प्रो. हरी नरके (1 जून, 1963 – 9 अगस्त, 2023) से मेरी पहली मुलाकात 1985 में पुणे में डॉ. बाबा आढ़ाव द्वारा समता प्रतिष्ठान के माध्यम से आयोजित ‘विषमता निर्मूलन शिविर’ में हुई थी। इस शिविर में हरी नरके के साथ नरेंद्र दाभोलकर, अनिल अवचट, संजीव साणे और अनेक कार्यकर्ता भी उपस्थित थे। ग्राम विकास के बारे में उस समय अण्णा हजारे ने अपने विचार रखे थे। साथ ही, गुजरात में हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन की आंखों-देखी रपट वहां से आए कार्यकर्ताओं ने रखी थी।
जाति के विनाश की लड़ाई, नामांतर आंदोलन, दलित मुक्ति आंदोलन, स्त्री मुक्ति आंदोलन, ‘एक गांव-एक प्याऊ’ आंदोलन की दिशा आदि मुद्दों पर चर्चा हुई थी।
ऐसे शिविरों के माध्यम से उस समय के कार्यकर्ताओं का वैचारिक भरणपोषण होता रहता था। ‘जाति तोड़ो, मनुष्य जोड़ो’ का नारा देते हुए युवक-युवतियां बड़े पैमाने पर अंतर्जातीय विवाह कर रहे थे, हरी नरके ने भी वही किया।
गणपती वासुदेव बेहेरे के ‘सोबत’ साप्ताहिक में बाल गांगल का महात्मा फुले की खिल्ली उड़ाने वाला लेख प्रकाशित हुआ। उसका पूरे महाराष्ट्र में विरोध हुआ। जगह-जगह उसके विरोध में कार्यक्रम हुए। हमलोगों ने सिन्नर में विरोध सभा का आयोजन किया था। रुंजाजी माधव हांडगे, प्रो. शरद देशमुख ने अपने विचार रखे और इसी सभा में उन्हावणे नामक शिक्षक ने भी निर्भयतापूर्वक अपना विरोध दर्ज किया था। अपना प्रखर विरोध दर्ज कराने हमारा युवा मित्र संजय सोनवणे भी समय निकालकर आया था। महाराष्ट्र की नजर में ‘सोबत’ के संपादक ग.वा. बेहेरे की आज मृत्यु हो चुकी है, यह हम सभी ने उत्साहपूर्वक उस सभा में घोषित किया था। विशेष बात यह कि कुछ दिन के बाद ही उस संपादक का निधन भी हो गया। हमारी यह विरोध सभा लोगों के मन का असंतोष और महात्मा जोतीराव फुले के जीवन कार्य से भावनात्मक लगाव प्रकट करने वाली सभा थी। लेकिन हरी नरके ने इस लेख का अध्ययन करके उसके आक्षेपों का शोधात्मक तथ्यों के साथ प्रामाणिक उत्तर दिया था। सत्य शोधन का काम उस समय हरी नरके ने अपने हाथ में लिया और उसे आखिरी सांस तक कायम रखा।
आगे चलकर महाराष्ट्र सरकार ने महात्मा जोतीराव फुले चरित्र शोधन प्रकाशन समिति गठित किया। इस समिति के माध्यम से महात्मा फुले के साहित्य और उनसे संबंधित वैचारिक लेखन का प्रकाशन सतत होते रहा।
महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘महात्मा फुले समग्र वाङ्मय’ का संपादन डॉ. यशवंत दिनकर फड़के ने किया था। इस ग्रंथ का पहला संस्करण हाथों-हाथ बिक गया। दस हजार पुस्तकें केवल दो दिन में ही खत्म हो गईं। इसके अगले संस्करण को हरी नरके ने संपादित किया और उसमें उन्होंने महात्मा फुले का ‘इच्छा पत्र’ भी शामिल किया। इस दस्तावेज का शोध हरी नरके ने स्वयं किया और असली पत्र भी प्रकाशित किया। हरी नरके की खासियत यह थी कि यदि उन्होंने कोई काम हाथ में लिया तो उसे पूरा होने तक चुप नहीं बैठते थे। सत्यशोधकों के अप्रकाशित साहित्य प्रकाशित करने के लिए उन्होंने जीवन भर मेहनत किया।
डा. बाबा आढ़ाव के समता प्रतिष्ठान से ‘पुरोगामी सत्यशोधक’ नाम से पत्रिका छपती थी। डा. बाबा आढ़ाव ने अगुवाई करके सत्यशोधक आंदोलन के अत्यंत दुर्लभ दस्तावेजों को खोज निकाला। उनमें से ‘दिनकर राव जवळकर समग्र वाङ्मय’, ‘जागृतिकार पाळेकर’ जैसी पुस्तकें संपादित होकर प्रकाशित हुईं। ‘जागृतिकार पाळेकर’ पुस्तक को सदानंद मोरे ने संपादित किया और उसकी लंबी प्रस्तावना लिखी। मैंने खुद ‘जागृतिकार भगवंतराव पाळेकर के समग्र लेखन शोधात्मक अध्ययन’ विषय पर डॉ. दिलीप धोंडगे के मार्गदर्शन में शोध किया। उसमें मुझे उस ग्रंथ से बहुत मदद मिली।

सत्यशोधक केशवराव विचारे के विचारों पर आधारित शोध ग्रंथ हरी नरके ने संपादित किया था। वह ग्रंथ मुझे अध्ययन के लिए नीळू फुले ने उपलब्ध कराया था। ‘पुरोगामी सत्यशोधक’ ने ‘जैसा हमने फुले को देखा’ शीर्षक से एक विशेषांक प्रकाशित किया था। इस काम में हरी नरके की भी सहभागिता थी। आगे चलकर इस विशेषांक के लेखों को संपादित करके हरी नरके ने ‘आम्ही पाहिलेले फुले’ (जैसा हमने फुले को देखा) शीर्षक पुस्तक को प्रकाशित किया।
हरी नरके का जन्म ‘विद्या बिना मति, गति, वित्त’ गए हुए परिवार में हुआ था। उन्होंने डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर से प्रेरणा लेकर शिक्षा प्राप्त की। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को गुरु मानकर धनुर्विद्या का अभ्यास किया था, लेकिन उसे अपना अंगूठा गंवाना पड़ा। हरी नरके ने डॉ. आंबेडकर को प्रेरणा मानकर शिक्षा ग्रहण किया और वे बुद्धिमान विद्यार्थी के रूप में जाने गए। टाटा उद्योग समूह की कंपनी टेल्को में काम करने वाला लड़का पुणे विद्यापीठ से ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट हुआ तथा उसे स्वर्ण पदक मिला। विद्यापीठ के क्लास में भी हरी नरके शांत बैठने वाले विद्यार्थी नहीं थे, व्याख्याताओं से उनका वाद-परिसंवाद चलता ही रहता था। ऐसे ही डॉ. आनंद यादव के साथ हुए एक वाद को उन्होंने समाज के सामने रखा था।
हरी नरके जब शासकीय समिति में सहभागी हुए तो उन्हें राज्याश्रय का फायदा मिला। उन्होंने महाराष्ट्र राज्य के पिछड़ा वर्ग आयोग में काम किया। महात्मा फुले और डॉ. आंबेडकर के चरित्र साहित्य प्रकाशन की दोनों समितियों में हरी नरके समन्वयक थे। ‘महात्मा फुले गौरव ग्रंथ’ सहित अनेक ग्रंथों का उन्होंने संपादन किया। महात्मा फुले के व्यक्तित्व के दुर्लक्षित पहलुओं पर उन्होंने अपने शोध के माध्यम से प्रकाश डाला।
आज कौशल विकास शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है। जोतीराव-सावित्रीबाई का लड़के-लड़कियों को श्रम प्रधान शिक्षा देने पर जोर था। उन्हें विचारशील एवं स्वावलंबी बनाने के लिए उन्होंने 1852 में एक प्रस्ताव में यह विचार रखा था– “स्कूलों में उद्योग विभाग होना चाहिए, जिसमें बच्चे उनके लिए उपयोगी व्यवसाय व शिल्प सीख सकें और स्कूल छोड़ने के बाद अपने दम पर आराम से जीवनयापन कर सकें।” ऐसी व्यवस्था भी उन्होंने निर्मित किया। (महात्मा फुले : शोध के नए रास्ते, प्रस्तावना पृ. 20) इस पर हरी नरके ने प्रकाश डाला। फुले-चरित्र का अर्थ निर्धारण हरी नरके ने जीवन भर किया। उसके लिए विविध असली दस्तावेजों को खोजकर उनका अध्ययन किया। महात्मा फुले की शिक्षा व विचारों को जन-जन तक पहुंचाने का काम उन्होंने दिन-रात किया। उसके साथ-साथ सावित्रीबाई फुले का साहित्य ढूंढ़कर उसका भी उन्होंने प्रकाशन किया। इसके लिए वे देश भर में घूमते रहे।
मराठी भाषा को उड़िया, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ और संस्कृत के जैसे क्लासिकल लैंग्वेज का दर्जा मिले, इसके लिए पठारे समिति का गठन किया गया था। हरी नरके इसके सदस्य थे। इसके संबंध में विस्तृत रिपोर्ट केंद्र सरकार को प्रस्तुत की गई, उसके लिए अनेक दस्तावेज उन्होंने खोजकर उन्हें रिपोर्ट में सम्मिलित किया। मराठी भाषा क्लासिकल लैंग्वेज है, यह किसी को कहने की जरूरत नहीं है, लेकिन अभी भी केंद्र सरकार द्वारा यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया है। हरी नरके के जीवन काल में यह काम हुआ होता तो वह एक दुर्लभ क्षण सिद्ध हुआ होता।
अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) समाज की समस्याओं का हरी नरके ने गहराई से अध्ययन किया था, जिसका अपनी लेखनी व वाणी से वे सतत वर्णन करते रहते थे। महात्मा फुले समता परिषद में वे सक्रिय थे। उसके माध्यम से वे ओबीसी के सवालों को तथ्यपरक ढंग से रखते रहते थे। खूब अध्ययन किए हुए इस सत्यशोधक कार्यकर्ता को अनेक संदर्भ तो कंठस्थ याद रहते थे।
94वें अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष छगन भुजबल थे। उन्होंने अपने स्वागत भाषण की उत्तम तैयारी की थी। फिर भी कुछ अपूर्ण न रह जाय, इसके लिए वह भाषण उन्होंने हरी नरके को भेजा और हरी नरके ने उस भाषण में कुछ नए संदर्भ जोड़कर भुजबल को दिया था। साहित्य सम्मेलन का छगन भुजबल का वह भाषण अत्यंत उत्तम दर्जे का हुआ, क्योंकि भाषण में नासिक का सांस्कृतिक संदर्भ और सत्यशोधक विचार की सुंदर बुनावट भुजबल ने किया था।
साहित्य सम्मेलन के निमित्त मैं और हरी नरके एक-दूसरे से बात कर रहे थे। हरी नरके को एक सत्र के लिए बुलाया जाय, यह महामंडल की पत्रिका में निश्चित हुआ था। उस समय हरी नरके ने मुझे फोन करके कहा कि “अरे, मुझे किसानों के परिसंवाद में बोलना है। खेती के सवाल को टालकर अपने साहित्य का विचार हो ही नहीं सकता।” उन्होंने अपने भाषण में किसानों की समकालीन स्थिति कितनी जटिल हो चुकी है, इसका वर्णन किया।
हरी नरके को मुद्रित माध्यमों के साथ-साथ आधुनिक मीडिया का अंदाज लग चुका था, इसलिए वे लगातार इस माध्यम पर भी सक्रिय थे। अनेक विषयों पर उन्होंने गंभीर तथ्यात्मक विचारों को सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया।
हरी नरके ने हजारों व्याख्यान दिए। इसके लिए सतत प्रवास किया। इस प्रवास में उन्हें कुछ बीमारियों का सामना करना पड़ा। उत्तम चिकित्सकीय सुविधाओं से संपन्न अस्पतालों में उन्होंने इलाज भी करावाया, लेकिन चिकित्सा क्षेत्र की अव्यवस्था और अपूर्णता की मार इस समाज चिंतक को झेलनी पड़ी और वे अनंत की यात्रा पर निकल गए।
सामाजिक आंदोलन और प्रगतिशील विचारों पर अग्रसर समाज को आज हरी नरके की विशेष जरूरत थी। ऐसे समय में उनका जाना पूरे समाज के लिए अपूरणीय क्षति है।
(मराठी से हिंदी अनुवाद : चंद्रभान पाल, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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