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अपनी हिस्सेदारी कैसे खो देते हैं ओबीसी, जानें महाराष्ट्र के उदाहरण से

सन् 1990 के बाद अचानक अनेक ब्राह्मण व मराठा लोग शिवसेना के टिकट पर चुनकर आने लगे। गलती से छगन भुजबल जैसा कोई ओबीसी चुनकर आया भी तो उसके सिर पर मनोहर जोशी जैसा ब्राह्मण बिठा दिया गया, ताकि वह ओबीसी नेता ओबीसी जनता का नेता न बनने पाए। बता रहे हैं प्रो. श्रावण देवरे

बीते 29 अगस्त, 2023 को वंचित बहुजन आघाड़ी के संस्थापक अध्यक्ष बालासाहेब प्रकाश आंबेडकर से फोन पर ‘ओबीसी राजनीति की दिशा क्या होनी चाहिए’ विषय के संबंध में विचार-विमर्श हुआ। ओबीसी को किसे वोट देना चाहिए? इस संबंध में उन्होंने पहली बात रखी कि– “जो पार्टियां आरक्षण विरोधी हैं, ओबीसी वर्ग के लोगों को उन्हें कतई वोट नहीं देना चाहिए।” इसे और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि भाजपा पार्टी खुले तौर पर आरक्षण विरोधी है, इसलिए ओबीसी वर्ग को भूलकर भी भाजपा को वोट नहीं देना चाहिए। कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसी पार्टियां ब्राह्मणों व अमीर मराठों की पार्टियां हैं, उनके निर्णय एवं क्रियान्वयन का तरीका सबकुछ मराठा-ब्राह्मणों के हाथ में है। इसलिए इस सारी प्रक्रिया में ओबीसी का कहीं कोई स्थान नहीं है। इसलिए ओबीसी को इन पार्टियों को भी दरकिनार करना चाहिए। 

दूसरी एक महत्वपूर्ण बात उन्होंने यह रखी कि “जो पार्टियां ओबीसी को 50 प्रतिशत से अधिक टिकट देंगी, उन्हीं पार्टियों को ओबीसी वोट करेंगे, ऐसी घोषणा करनी चाहिए!” अभी यह मुद्दा प्रासंगिक ही है, क्योंकि कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसी मराठा वर्चस्व वाली पार्टियां मराठा जाति के लोगों को ही ज्यादा टिकट देती हैं और एक-दो दलाल ओबीसी को टिकट देकर 52 प्रतिशत ओबीसी का वोटबैंक लूटती हैं।

दरअसल, शिवसेना अपने शुरुआती दिनों में ओबीसी को बड़े पैमाने पर टिकट देती थी, लेकिन वह काल शिवसेना की नींव भरने का काल था। नींव भरते समय नींव का पत्थर बनने के लिए ओबीसी के अतिरिक्त दूसरा कोई समाज घटक पात्र नहीं हो सकता था। नींव का पत्थर बनना मतलब ‘बलि का बकरा’ बनना। बलि का बकरा बनने के लिए एक विशेष पात्रता की आवश्यकता होती है– जिसके पास विचार करने की शक्ति शेष न हो। नेतृत्व के प्रति प्रचंड निष्ठा व भक्ति होना, दूसरी पात्रता है। इन दोनों कसौटियों पर आज भी ओबीसी अच्छे नंबरों से पास होता रहता है। इसलिए शिवसेना के शुरुआती राजनीतिक कारगुजारियों की नींव भरने के लिए चुनाव में ओबीसी उम्मीदवार बड़े पैमाने पर खड़े किए गए और 52 प्रतिशत ओबीसी वोटबैंक पर डकैती डालकर शिवसेना ने अपनी नींव मजबूत कर डाली। 

नींव मजबूत होने के बाद व ओबीसी वोटबैंक पक्का होने के बाद जब ज्यादा विधायक, सांसद जीतकर आने की संभावना बढ़ गई तो इन सभी ओबीसी उम्मीदवारों का टिकट काटकर वहां मराठा व ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दिया गया। इसका उदाहरण धुले का ले सकते हैं। उदाहरण दिए बिना ओबीसी को समझ में आता नहीं। धुले में वास्तव में क्या हुआ? यह समझते हैं। 

अतीत के गलियारे से – बाल ठाकरे के साथ छगन भुजबल एक चुनाावी कार्यक्रम में

मैं 1972 में शिक्षण के लिए धुले आया उस समय दीवारों पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा रहता था– “शिवसेना के जुझारू नेता ‘बापू शार्दूल’ को प्रचंड मतों से विजयी बनायें।” ऐसा प्रचार लिखा हुआ दिखाई देता था। सन् 1961 से 1967 का काल देश भर के ओबीसी के जागृत होने का काल था। 1967 में एक ही साथ तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश व बिहार इन तीन बड़े प्रदेशों की राजनीतिक सत्ता पर ओबीसी आंदोलन ने कब्जा किया था। ओबीसी जागृति का यह विस्तार महाराष्ट्र में भी कभी भी जड़ पकड़ सकता है, यह कांग्रेसी मराठा-ब्राह्मणों को अच्छी तरह एहसास हो गया था। फुले-शाहू-आंबेडकर द्वारा महाराष्ट्र में की गई मशक्कत ओबीसी आंदोलन के लिए पोषक थी। ठीक इसी समय कांग्रेस ने शिवसेना को जन्म दिया। कांग्रेस के मराठा वर्चस्व की राजनीति को देखते हुए ओबीसी को शिवसेना राजनीतिक विकल्प लगने लगा। 

चुनाव में ओबीसी को टिकटें देकर उनमें नेतृत्व की महत्वाकांक्षा का निर्माण किया गया। ऐसे अनेक ओबीसी में एक धुले के बापू शार्दूल भी थे। प्रत्येक विधानसभा व लोकसभा चुनाव में बापू शार्दूल शिवसेना का टिकट लेकर खड़े होते थे। बापू शार्दूल को शत प्रतिशत मालूम रहता था कि वे कांग्रेस के विरोध में कतई चुनकर नहीं आ सकते, लेकिन फिर भी केवल शिवसेना की नींव भरने के लिए चुनाव में खड़े रहते थे और अपनी मेहनत की कमाई का पैसा व संसाधन का इस्तेमाल करके चुनाव लड़ते थे। चुनाव में जमानत जब्त होने के बाद फिर से अपनी रोजी-रोटी के व्यवसाय में लग जाते थे। 1985 के बाद हिंदुत्व की पालकी भी उन्होंने ढोयी। 

सन् 1990 के बाद जब हिंदुत्व की विचारधारा का वोटबैंक तैयार हुआ और शिवसेना उम्मीदवार के चुनकर आने की संभावना बढ़ी, उस समय बापू शार्दूल का टिकट काट दिया गया और टिकट शिवसेना से रत्तीभर भी संबंध न रखनेवाले मराठा जाति के विजय नवले को दे दिया गया। सन् 1990 के बाद अचानक अनेक ब्राह्मण व मराठा लोग शिवसेना के टिकट पर चुनकर आने लगे। गलती से छगन भुजबल जैसा कोई ओबीसी चुनकर आया भी तो उसके सिर पर मनोहर जोशी जैसा ब्राह्मण बिठा दिया गया, ताकि वह ओबीसी नेता ओबीसी जनता का नेता न बनने पाए। शिवसेना को जन्म देने का मुख्य कारण ही यही था कि ओबीसी वर्ग से स्वतंत्र रूप से ओबीसी नेता का निर्माण न हो। राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले ओबीसी व्यक्ति को टिकट देकर उनके मेहनत से कमाए पैसे को चुनाव में खर्च करवाना और हारने के बाद राजनीति को किनारे रखकर फिर अपनी रोजी-रोटी के पीछे भागना। ऐसे असंख्य महत्वाकांक्षी ओबीसी कार्यकर्ताओं का जीवन तबाह करने का काम शिवसेना ने किया है। ये महत्वाकांक्षी ओबीसी कार्यकर्ता उस समय शिवसेना के चक्कर में न पड़कर यदि कर्मवीर एडवोकेट जनार्दन पाटिल के ओबीसी संगठन में काम किए होते तो तमिलनाडु, बिहार व उत्तर प्रदेश की तरह महाराष्ट्र में भी ओबीसी की पार्टी स्थापित हो गई होती और ये ओबीसी सत्ताधारी हो गए होते। लेकिन ऐसा न हो इसके लिए मराठा-ब्राह्मणों ने शिवसेना नामक षड्यंत्र रचा और उसमें ऐन उम्मीद के समय पर ओबीसी की पीढ़ी बरबाद कर दिया।

प्रत्येक काल में नए-नए तरीके से शिवसेना जैसी पार्टियों का निर्माण किया जाता है और ओबीसी की पीढ़ियां बर्बाद करने का दुष्ट-चक्र चलते रहता है। अब शिवसेना का ही प्रतिरूप आम आदमी पार्टी और भारत राष्ट्र समिति पार्टी महाराष्ट्र में आ रही हैं। महाराष्ट्र के मराठा-ब्राह्मणों ने जिस प्रकार भुजबल जैसा उम्दा नेतृत्व मिट्टी में मिला दिया, उसी प्रकार दिल्ली में केजरीवाल ने योगेन्द्र यादव जैसा वैचारिक नेतृत्व मिट्टी में मिलाया है। और अब वे महाराष्ट्र के असंख्य ओबीसी कार्यकर्ताओं को तबाह करने के लिए कमर कसकर तैयार हो चुके हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव खुल्लमखुल्ला ओबीसी कार्यकर्ताओं को 5-10 हजार रुपए में खरीद रहे हैं। 

ऐसी परिस्थिति में प्रकाश आंबेडकर द्वारा बताया गया कि पचास प्रतिशत उम्मीदवारी का मुद्दा भी भ्रम पैदा करता है, क्योंकि केजरीवाल व केसीआर जैसे लोग अपनी पार्टियों की नींव भरने के लिए ओबीसी पत्थरों का बड़े पैमाने पर उपयोग करते हैं। इसलिए हमें 2024 के लोकसभा के चुनाव तक कोई और पैमाना ढूंढ़ना पड़ेगा। 

क्रमश : जारी

(मराठी से हिंदी अनुवाद : चंद्रभान पाल, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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