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जाति, सामाजिक अन्याय और सनातन धर्म

सनातन धर्म के बारे में उदयनिधि स्टालिन का हालिया बयान वास्तव में एक आइना है, जिसमें हिंदू धर्म की ‘सनातनता’ यानी समय के साथ न बदलने की उसकी मानवद्रोही जिद को साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। बता रहे हैं मनीष आजाद

विमर्श

“श्मशान का दृश्य तो और भी घृणास्पद होता है। वह लकड़ी की चिता, शव का उस पर लिटाया जाना, वह आग लगना, वह चिरांध, वह नंग-धड़ंग लोगों का डंडे लिए चिता की लकड़ियों का उकसाना और शव को उलटना-पलटना, वह कपाल क्रिया, वह आंतों का फूटकर बाहर निकलना – इतना रोमांचकारी दृश्य है कि जो उसके अभ्यस्त नहीं हैं, उन्हें कई दिन तक ग्लानि होती रहती है। इससे बढ़कर शव की क्या दुर्दशा हो सकती है? … क्यों शव दाह का कोई ऐसा विधान नहीं सोचा जाता, जिससे मृत्यु हमारे सामने इतने अमंगल रूप में न आए, हम उसका पैशाचिक तांडव न देखकर उसका शांत वैभव देख सकें।” (हिंदू समाज के वीभत्स दृश्य-1, प्रेमचंद) 

उपरोक्त उद्धरण यह दिखाता है कि हिंदू/सनातन धर्म में सुधार की मांग कितनी आवश्यक थी। हालांकि पहली बार डॉ. आंबेडकर ने ही हिंदू धर्म के जड़ पर हमला करते हुए इसमें आमूलचूल बदलाव का प्रस्ताव रखा था। (‘जाति का विनाश’ पुस्तक से) लेकिन अफ़सोस कि हिंदू/सनातन धर्म एक ‘उल्टा चिकना घड़ा’ ही साबित हुआ और अंततः डॉ. आंबेडकर को हिंदू धर्म छोड़ना पड़ा। 

सनातन धर्म के बारे में उदयनिधि स्टालिन का हालिया बयान वास्तव में एक आइना है, जिसमें हिंदू धर्म की ‘सनातनता’ यानी समय के साथ न बदलने की उसकी मानवद्रोही जिद को साफ़-साफ़ देखा जा सकता है।

आधुनिक लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही जिस ‘कानून के शासन’ की बात की जाती है, उसमे औपचारिक तौर पर ही सही, लेकिन यह बात सर्वमान्य है कि कानून के सामने सब बराबर हैं। ठीक उसी तरह सभी धर्मों में औपचारिक तौर पर यह बात सर्वमान्य है कि ईश्वर के आगे सब बराबर हैं। लेकिन हिंदू/सनातन धर्म दुनिया का पहला और आखिरी धर्म है, जो औपचारिक तौर पर भी ईश्वर के सामने सभी मनुष्य को बराबर नहीं मानता। और इसका कारण हिंदू/सनातन धर्म का मूल यानी जाति-व्यवस्था है। 

इसी विशेषता के कारण कांचा आइलैय्या हिंदू/सनातन धर्म को ‘आध्यात्मिक फासीवाद’ भी कहते हैं। (‘हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर’, कांचा आइलैय्या शेपर्ड) 

सावित्रीबाई फुले की शिष्या मुक्ता साल्वे ने इसे बहुत ही असरदार तरीके से सामने रखा है– “यदि वेद पर सिर्फ ब्राह्मणों का अधिकार है, तब यह साफ है कि वेद हमारी किताब नहीं है। हमारी कोई किताब नहीं है, हमारा कोई धर्म नहीं है। यदि वेद सिर्फ ब्राह्मणों के लिए है तो हम कतई बाध्य नहीं हैं कि हम वेदों के हिसाब से चलें। यदि वेदों की तरफ महज देखने भर से हमें भयानक पाप लगता है (जैसा कि ब्राह्मण कहते हैं) तब क्या इसका अनुसरण करना हद दर्जे की मूर्खता नहीं है? मुसलमान कुरान के हिसाब से अपना जीवन जीते हैं, अंग्रेज बाइबिल का अनुसरण करते हैं और ब्राह्मणों के पास उनके वेद हैं। चूंकि उनके पास अपना अच्छा या बुरा धर्म है, इसलिए वे लोग हमारी तुलना में कुछ हद तक खुश हैं। हमारे पास तो अपना धर्म ही नहीं है। हे भगवान! कृपया हमें बताइए कि हमारा धर्म क्या है?”

यहां पर मुक्ता साल्वे दुनिया के दो बड़े धर्मों ईसाई और मुस्लिम धर्म से हिंदू धर्म के बुनियादी फर्क को बहुत प्रभावशाली तरीके से सामने रख रही हैं।

संसद की नई इमारत में लोकसभा सभागार में राजतंत्र के प्रतीक ‘सेंगोल’ की स्थापना करने जाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला व साधुगण

हिंदू/सनातन धर्म ने ‘अछूतों’ को अपने धर्म की निचली पायदान पर नहीं, बल्कि धर्म से ही बाहर रखा है और उन्हें भौतिक ही नहीं, अपितु आध्यात्मिक रूप से भी वंचित बनाए रखा है। कांचा आइलैय्या के शब्दों में कहें तो अछूतों को ‘आध्यात्मिक फासीवाद’ के चंगुल में रखा है। 

हिंदू/सनातन धर्म का यह ‘आध्यात्मिक फासीवाद’ इसकी कठोर और क्रूर जाति-व्यवस्था के ही कारण है। यही कारण है कि डॉ. आंबेडकर हिंदू धर्म का मूल इसकी जाति-संरचना को ही मानते हैं। इसी कठोर व क्रूर जाति व्यवस्था के कारण हिंदू धर्म के अंदर प्रायः सभी धार्मिक सुधार असफल हो गए। डॉ. आंबेडकर ने साफ़-साफ़ कहा– “आप जाति की नींव पर कोई भी इमारत खड़ी नहीं कर सकते। आप राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकेते। आप नैतिकता का निर्माण नहीं कर सकते। जाति की नींव पर जो कुछ भी खड़ा किया जाएगा, वह कभी साबुत नहीं रह सकता।” (डॉ. आंबेडकर, जाति का विनाश’, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ 96-97) 

आज हम जिस हिंदू राष्ट्र की ढलान पर फिसलते चले जा रहे हैं, वह लगभग 90 साल पहले डॉ. आंबेडकर द्वारा चिह्नित इसी ‘दरार’ की स्वाभाविक परिणति है। हमें सबसे पहले यह स्वीकार करना होगा कि हिंदू/सनातन धर्म अपने परंपरागत रूप में धर्म ही नहीं हैं। यानी यह दुनिया के सभी धर्मों से बुनियादी रूप से अलग है। यही कारण है कि हिंदू/सनातन धर्म में कभी भी यह नैतिक साहस नहीं रहा कि यह दूसरे धर्म के लोगों को अपने धर्म के साथ जोड़ सके। यानी इसके एक हाथ में तलवार तो थी, लेकिन दूसरे हाथ में बाइबल या कुरान जैसी कोई किताब नहीं थी। जो कम-से-कम औपचारिक तरीके से ही ईश्वर के सामने सभी की बराबरी की घोषणा कर सके।

डॉ. आंबेडकर के शब्दों में कहें तो जब तक जाति विद्यमान है, हिंदू धर्म कभी भी मिशनरी धर्म नहीं बन सकता। (वही, पृष्ठ 72)

जाति की जटिलता और इसकी सनातनता को भारत के प्रधानमंत्री रह चुके चौधरी चरण सिंह ने बहुत ही रोचक तरीके से बयां किया है–  “मैं एक जाट परिवार में पैदा हुआ। मै एक मुस्लिम बन सकता हूं … लेकिन मैं ब्राह्मण, राजपूत या वैश्य नहीं बन सकता। अगर मैं हरिजन बनना चाहूं तो यह भी असंभव है, क्योकि संविधान मुझे इसकी इजाजत नहीं देता।” (‘हाऊ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’, नीरजा चौधरी, अलिफ़ बुक कंपनी, 2023, भूमिका से) 

यहां पर मुझे मशहूर क्यूबाई फिल्म ‘द लास्ट सपर’ (अंतिम भोज) याद आ रही है। क्यूबा के औपनिवेशिक दौर में एक ‘प्लांटेशन’ मालिक अपने गुलामों को ईसाई धर्म में दीक्षित करता है और खुद को यीशु मानकर उनके साथ ‘द लास्ट सपर’ को पुनर्सृजित करने का प्रयास करता है। नतीजा होता है कि गुलाम उसी ईसाई धर्म की प्रेरणा से अपना अलग अर्थ निकालते हैं और ‘प्लांटेशन’ मालिक के खिलाफ़ विद्रोह कर देते हैं।

ईसाई धर्म की ‘प्रगतिशील’ व्याख्या से ही लैटिन अमेरिका में ‘लिबरेशन थिओलोजी’  पैदा हुई और इसने एक दौर में वहां के प्रगतिशील आंदोलन में अपनी भूमिका भी निभाई। इस्लाम के बारे में भी कमोवेश यही कहा जा सकता है। लेकिन हिंदू/सनातन धर्म की कोई भी प्रगतिशील व्याख्या संभव नहीं है। प्रोटेस्टेंट धर्म के आवरण में ही यूरोप में पूंजीवादी क्रांति शुरू हुई। 

भारत में कांग्रेस के स्वतंत्रता आंदोलन की सीमा बताते हुए डॉ. आंबेडकर ने जब यह मशहूर सूत्रीकरण किया कि हर राजनीतिक क्रांति से पहले एक सामाजिक/धार्मिक क्रांति होती है, तो उन्होंने अन्य उदाहरणों के साथ प्रोटेस्टेंट धर्म सुधार आंदोलन का जिक्र प्रमुखता से किया था।

स्वतंत्रता आंदोलन के साथ डॉ. आंबेडकर के अंतर्विरोध को हम तभी ठीक तरह से समझ सकते हैं जब हम हिंदू/सनातन धर्म के अंतर्विरोधों और इसके कोर यानी जाति-व्यवस्था को समझें। और डॉ. आंबेडकर द्वारा सुझाए गए सुधारों को समझें। ‘जाति का विनाश’ में ही एक जगह डॉ. आंबेडकर ने साफ़-साफ़ लिखा है कि सामाजिक तानाशाही की तुलना में राजनीतिक तानाशाही कुछ भी नहीं है और एक सुधारक जो समाज की अवहेलना करता है, उस राजनेता से कहीं ज्यादा साहसी व्यक्ति है, जो सरकार की अवहेलना करता है।

हम इसे रोजमर्रा के अपने जीवन में बखूबी महसूस कर सकते हैं। उदयनिधि स्टालिन के बयान की प्रतिक्रिया और उन पर अनेक एफआईआर से भी इसे समझा जा सकता है।

भारत के कम्युनिस्ट लंबे समय तक अपनी यूरोप-केंद्रित दृष्टि और अपने सवर्ण संस्कारों के चलते हिंदू/सनातन धर्म को ‘अब्राहमिक धर्म’ (यहूदी, ईसाई और इस्लाम) के समकक्ष रखकर देखते रहे और इसकी निर्मम आलोचना से बचते रहे।  ‘अब्राहमिक धर्म’ की मार्क्सवादी आलोचना – ‘धर्म अफीम है’ – को आंख मूंदकर हिंदू/सनातन धर्म पर भी लागू करते रहे। लेकिन वे यह नहीं समझ सके कि हिंदू/सनातन धर्म सवर्णों के लिए अफीम तो हो सकता है, लेकिन दलित समेत एक बड़ी आबादी के लिए, जैसा कि डॉ. आंबेडकर सहित अन्य दलित-बहुजन नायकों ने कहा है, यह जहर से कम नहीं है।

और इसी कारण वे डॉ. आंबेडकर के सामाजिक आंदोलन और उनके द्वारा हिंदू/सनातन धर्म की निर्मम आलोचना को भी नहीं समझ सके और उन्हें अंग्रेजों का दलाल समझते रहे।  

आज हम जाति से बजबजाते समाज में जिस धार्मिक उन्माद का सामना कर रहे हैं, उसकी कुछ जिम्मेदारी तो कम्युनिस्टों को उठानी ही पड़ेगी। सनातन धर्म की सनातनता यानी जातिभेद की सनातनता को जब तक हम नहीं तोड़ते, तब तक समाज के अंदर कोई भी जनवादी सुधार अपने औंधे मुंह गिरने को बाध्य है और रहेगा। 

आज इतने दशकों बाद जब हम पीछे मुड़कर डॉ. आंबेडकर द्वारा हिंदू/सनातन धर्म की तेजाबी आलोचना को देखते हैं तो हमें समझ आ जाता है कि उनकी वह तीक्ष्णता कितनी जायज थी। उदयनिधि स्टालिन ने जो कहा, वह इसी का एक उदाहरण मात्र  है। 

हिंदू धर्म में जातिप्रथा की केंद्रीयता के कारण ही डॉ. आंबेडकर इसे खत्म करने की बात  करते हैं। यहां यह बात समझने की है कि अगर हिंदू धर्म से जाति-व्यवस्था ख़त्म हो जाए तो हिंदू धर्म सनातन धर्म नहीं रह जाएगा। यानी इसकी सनातनता ख़त्म हो जाएगी। 

इसीलिए डॉ. आंबेडकर अपनी कालजयी रचना ‘जाति का विनाश’ में बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं– “अतः यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि इस तरह के धर्म को अवश्य नष्ट कर देना चाहिए और मैं कहता हूं कि इस प्रकार के धर्म को नष्ट कर देने में कुछ भी अधार्मिक नहीं है।” (वही, पृष्ठ 116)

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

मनीष आज़ाद

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक व अनुवादक हैं

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