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जगदेव प्रसाद की शहादत का निहितार्थ

जगदेव प्रसाद की जब हत्या की गई तब वे दो बार विधायक और तीन सरकारों में मंत्री रह चुके थे। बड़े कद के राजनीतिक नेतृत्वकर्ता, विचारक व चिंतक थे। यह वह समय था जब 1974 का आंदोलन शुरू हो चुका था। जयप्रकाश नारायण इसकी अगुआई के लिए पटना की सड़कों पर उतर आए थे। बता रहे हैं रिंकु यादव

शहीद जगदेव प्रसाद को 5 सितंबर,1974 को बिहार के जहानाबाद के कुर्था प्रखंड (वर्तमान में अरवल जिले का हिस्सा) के सामने हजारों प्रदर्शनकारियों के बीच गोली मारी गई। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, पुलिस केवल गोली मारने तक ही नहीं रुकी थी। गोली लगने के बाद भी उनकी सांसें चल रही थी। उनकी जान बच सकती थी, यदि उन्हें इलाज के लिए अस्पताल ले जाया जाता। लेकिन पुलिस जख्मी जगदेव प्रसाद को घसीटते हुए थाने तक ले गई, जहां उनकी मौत हो गई।

 

बात केवल हत्या तक ही नहीं रूकी रही, बल्कि अपने समय के अत्यंत लोकप्रिय जननेता की लाश गायब कर देने की कोशिश भी हुई। जब पटना के राजनीतिक गलियारे में हंगामा हुआ तब पुलिस ने उनकी लाश को सार्वजनिक किया। 

ध्यातव्य है कि उन दिनों भोजपुर के खेत-खलिहानों में समाज व सत्ता के लिए मामूली माने जाने वाले सबसे हाशिए के लोगों की भी बर्बर हत्याएं चल रही थीं। वे जो पशुवत जीवन जीने को बाध्य रखे गए थे, वे मनुष्य होने के दावे के साथ ऊंची जाति के सामाजिक-आर्थिक शोषण व उत्पीड़न और राजसत्ता के खिलाफ संघर्षरत थे। 

जगदेव प्रसाद की जब हत्या की गई तब वे दो बार विधायक और तीन सरकारों में मंत्री रह चुके थे। बड़े कद के राजनीतिक नेतृत्वकर्ता, विचारक व चिंतक थे। यह वह समय था जब 1974 का आंदोलन शुरू हो चुका था। जयप्रकाश नारायण इसकी अगुआई के लिए पटना की सड़कों पर उतर आए थे। 

ऐसे में बड़े कद के राजनेता रहे जगदेव प्रसाद का इस तरह मारा जाना अप्रत्याशित था। सवाल यह है कि आखिर जगदेव प्रसाद की हत्या क्यों की गई और उनकी हत्या के बाद उनकी लाश को अपमानित क्यों किया गया? हत्यारी ताकतों के अंदर इतनी घृणा व नफरत क्यों थी?

उनकी शहादत समाज व राजनीति के खास मोड़ पर हुई थी। वर्तमान की जड़ें इतिहास में होती हैं और इसलिए इतिहास से वर्तमान को समझने और बदलने का रास्ता तलाशने में मदद मिलती है। जगदेव प्रसाद की वैचारिक दृष्टि, संघर्ष व शहादत से खासतौर पर हिंदी पट्टी के वर्तमान को समझने और बदलने के सूत्र को समझा जा सकता है।

1960 के दशक का उत्तरार्द्ध  

आजादी से जुड़े सपने-उम्मीदें टूटती हैं। कांग्रेसी हुकूमतों के खिलाफ जन-विक्षोभ खड़ा होता है। एकतरफ कांग्रेस के राजनीतिक एकाधिकार के खिलाफ राजनीतिक परिवर्तन की लहर उठती है और कई राज्यों में सरकारें बदलती है। बिहार में भी संविद सरकार बनती है, जिसमें जगदेव प्रसाद भी शामिल होते हैं तो दूसरी तरफ, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट धाराओं के भीतर का बहस व संघर्ष वैचारिक-राजनीतिक शक्ल लेता है, बुनियादी बदलाव व क्रांति के स्वप्न के साथ नई धाराएं सामने आती हैं। कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर से नई क्रांतिकारी धारा निकलती है, जिसका केंद्र पश्चिम बंगाल का नक्सलबाड़ी बनता है। सीपीआई (एमएल) का गठन होता है। वहीं समाजवादी आंदोलन के भीतर से बिहार में जगदेव प्रसाद की अगुआई में शोषित दल बनता है तो यूपी में भी रामस्वरूप वर्मा और महाराज सिंह भारती जैसों की अगुआई में समाज दल गठित होता है। बाद में शोषित दल और समाज दल की एकजुटता होती है, जिसके परिणामस्वरूप शोषित समाज दल का गठन होता है।

बिहार की राजनीति में पिछड़ों और वंचितों के उभार में जगदेव प्रसाद की अहम भूमिका रही। आप देखें कि 1965 में बिहार में आजादी के बाद का सबसे बड़ा जन-विक्षोभ भड़क उठता है। छात्रों की फीस वृद्धि, खाद्यान्न संकट, महंगाई और तत्कालीन मुख्यमंत्री के.बी. सहाय के नेतृत्व वाली सरकार का भ्रष्टाचार आदि मुख्य मुद्दे थे। पुलिस के दमन ने जन-विक्षोभ को और भी भड़का दिया। 

इसी परिदृश्य में 1967 का आम चुनाव हुआ। बिहार विधानसभा में संसोपा 17 से 68 सीट तक पहुंची, जिसमें 45 पिछड़े, दलित व आदिवासी विधायक थे। विधानसभा की सामाजिक संरचना में भी बदलाव आया। संविद सरकार में उच्च जाति के नेताओं के विरोध के कारण कर्पूरी ठाकुर के बजाय महामाया प्रसाद सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए। जगदेव प्रसाद की अगुआई में बगावत सामने आया। शोषित दल का गठन हुआ। परिस्थितियां ऐसी बनीं कि तीन दिन के लिए सतीश प्रसाद सिंह मुख्यमंत्री बने और उनके बाद बी.पी. मंडल केवल बीस दिनों तक मुख्यमंत्री बने। चार वर्षों में पिछड़ी-दलित जातियों के पांच मुख्यमंत्री बने। राजनीतिक सत्ता पर उच्च जातियों के वर्चस्व पर जोरदार चोट पड़ी।

जगदेव प्रसाद के शब्दों में, “उस समय मैं संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में था। हमारी पार्टी में भी जब कम पढ़े-लिखे एवं अयोग्य लोगों ने ऊंची जाति के आधार पर सत्ता पर कब्जा किया तो हमने वहां विद्रोह किया और शोषित दल बनाया।” शोषित दल का गठन सत्ता या कुर्सी के लिए अवसरवादी राजनीति कवायद नहीं थी, बल्कि वैचारिक-राजनीतिक धरातल पर नई राह की तलाश थी। यह लोहियावाद की सीमाओं से बाहर निकलने और बुनियादी परिवर्तन की वैचारिक दृष्टि, एजेंडा व दिशा गढ़ने की कोशिश भी थी।

शोषित दल के गठन के मौके पर उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि “हिंदुस्तानी समाज साफ तौर से दो भागों में बंटा हुआ है– 10 प्रतिशत शोषक और 90 प्रतिशत शोषित। दस प्रतिशत शोषक बनाम 90 प्रतिशत शोषित की इज्जत और रोटी की लड़ाई ही हिंदुस्तान में समाजवाद या कम्युनिज्म की असली लड़ाई है। हिंदुस्तान जैसे द्विज शोषित देश में असली वर्ग-संघर्ष यही है। इस नग्न सत्य को जो नहीं मानता, वह द्विजवादी समाज का पोषक, शोषित विरोधी और अव्वल दर्जे का जाल-फरेबी है। यदि मार्क्स-लेनिन हिंदुस्तान में पैदा होते तो दस प्रतिशत ऊंची जात (शोषक) बनाम 90 प्रतिशत शोषित (सर्वहारा) की मुक्ति को वर्ग-संघर्ष की संज्ञा देते।”

जगदेव प्रसाद (2 फरवरी, 1992 – 5 सितंबर, 1974)

जगदेव प्रसाद की दृष्टि पर धुंध नहीं छितराया हुआ था। उन्होंने अपने समय और समाज के यथार्थ को साफ-साफ देखा। शोषक और शोषित के विभाजन पर परदा डालकर राजनीति नहीं सजायी। उन्होंने शोषक और शोषित को ब्राह्मणवादी वर्ण-जाति व्यवस्था के आधार पर परिभाषित किया। विशेषाधिकार प्राप्त जातियों को शोषक और उत्पीड़ित जातियों को शोषित की श्रेणी में रखा। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि “तमाम हरिजन, आदिवासी, मुसलमान और पिछड़ी कही जाने वाली जातियां शोषित हैं। सभी ऊंची जातियां शोषक हैं।”

बिहार में शुरुआत में धक्का खाने के बाद नक्सलबाड़ी आंदोलन भोजपुर की जमीन पर मास्टर जगदीश महतो, रामनरेश राम और रामेश्वर अहीर की तिकड़ी के नेतृत्व में उठ खड़ी हुई। दलित-बहुजनों के संघर्ष के दो केंद्र बन चुके थे। एक केंद्र पर जगदेव प्रसाद संसदीय राजनीति को आगे बढ़ा रहे थे तो दूसरा जमीन से उठता गैरसंसदीय संघर्ष था। दो अलग-अलग छोर से सवर्ण एकाधिकार-आतंक-जुल्म के खिलाफ लड़ाई खड़ी हो रही थी। उच्च जाति सामंतों के सामाजिक-आर्थिक शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ सबसे हाशिए-दक्षिण टोले की दावेदारी सामने आ रही थी। पिछड़ों का भूमिहीन-गरीब हिस्सा भी साथ था। 

उधर 1974 में बिहार जेपी की अगुआई में बड़े और व्यापक जन-आंदोलन का मंच बन रहा था। दो अन्य धाराएं भी तब लगातार सक्रिय थीं। छात्रों की मांगों से शुरू होकर इस आंदोलन ने पहले तो महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ राज्यव्यापी जन-आंदोलन का स्वरूप लिया और फिर केंद्र की इंदिरा सरकार के खिलाफ एक राजनीतिक आंदोलन के बतौर विकसित हुआ। 5 जून, 1974 को गांधी मैदान में जेपी ने नारा दिया था– “संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है।” 

बिहार अब इंदिरा सरकार के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन की अग्रिम चौक बन चुका था। जगदेव प्रसाद जेपी के नेतृत्व में आगे बढ़ रहे आंदोलन में शामिल नहीं थे। वे शोषित समाज दल के बैनर तले आंदोलनरत थे। “सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है”,  “धन-धरती-राजपाट में नब्बे भाग हमारा है!” और “सौ पर नब्बे का शासन नहीं चलेगा!” जैसे नारों के साथ इंदिराशाही के खिलाफ भ्रष्टाचार, बेकारी और महंगाई के साथ ही एक समान शिक्षा, दलित छात्रावासों एवं पुस्तकालयों में डॉ. आंबेडकर का साहित्य उपलब्ध कराने, सभी मतदाताओं को फोटो युक्त पहचान पत्र उपलब्ध कराने, सिंचाई, भूमिहीनों को जमीन व रोजगार की गारंटी देकर स्वावलंबी तथा स्वाभिमानी बनाने, बटाईदारी कानून और खेत मजदूरी अधिनियम लागू करने और सामाजिक एवं शैक्षणिक आधार पर पिछड़े वर्गों के लिए जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण लागू करने व एससी-एसटी के स्थान को सुरक्षित रखकर साल-के-साल उन पदों को भरने जैसे सवालों को उठाया जा रहा था। 23 जुलाई,1974 को सहार प्रखंड मुख्यालय पर प्रदर्शन को संबोधित करते हुए उन्होंने “सारे बिहार को सहार बना देने” का आह्वान किया था।

जयप्रकाश नारायण भोजपुर में चल रहे संघर्ष से सहमत नहीं थे। इंदिराशाही के खिलाफ संघर्षरत राजनीतिक शक्तियों के बीच से ऐसी आवाज केवल जगदेव प्रसाद की ही थी, जो खुलकर सहार के उभार और सबसे हाशिए की दावेदारी के पक्ष में थी। जगदेव प्रसाद की दृष्टि इंदिराशाही के खिलाफ लड़ रही शक्तियों की दृष्टिगत सीमाओं को तोड़ती है। लोहियावादी राजनीति की मध्यमवर्ग-मध्यवर्ती जातियों के हितों की सीमाओं में भी कैद नहीं होती है।

शोषित समाज दल की पहलकदमी के अगले चरण में 5 सितंबर, 1974 को जगदेव प्रसाद शहादत देते हैं। उनकी अगुआई में बढ़ रही धारा ठहर जाती है। लेकिन “सौ में नब्बे शोषित है, नब्बे भाग हमारा है” के नारे की गूंज खत्म नहीं होती। यह अब भी नादरत है। 

संदर्भ 

1. डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह, शशिकला, जगदेव प्रसाद वाङ्मय, सम्यक प्रकाशन, द्वितीय संस्करण-2018
2. प्रसन्न कुमार चौधरी व श्रीकांत, बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रिंकु यादव

रिंकु यादव सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार के संयोजक हैं

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