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जो आदिवासी राष्ट्रपति, एमएलए और एमपी बनते हैं, अपनी मानवता को न मरने दें : सोनी सोरी

छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में रहनेवाली प्राख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता सोनी सोरी न केवल आदिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्षरत रहती हैं, बल्कि उनके विकास को लेकर भी सजग रहती हैं। उनसे राजन कुमार ने लंबी बातचीत की है। पढ़ें, इस बातचीत का संपादित अंश

अभी देश में चुनाव का माहौल है। छत्तीसगढ़ सहित पांच राज्यों में भी चुनाव होने हैं। आदिवासियों की स्थिति राजनीति में क्या है? और क्या होनी चाहिए? यदि कुछ नहीं है तो क्यों नहीं है?

चुनाव तो होते ही आए हैं, लेकिन आदिवासी हित की बात करें तो इन चुनावों में कभी आदिवासी के मुद्दे चुनावी मुद्दे नहीं बनते। बहुत सारे मुद्दे बन जाते हैं, जैसे मंदिर का मुद्दा बन जाता है, बेरोजगारी का मुद्दा बन जाता है, महंगाई और मूल आवश्यकताओं आदि का मुद्दा बन जाता है, लेकिन आदिवासी के लिए विशेष तौर पर आज तक राजनीति में क्यों कोई मुद्दे नहीं बन पाते हैं कि आदिवासी को क्या चाहिए? उनकी आवश्यकताओं को मुद्दा बनाया जाना चाहिए। उनसे पूछा जाना चाहिए कि वो चाहते क्या हैं। उनको इस तरह से [राज्य सत्ता] मार रहे हैं, यह मुद्दा बनाया जाना चाहिए। जो फर्जीवाड़ा केस किए जा रहे हैं, उसके ऊपर मुद्दा बनना चाहिए। जो आदिवासी सालों साल जेलों में बंद पड़े हैं, उनके सवालों को मुद्दा बनाया जाना चाहिए। लेकिन राजनीतिक पार्टियों के पास आदिवासियाें का कोई मुद्दा नहीं है, ऐसा क्यों है? यही मेरा सवाल है। अगर ऐसा होता तो शायद आदिवासियों के लिए कुछ अच्छा होता। अभी क्या होता है, जैसे कि मैं भी आदिवासी हूं और मुझे लगता है कि जब चुनाव के समय नेता हर जगह प्रचार करते हैं, जंगलों तक में घुस जाते हैं, लेकिन चुनाव के बाद ऐसे नेता कभी जंगल की ओर झांकते तक नहीं। वहां चाहे किसी महिला का बलात्कार हो या चाहे फर्जी एनकांटर हो, वहां नेता कभी जाते नहीं। ऐसा लगता है कि हम आदिवासी लोगों को कोई आजादी ही नहीं है। किसी तरह की आजादी नहीं है। आजादी होती तो जैसे बस्तर में घूमने का, बस्तर में चलने का, अपने जंगल में चलने की आजादी होती। कई तरह के कांड हो जाते हैं। जंगल में लकड़ी लेने गई महिला का बलात्कार हो जाता है। फिर मार दिया जाता है। कहीं पुरुष खेती कर रहे हैं, उन्हें वहां से उठा ले गए, फिर मार दिया। कोई बाजार गया तो  वहां से उठा के ले गए, थाने में रख लिया गया और फिर जंगल में ले जाकर एनकाउंटर कर दिया गया। इसी तरह की चीजें हो रही हैं। ये लोग तिरंगा झंडा की बात करते हैं। लेकिन यह तिरंगा झंडा हमारे लिए है क्या?

तिरंगा झंडा लहरा के अपने सीने से भी लपेट के हमारे आदिवासी लोगों ने अपनी जिंदगी मांगने की कोशिश की, लेकिन नहीं दिया गया। जैसे गोमपाड़ में लक्ष्मी मरकाम की बेटी हिड़मे मरकाम को घर से उठाकर जंगल में ले जाकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, फिर गोली मार दी गई। मतलब उसको नक्सली घोषित करके मार दिया, जबकि उसकी शादी हो चुकी थी, अपने घर जा चुकी थी। मैंने उसकी मां को समझाया कि हम भारत देश में रहते हैं। संवैधानिक तरीके से लड़ेंगे। हमें न्याय मिलेगा। तो वह कानूनी तरीके से निचली अदालत से लड़ते हुए हाई कोर्ट तक गई, वहां केस खारिज कर दिया गया। और कहा गया कि हिड़मे मरकाम, लक्ष्मी मरकाम की बेटी नहीं है। कोर्ट को उसे न्याय देना चाहिए था, पर नहीं दिया। अब वो मुझे कहती है कि किस तिरंगे की बात करती हो, हमें न्याय नहीं मिलेगा। तो हमें कभी आजादी मिली ही नहीं, भारत देश को आजादी मिली, यह तो स्पष्ट है। लेकिन आदिवासी को अगर आजादी मिली होती तो हम भी उसी तरह सांस ले रहे होते। हम भी घरों में सोते, जंगलों में नहीं सोना पड़ता। जंगल जाओ, बाजार जाओ, घर में रहो, पुलिस या सरकार कहीं से भी उठा लेती है।

तो मेरा यह स्पष्ट मानना है कि आदिवासी के लिए इस राजनीति में कोई मुद्दा ही नहीं है।

आप कह रही हैं कि भारतीय राजनीति में आदिवासी कहीं कोई मुद्दा है ही नहीं?

बिल्कुल नहीं। अगर मुद्दा होता तो इस तरह क्यों होता हमारे साथ?

अभी छत्तीसगढ़ में चुनाव है। जैसे पिछले चुनाव में यह कहा गया था कि जेलों में बंद जितने भी आदिवासी हैं, उन्हें बाहर निकाला जाएगा, हमें वोट दीजिए। पहले भाजपा की सरकार थी, कांग्रेस सरकार ने बोला हम निकालेंगे, हमें वोट दीजिए। अब आप ही बताइए कि जीना कौन नहीं चाहता है। आजादी कौन नहीं चाहता है। आदिवासियों ने वोट दिया, सरकार बन गई। लेकिन आज भी मेरे आदिवासी जेल में पड़े हैं। किसको रिहा किया, अगर सूची मांगो तो यही बोलते हैं कि हमने 400 लोगों को, जो नक्सली मूवमेंट में फंसे थे, उनको बाहर निकाला। लेकिन मांगो तो सूची नहीं देते हैं। आप जाकर सरकार से मांगो तो नहीं मिलेगा। वे कुछ सूची जरूर देते हैं, लेकिन वे उन लोगों की होती है, जो छोटे-मोटे लड़ाई-झगड़ा में, घरेलू झगड़ा में, शराब वगैरह बेचने वाले मामलों में आरोपित होते हैं। लेकिन नक्सल के नाम से जो फर्जी केस है, उसमें किसी को रिहा नहीं किया गया है। तो सरकार की बातें तो बेकार हैं। सवाल यही है कि हम आदिवासियों को सरकारें कब तक गुमराह करेंगी? यदि सरकार सचमुच आदिवासी हितैषी होती और यदि राजनीति आदिवासी से शुरू होती तो आदिवासी के लिए स्पष्ट मुद्दा होता कि आदिवासी क्या चाहता है, उसका हक क्या है, वह जल-जंगल-जमीन की लड़ाई क्यों करता है। इन मुद्दों को स्पेशली रखकर सोचना चाहिए और कुछ करना चाहिए। लेकिन वे कुछ नहीं करते हैं। 

अभी बस्तर से ही बहुत सारे विधायक, सांसद चुनकर जाते हैं। लोकसभा में पूरे देश से 47 आदिवासी सांसद चुनकर जाते हैं। आपके छत्तीसगढ़ से भी काफी सारे आदिवासी विधायक चुनकर जाते हैं विधान सभा में। तो वहां पर भी आदिवासियों के लिए कोई मुद्दा नहीं बनाया जाता। कोई कुछ नहीं बोलता है। न संसद में और न विधान सभा में। इसके क्या कारण हैं?

देखिए, इसलिए लोग मुद्दे नहीं उठाते हैं क्योंकि सबसे पहले तो डर है कि कहीं हमारी कुर्सी गिर न जाए। अगर मान लीजिए उदाहरण के लिए बस्तर के किसी जंगल में एक महिला का बलात्कार हुआ, या मेरे आदिवासी भाई का फर्जी मुठभेड़ हुआ या एनकाउंटर हुआ, जिसे लेकर हमलोगों ने आंदोलन चलाया, आवाज उठाई। उस मुद्दा को पत्रकार भाइयों ने उठाया तो उसे संसद में उठाना चाहिए कि गलत हुआ है, यह नहीं होना चाहिए था। लेकिन वे नहीं उठाते हैं, क्योंकि डर कहीं न कहीं है। कुर्सी का डर या फिर अगला चुनाव में उनको टिकट नहीं मिलेगा। निःस्वार्थी नेता हैं नहीं। सब स्वार्थी नेता हैं। जब [सूबे में] कांग्रेस की नहीं, भाजपा की सरकार थी [वर्ष 2013 में] *सारकेगुड़ा में 16 ग्रामीणों को मारा गया। उस समय 16 ग्रामीणों पर अंधाधुंध फायरिंग की गई। क्या हुआ था कि रात में सब अपने कल्चर के हिसाब से देवी-देवता का पूजा-पाठ कर रहे थे। उसे वे अपना त्योहार बोलते हैं। वहां सब गांव वाले इकट्ठा हुए। पुलिस ने चारों तरफ से घेराबंदी करके गोली चला दिया। देखते ही देखते 16 ग्रामीण मार दिए गए। उन्हें नक्सली करार दिया गया। खबरों में बताया गया कि वहां नक्सली से मुठभेड़ हो रही थी, बड़े-बड़े नक्सली मार गिराए गए, इतने नक्सली मारे। ऐसा सभी बड़े-बड़े न्यूज चैनलों में चलाया गया। वहां पर ग्रामीणों ने काफी संघर्ष किया कि हम नक्सली नहीं हैं। हम अपने त्योहार के लिए पूजा-पाठ के लिए इकट्ठा हुए थे। सभी लोग कहते रहे, पर कुछ नहीं हुआ। कुछ घायल हो गए। कुछ लोगों को जेल में डाला गया। 5-6 साल तक वे लोग जेल में थे। उसके बाद [न्यायिक जांच] आयोग ने कहा कि निर्दोष आदिवासियों को मारा गया है। तब भाजपा सरकार के खिलाफ आवाज उठाया गया, अभी कांग्रेस सरकार में आयोग ने कहा कि निर्दोष आदिवासियों को मारा गया। उस समय कांग्रेस ने कहा था कि भाजपा की रमन सिंह सरकार ने निर्दोष आदिवासियों पर गोली चलाई, इस सरकार ने आदिवासियों को मारा है इस सरकार पर कार्रवाई होनी चाहिए। इस सरकार को हट जाना चाहिए। इस्तीफा देना चाहिए। कई तरह की बातें कांग्रेस ने कहा। जब आज कांग्रेस सरकार है और जब आयोग ने कहा है कि भाजपा सरकार में निर्दोष आदिवासियों को मारा गया तो क्यों आज कांग्रेस सरकार दोषियों के खिलाफ एफआईआर करने नहीं दे रही है? मैं खुद गई थी सारकेगुडा में। वहां थाने में गई, लेकिन एफआईआर नहीं कर रही है। 

अपने घर में सोनी सोरी (तस्वीर : राजन कुमार)

आप यह बताइए कि जब आप [कांग्रेस] विपक्ष में थे तो आपने आवाज उठाई कि गलत हुआ, लेकिन जब आपकी सरकार आई और आपके पास लेटर आता है तो आप एफआईआर नहीं करने दे रहे हैं। एफआईआर करने दिया होता तो जिन 16 लोगों को गोली मार दी गई, उनको न्याय मिलता और जो लोग वर्दीधारी, जो पुलिस वाले हैं या जिन्होंने गोलियां चलाईं, उनको सलाखों के पीछे होना था। लेकिन कांग्रेस सरकार पूरी तरह उन्हें सपोर्ट कर रही है। इसी तरह से जैसे मेरे मामले में भी हुआ। उस समय [कांग्रेस के लोग] बोले कि सोनी सोरी के साथ गलत हुआ। उस समय भाजपा सरकार थी। “सोनी सोरी एक टीचर थी। एक टीचर को माओवादी बताकर उसे जेल भेजना गलत है।” सब मामलों में कांग्रेस के लोगों ने आवाज उठाई। और आज 12 साल बाद केस जीतकर मैं बाइज्जत रिहा हूं। तो आज मुझे मेरी नौकरी वापस दे दो। सभी कागजात सरकार के समक्ष रख रही हूं तब भी मुझे नौकरी वापस नहीं दे रही है। तो यह बात है कि चाहे भाजपा हो या कांग्रेस हो, दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। दोनों की नीति वही है। बस चेहरा बदलकर ऐसा दिखाने की कोशिश की जाती है कि हम कांग्रेसी हैं, हम भाजपा वाले हैं। मेरे आदिवासी समाज के जो चुनकर गए हैं, चाहे विधान सभा हो या लोकसभा हो, कठपुतली बनके रह गए हैं। इनको कोई पॉवर नहीं है। सिर्फ अपनी जेब भरना है। अगर ऐसा नहीं है तो मेरे सामने वाले आदिवासी नेता कह सकते हैं कि सोनी सोरी ने मुझे कठपुतली नेता कह रही है और हमको बोल रही है कि हम आदिवासी हितैषी नहीं है। आदिवासी नेता ऐसा मुझ पर आरोप लगाते हैं तो मेरा भी सवाल वही है कि इतना नरसंहार हो रहा है, पेसा कानून, ग्रामसभा, पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत क्षेत्र है, उसके बाद भी लीगल रूप से सब कुछ क्यों नही हो रहा है? सारकेगुडा, सिलगेर में दिनदहाड़े गोली क्यों चली कांग्रेस सरकार में? उन्होंने एक ही बात पूछी थी न कि हमलोगों से पूछे बगैर हमारी जमीन में कैंप कैसे लगाए? उन्होंने कोई बंदूक लेकर, तीर लेकर [चलाया हो] या पथराव किया हो, ऐसा कुछ नहीं किया। ये एक तरह से गांधीवादी की तरह शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे और वे आगे बढ़कर आए और पूछने लगे। सब कुछ शांतिपूर्वक हो रहा था। लेकिन उनके ऊपर गोली चला दिया गया। यह क्यों हुआ? तब आदिवासी नेता को दर्द क्यों नहीं होता, तकलीफ क्यों नहीं होती? क्या वह आदिवासी नहीं है? आप विधायक बन गए, सांसद बन गए उस जगह से, तो क्यों नहीं मामला उठाते हैं? उनका मुंह क्यों नही खुलता? सोनी सोरी जैसी कई ऐसी महिलाएं हैं बस्तर में, जिनके साथ बलात्कार हुआ। बेलम नेंड्रा में बलात्कार हुआ। इस मामले को खारिज कर दिया गया। 

अब वहां पुलिस वाले जाकर बोल रहे हैं कि सरकार भी हमारी, कोर्ट भी हमारी, सब कुछ हमारा है, तुम्हारा कुछ भी नहीं है। हम फिर से आएंगे तुम्हारा बलात्कार करने और बलात्कार करके चले जाएंगे। बलात्कार दस बार करेंगे। तुम्हारे लिए कोई नहीं है। अभी दो महीना पहले ही यह केस खारिज हुआ है। जिनका बलात्कार हुआ है, वे इतने सालों से लड़ रहे हैं और अब हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया। अब उस कागज को ऑनलाइन दिखाता है। उस कागज लेकर बेलम नेंड्रा में महिलाओं को पुलिस बोल रही है कि हां हमने ऐसा किया है। बेलम नेंड्रा, पेद्दा गेलूर, चिन्ना गेलूर गांव है बीजापुर जिले का। वहीं का यह मामला है। तो उनके साथ बलात्कार हुआ, वे कोर्ट गए, लड़े वहां लेकिन केस ही खारिज कर दिया। इसका मतलब उन्होंने कोई फैसला नहीं दिया। गुमराह करके मामला ही खत्म कर दिया हाई कोर्ट ने। 

ऐसा पुलिस वाले कह रहे हैं? 

हां, पुलिस वाले ही कह रहे हैं। अब महिलाएं फोन करके कहती हैं सोनी दीदी हम कोर्ट जाएं कि क्या करें। आप तो हमें सलाह देती हैं न कि हम सुप्रीम कोर्ट में लड़ेंगे, सब जगह हम लोग निडर होकर लड़ेंगे, पर क्या मिला? अब पुलिस वाले फिर वही करेंगे। अगर उस जगह जाकर यही आदिवासी नेता मामले को गंभीरता से ले लेते तो कुछ चीजें तो अच्छी हो सकती थीं। दोषियों को सजा मिलती, दोबारा बलात्कार नहीं होता। क्योंकि उनको भी तो डर है। वे भी तो किसी न किसी माता के बच्चे हैं। उसमें तो कोई किसान का बेटा होगा, कोई दलित होगा, सभी पूंजीवादी तो नहीं होंगे। होंगे पुलिस वाले लेकिन फिर भी इंसानियत तो होनी चाहिए उनमें। उनको भी तो डर होगा रोजी-रोटी का। सरकार उनको सुधरने का मौका नहीं देती। सरकार उनके अपराधों को पूरी तरह ढंक लेती है और उनको बढ़ावा देती है, जिससे कि वे आदिवासी के ऊपर और जुल्म करें ताकि आदिवासी इनके जुल्म का शिकार होकर मरते रहें और अपने जल, जंगल, जमीन को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाएं। चाहे वह नक्सल के नाम से मारा जाय या किसी भी रूप में मारा जाय या जाति, धर्म परिवर्तन के रूप में मारा जाय, पर मारा जाय। मेरे आदिवासी नेता लोग विधान सभा में बैठकर क्या यह सब देखते-सुनते नहीं हैं? उन्हें सब दिखता है, सब कुछ सुनाई देता है, लेकिन नेता बनने के बाद वे अपने आप को भूल जाते हैं। अपनी इंसानियत को भूल जाते हैं।

अभी विधान सभा चुनाव होने हैं और लोक सभा का भी चुनाव होना है। ये लोग फिर आएंगे वोट मांगने। आप कह रही हैं कि उनलोगों ने चाहे भाजपा, कांग्रेस या किसी भी पार्टी के हों, आप लोगों के मुद्दे उठाए ही नहीं हैं तो फिर अब उनको आप क्या जवाब देंगी? 

देखिए, मैं सरकार के बारे में बता रही थी। अभी  फिर चुनाव है। अभी फिर यही नेता आएंगे वोट मांगने। मैं कहीं जाती हूं तो हमसे भी यही सवाल पूछा जाता है कि आप इतना कुछ बताते हैं कि हमारे साथ जुल्म होता है, फिर दोबारा उसी को वोट देकर आप नेता क्यों बनाते हैं? तो हमारे पास यही जवाब होता है कि सिर्फ हमारे वोट से वे नेता नहीं बने हैं, बल्कि यहां पर और भी जाति-धर्म के लोग हैं, जो अन्य जगहों से आए हैं, चाहे वे यूपी-बिहार से हों या किसी अन्य जगह से। तो उनके वोट से ये नेता बन जाते हैं। कुछ गिने-चुने पढ़े-लिखे आदिवासी हैं, जो राजनीति से जुड़े हैं। राजनीति में तो सब हैं, आदिवासी भी, दलित भी और मुस्लिम भी। इनके वोट लेकर ये सब तो नेता बन ही जाते हैं। हमसे पूछा जाता है कि जब आप उस नेता के बारे में या उस पार्टी के बारे में इस तरह की बातें करती हो तो इनको सरकार बनाने का मौका क्यों दिया तो मैं कहती हूं कि सरकार बनाना सिर्फ हमारे हाथ में तो नहीं है न? 

मेरे आदिवासी समाज की बात करें, बस्तर में जो अंतिम व्यक्ति है, जो जंगल में जूझ रहा है, उसका तो इस वोट से कोई लेना-देना ही नहीं। मतलब ऐसा लगता है कि जो हमारा भारत देश है, उससे वह बिल्कुल हट के है। जैसे वह भारत देश को जानता ही नहीं है कि यह भारत देश क्या है। तो जो गिने-चुने बाहरी लोग आए हैं, यहां बसे हैं, उनके वोटों से और कुछ आदिवासी वोटों से, वो नेता फिर बन जाते हैं। फिर सरकार बन जाती है। उसे इस चीज का घमंड भी हो सकता है। लेकिन वह दिन भी दूर नहीं जब इसमें बदलाव होगा। इस तरह से सरकार और सरकार में आदिवासी कोटे से बने विधायक की जो सोच है, जो मान के चलते हैं कि जनरल सीट से काम हो जाएगा, तो आदिवासी नेताओं को तो डर होना चाहिए, क्योंकि जिस दिन पूरे आदिवासी समुदाय को खत्म किया तो यह क्षेत्र जनरल हो जाएगा, सीट भी जनरल होगा। उस दिन इन नेताओं को पता चलेगा कि हमारा आदिवासी होना कितना महत्वपूर्ण है। हमें क्यों आदिवासियों को बचाना चाहिए था और ना बचाने के कारण उस दिन कोई जनरल दावेदार होगा। आज जो हालत हमारे आदिवासियों की जंगलों में हो रही है, वही हालत जनरल सीट होने पर इन नेताओं की होगी। और ये उनकी गुलामी करेंगे। यह होगा एक दिन। इन नेताओं को जागना चाहिए आदिवासी समुदाय को बचाने के लिए। 

जंगलों में जहां आदिवासी लोग रहते हैं, उनसे वोट मांगने, उनसे बात करने, उनके मुद्दे उठाने, ये नेता लोग जाते हैं?

नहीं। बहुत कम। अंदर इलाकों में कभी नहीं जाते। अभी जैसे हम लोग एनएमडीसी के पास लोहा गांव की बातें कर रहे थे, लोहा गांव में तो अभी तक रास्ता बना ही नहीं है। जबकि एनएमडीसी 75 साल से वहां माइनिंग कर रहा है। ये नेता जाएंगे तभी तो रास्ता बनेगा। अंदर-अंदर इलाकों में ये नेता जाते ही नहीं है। जहां तक रोड है, वहीं तक बस अपना वोट बटोरने के लिए जाते हैं। 

जिन इलाकों में रास्ते नहीं हैं, जहां पर नेता लोग नहीं जाते हैं, वहां के आदिवासी लोग तो वोट करते ही होंगे? तो वहां के लोग वोट कैसे करते हैं, वोट करने कहां जाते हैं?

देखिए, क्या होता है कि उन इलाकों में, जो बहुत अंदर हैं, जहां पर रास्ता नहीं है, वहां तो लोग बाहर आने के लिए अपना रास्ता [पगडंडी] बना लिये हैं। जंगलों से होकर बाहर निकलते हैं। लेकिन उस जगह पर कह सकते हैं कि तीन-चार पंचायतों का एक पोलिंग बूथ रखा जाता है। वे लोग नाराज तो हैं ही और उनको वोट देने भी नहीं दिया जाता। अक्सर पुलिस के लोग कुछ न कुछ अपना कारनामा, फर्जीवाड़ा करके बोलते हैं कि वोट मिल गया और वोट बैंक बढ़ा लेते हैं, क्योंकि अंदर-अंदर इलाकों में, कहीं 25-30 किलोमीटर तो कहीं 60 किलोमीटर, आना-जाना कहां तक संभव हो पाएगा। वे कितना दूर आएंगे। तब वहां पर क्या बोला जाता है कि माओवादी ने वोट देने नहीं दिया। माओवादी वोट देने नहीं दे रहे हैं, इसलिए आदिवासी वोट देने से पीछे भाग रहे हैं। जबकि ऐसा नहीं है। आदिवासी बोलते हैं कि वोट देकर भी करेंगे क्या, इस वोट से हमारा कभी भला हुआ है क्या? क्या हुआ हमारे लिए कोई जीवन मिला है क्या? सिर्फ गोली मिली। नेता को वोट देकर भी हमें गोली खाना है और नहीं देकर भी हमको मरना ही है तो किस नेता को हम जिंदा रहने के लिए चुनें? गोली तो हमको खाना ही है। तो उस जगह का वोट बटोरने के लिए फोर्स बहुत लग जाती है। तो कोई एक स्कूल में तीन-चार पंचायतों का एक साथ पोलिंग बूथ डाल देते हैं। उस पोलिंग बूथ में बहुत कम लोग आते हैं। अब क्योंकि इस जगह का पोलिंग बूथ निल हो गया तो उन्हें फिर चुनाव कराना पड़ेगा। इसलिए किसी न किसी तरीके से एक-दो आदमी से जैसे-तैसे करके वोट बटोरेंगे। जबकि यह फर्जीवाड़ा है। जांच भी करो तो कौन जांच करेगा? कई जगह ज्यादा से ज्यादा फर्जी ही होता है अंदर-अंदर इलाके में पूरी फोर्स के साथ। वैसे ही हमारे आदिवासी फोर्स के खिलाफ गुस्से से भरे हैं। जहां पुलिस है, पीठासीन अधिकारी बैठा रहे, कुछ भी करे, जिसकी ताकत है वह फर्जीवाड़ा करा ही लेता है। अगर वे लोग बोलते हैं कि यहां इतना आदिवासी आए, इतना वोट पड़ा, सब झूठ है। ऐसा कुछ भी नहीं है। 

आप चुनाव लड़ना चाहती है? 

देखिए, मैं जेल से निकलने के बाद चुनाव लड़ी। चुनाव लड़ने के बाद मैंने खुद के भीतर ताकत पैदा किया कि अपनों के बीच मुझे जाना है, संघर्ष करना है। चुनाव का ही झंडा लेकर मैं चुनाव लड़ी। लेकिन उसके बाद मैं चुनाव से हट गई, राजनीति से बाहर आ गई, क्योंकि मुझे मेरा बस्तर और मेरे लोग चाहिए। आदिवासियों के मानवोचित अधिकारों का उसका हनन हो रहा है, उसको बचाने के लिए मैं राजनीति से बाहर आ गई, क्योंकि लड़ाई निःस्वार्थ और पारदर्शी होनी चाहिए। इससे मैं चाहे भाजपा सरकार हो या कोई भी सरकार हो, उसको मुंहतोड़ जवाब दे सकूं। जहां तक माओवादियों की बात है तो उनसे भी मैं बात रख सकूं कि मेरे लिए जल, जंगल और जमीन व बस्तर, यहां तक कि मानव जाति को बचाना, उनको राहत दिलाना, आदिवासी की जिंदगी की खुशहाली को वापस दिलाना सबसे महत्वपूर्ण है। यह चाहती हूं। लेकिन मेरे मन में मुझे ऐसा लगा बहुत लंबे समय के बाद भी कि मेरे चुनाव लड़ने से विधान सभा या लोक सभा में आवाज बुलंद होगी, उससे यदि लोगों का भला हो सकता है, इसकी यदि गारंटी या अपनेआप पर विश्वास हो जाए तो मैं उस स्थिति में चुनाव में किसी भी पार्टी का टिकट लेकर उतर सकती हूं। लेकिन अभी तक मेरे अंदर ऐसी कोई गारंटी नहीं है और खुद के ऊपर भी ऐसी कोई गारंटी अपनेआप में अभी तक नहीं कर पा रही हूं। खासकर जो आज की राजनीति है, उसको देखते हुए। अगर मैं चुनाव में उतर कर मैं इतना कुछ कर सकती हूं, जिस दिन मेरे अंदर यह भरोसा पैदा हो जाए और देश भर के मेरे साथियों को यह लगा कि यदि मैं विधानसभा या लोकसभा जाती हूं तो उसके बदले मेरा बस्तर, मेरे लोग, जिस बस्तर को मैंने बचपन में देखा है, जब मैं पैदा होकर जबसे होश संभाला है, जो उस तरह की आजादी वाला बस्तर, चाहे रात हो, दिन हो, किसी भी तरह का बंदिश वाला बस्तर नहीं, बल्कि खुले आसमान में, तारों में, अंधेरों में मैं जी रही थी, वह बस्तर फिर से मुझे महसूस हुआ कि ऐसे लड़ने से वह बस्तर वापस मिल सकता है तो जरूर चुनाव लड़ूंगी। बस्तर के लोग ऐसे ही हंसते हुए, जैसे रात में हंसी, नाच गान करते थे, बहुत तरह के हमारे कल्चर, जो खतम हो गए वो वापस आ सकता है, ऐसे चुनाव लड़ने की स्थिति बनी तो मैं जरूर चुनाव लड़ने को सोच सकती हूं। पर अभी ऐसा कुछ भी नहीं है। 

अभी नरेंद्र मोदी सरकार बोल रही है कि ‘एक देश – एक चुनाव’ होनी चाहिए। मतलब एक ही बार चुनाव होनी चाहिए, अलग-अलग राज्यों में नहीं होनी चाहिए। इसके बारे में आप क्या सोचती हैं?

नरेंद्र मोदी जी बहुत अच्छा बोले। ‘एक देश – एक चुनाव’ बोले हैं न! मैं इसी को उलट कर बोलती हूं कि हम आदिवासी, दलित या कोई भी लोग औरों से अलग-अलग क्यों हैं? एक देश, एक इंसान क्यों नहीं हैं? हम सब एक जैसे मानव हैं तो एक मानव का देश बना दें, तो बढ़िया रहे। ‘एक देश – एक चुनाव’ तो ‘एक देश – एक मानव’ होना चाहिए। तो ऐसा अगर हो जाए तो बहुत अच्छा है। एक देश में एक चुनाव से पहले सबको एक बराबर मानव माने, एक देश में एक मानव चाहे वह मुस्लिम हो, दलित हो, आदिवासी हो या हिंदुत्ववादी हो। सभी मानव एक ही है। मोदी जी यह क्यों नहीं कहते कि सारे लोग, हम सब एक हैं और एक मानव हैं। उसमें कोई भी डाकू, ब्राह्मण, दलित, आदिवासी, मुस्लिम कुछ भी नहीं होना चाहिए। सिर्फ एक मानव होना चाहिए। भारत देश सिर्फ मानवों का देश है। तो ऐसी स्थिति में वोट भी एक होना चाहिए, किसी के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए। सभी लोग सम्मानपूर्वक बराबरी से जी सकें। तब अच्छा लगेगा ‘एक देश – एक चुनाव’।

लेकिन इस देश में ऐसा नहीं है। इस देश में एक मानवता नहीं है। यहां दलित के साथ क्या हो रहा है, आदिवासी के साथ क्या हो रहा है, पिछड़े वर्गों के साथ क्या हो रहा है और हिंदुत्ववादी ताकतों का अलग ही मामला है। कभी-कभार हम सबको यह लगता है कि यह देश पूंजीपति और हिंदुत्ववादियों का है। हमारा तो है ही नहीं। तो जो मोदी जी ऐसा कह रहे हैं कि ‘एक देश – एक चुनाव’ होना चाहिए तो मुझे अभी यह ठीक नहीं लगता।

अभी पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं – मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना तथा मिजोरम में। और अगले साल लोक सभा के चुनाव होने वाले हैं तो इस चुनाव के मद्देनजर आप देश के आदिवासियों को क्या संदेश देना चाहेंगी? और पार्टियों तथा लोगों को भी क्या संदेश देना चाहेंगी?

देखिए, आदिवासी नेताओं के लिए मेरा यही संदेश है कि जो भी आदिवासी नेता, विधायक बन रहे हैं, चुनाव लड़ रहे हैं, वे सत्ता में पहुंच रहे हैं तो वो अपने आदिवासी का कौम का होना, आदिवासियों के साथ क्या जुल्म हो रहा है या मानव जाति के साथ क्या जुल्म हो रहा है, इसको ना भूलें। वे अपनी मानवता को न भूलें। वे अपनी मानवता को इस कदर भूल गए हैं कि खुद की बहन-बेटी की इज्जत लूटकर सड़कों पर फेंक दे रहे हैं, जंगलों में फेंक दे रहे हैं। यह कई जगह हो रहा है, पूरे देश में हो रहा है। यह सिर्फ आदिवासी की बात नहीं है। दलित लोगों के साथ भी हो रहा है तो दलित भी नेता बनके भूल क्यों जाते हैं? आदिवासी भी नेता बन रहे हैं और भूल जाते हैं। जैसे कि मणिपुर में हो रहा है, वहां इतनी बड़ी चीज हुई न, लेकिन जो राष्ट्रपति हैं, राष्ट्रपति जैसे कि वह आदिवासी हैं, तो राष्ट्रपति बनके भी मुर्मू ने क्या किया? जो खुद एक महिला थीं और मणिपुर में जिनको दिनदहाड़े नंगा करके घुमाया गया, वह भी महिला थीं, तो क्या राष्ट्रपतिजी की आंखें बंद हो गईं थीं कि उनको दिखाई नहीं दिया? उनके लिए संदेश है कि आंखें खोलकर रखो और इनके खिलाफ कार्रवाई करो। जिस कुर्सी पर आप बने हो, उसकी मानवता को दिखाओ। इसमें इतना झुकने और दबने की जरूरत नहीं है। अगर आप सच्चे राष्ट्रपति हो तो देश के लिए अच्छा करना है, जनता के लिए अच्छा करना है तो अपनी मानवता को मरने मत दो, मिटने मत दो। उसको जिंदा रखिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि अगर मैं आवाज उठाऊंगी तो पता नहीं दोबारा राष्ट्रपति बन पाऊंगी या नहीं, मेरी कुर्सी चली जाएगी। इसका लालच पालकर अन्याय को देखकर अनदेखा न करें। ऐसा देखकर भी जो अनदेखा कर रहे हैं, ऐसे लोगों को तो नेता बनने की जरूरत नहीं है, पर बनते हैं तो कम से कम अपनी मानवता को जिंदा रखें। जो उनकी मानवता खत्म हो चुकी है। मणिपुर जैसे जगह में यह सब हुआ यह सब सोचकर ही मुझे इतना तकलीफ होती है कि अगर आज एक आदिवासी राष्ट्रपति और एक महिला राष्ट्रपति है, जिसे सब बोल रहे हैं कि आदिवासी राष्ट्रपति से आपका कद ऊंचा हो गया, समाज खुशियों से भर गया, पर इसमें कैसी खुशी? इनके आदिवासी और महिला राष्ट्रपति रहने के बाद भी महिलाओं आदिवासियों को न्याय नहीं मिला तो ऐसे नेताओं को हम क्या संदेश दें? हम नेताओं को यहीं संदेश देंगे कि अपनी मानवता को जगाकर रखो, उस मानवता को खत्म होने मत दो। 

(संपादन : समीक्षा/नवल/अनिल)

*संशोधित, एडसमेट के स्थान पर सारकेगुड़ा,  1 अक्टूबर, 2023


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लेखक के बारे में

राजन कुमार

राजन कुमार फारवर्ड प्रेस के उप-संपादक (हिंदी) हैं

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मध्य प्रदेश : मासूम भाई और चाचा की हत्या पर सवाल उठानेवाली दलित किशोरी की संदिग्ध मौत पर सवाल
सागर जिले में हुए दलित उत्पीड़न की इस तरह की लोमहर्षक घटना के विरोध में जिस तरह सामाजिक गोलबंदी होनी चाहिए थी, वैसी देखने...
फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन के विरुद्ध है मराठा आरक्षण आंदोलन (दूसरा भाग)
मराठा आरक्षण आंदोलन पर आधारित आलेख शृंखला के दूसरे भाग में प्रो. श्रावण देवरे बता रहे हैं वर्ष 2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण...