, तमिल, उर्दू तथा अन्य भाषाओं में किया गया। हरी ने ताराबाई शिंदे, डॉ. रमाबाई, तानी बाई बिरजे, मुक्ता साल्वे आदि की जीवनी पर भी अनुसंधान किया। इसके अलावा उन्होंने राजर्षी शाहू महाराज के कार्यों को सामने रखा। लगभग 56 किताबें, हजारों आलेख, ब्लॉग, ट्विटर जैसे सोशल नेटवर्क का प्रासंगिक तथा यथोचित उपयोग, फिल्मों के लिए लेखन व समीक्षा कर हरी नरके ने विपुल लेखन किया। इसके अलावा हरी नरके ने ओबीसी आंदोलन को भी मजबूती दी। इस मामले में हरी उम्र में मुझसे छोटे होने के बावजूद बड़े मार्गदर्शक मित्र लगते थे। मेरी बेटी मनस्विनी जो कि लेखिका है, उसकी हर किताब, नाटक, कथा, आलेख को पढ़कर वे हमेशा अपनी राय भेजते थे। मनस्विनी को युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने की खबर जब आई तब बधाई का सबसे पहला फोन उन्होंने ही किया था। आंदोलन में मेरी व्यस्तता के कारण मेरा साहित्य किताबों की रूप में अप्रकाशित रहा, इसको लेकर उन्हे बहुत दु:ख था। युगप्रवर्तन के साक्षीदार हरी नरके ने मेरे अप्रकाशित ग्रंथों को प्रकाशित करने के लिए 1985 से लेकर 1987 तक प्रयास किए। फिर मेरी व्यस्तता के कारण मुझे पता ही नहीं चला था कि हरी जी ने महाराष्ट्र राज्य संस्कृति मंडल की ओर से पुस्तक छापने और प्रकाशन करने का एक पत्र मुझे भेजा था, जो मेरे पास पहुंचा ही नहीं। अभी जब कुछ दिन पहले अपने पुराने आलेख देख रही थी, तब वह खत मिला। 1992 में लिखा हुआ। मैने उनको फोन किया। उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं। तुम एक बहुजन स्त्रीवादी अनुसंधानकर्ता और जमीन से जुड़ी कार्यकर्ता हो, तुम्हारी किताबों का अलग महत्व है। उस समय लिखी किताब का महत्व आज भी है। हमें उसे छापना चाहिए। मैने कहा कि आपके हाथों ही फिर उसका विमोचन भी होगा। अभी किताब तो प्रकाशित होगी, लेकिन मुझे उनको अर्पण करनी होगी। अब वे विमोचन के लिए नही रहे। मेरे जैसे ऐसे कितने मित्र लोग होंगे, जिन्हे पता है कि हरी नरके की आलोचना और विमर्श से उनके किताब का सही मूल्यांकन होगा।

हरी की एक और याद है। तब मैं टीआइएसएस, हैदराबाद में पीएचडी कर रही थी। हरी की एक किताब का तेलुगु में अनवाद हुआ था, जिसका विमोचन तेलंगाना में था। वे हैदराबाद में रुके थे। उनके आने की खबर लगी। मैंने उनसे संपर्क किया। उन दिनों मैं उस्मानिया विश्वविद्यालय के प्रो. सिम्हाद्री, प्रो. विश्वेश्वर राव, अखिलेश्वरी रामागौड़ा, प्रो. श्रीनिवासलु तथा मौलाना आजाद विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध लेखक प्रो. कांचा आइलैय्या आदि के साथ एक ओबीसी अध्ययन परियोजना पर काम कर रही थी। हरी के हैदराबाद आने की खबर मैंने उन्हें दी। 3 जनवरी को सावित्रीबाई फुले की जयंती थी, और सारे लोगों ने हरी का व्याख्यान रखा। दूसरे दिन उन्हें छोड़ने इफ्लू विश्वविद्यालय के छात्र उनके लिए खाना पैक करके ले आए। वे जहां जाते, अपने व्याख्यान तथा अनुसंधान पद्धति से अनेक छात्र तैयार करते। अपने आप में एक स्वतंत्र विश्वविद्यालय की योग्यता इस एक व्यक्ति में थी। 

इस देश में अपने समकालीन बहुत कम ऐसे प्रखर बुद्धिमान, निर्भय तथा निरंतर रूप से अनुसंधान करनेवाले व्यक्ति बचे है। हरी नरके की आज बहुत जरूरत थी। फिर से गांगल जैसी प्रवृत्तियां संभाजी भिड़े और प्रज्ञा ठाकुर के रूप में उभरी हैं, ऐसे समय में हम सब को आपके साथ की जरूरत थी हरी जी। महात्मा जोतीराव और क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले के आज के युग के वैचारिक मानसपुत्र हरी नरके जी को अलविदा!

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

लता प्रतिभा मधुकर

डॉ. लता प्रतिभा मधुकर बहुजन स्त्रीवादी चिंतक, समीक्षक व लेखिका हैं

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