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जानिए, बिहार को मद्रास क्यों बना देना चाहते थे जगदेव प्रसाद?

संसोपा से अलग होने के बाद समाज के नब्बे प्रतिशत शोषितों का निछक्का दल बनाने के लिए जगदेव प्रसाद आगे बढ़ते हैं। सबसे पहले शोषित दल का गठन करते हैं। वे दावा करते हैं कि मद्रास में जो डीएमके है, वही बिहार में शोषित दल है। पढ़ें, जगदेव प्रसाद की वैचारिक विरासत का उल्लेख करता रिंकु यादव का यह आलेख

जब हम जगदेव प्रसाद की वैचारिक दृष्टि और विरासत पर बात करते हैं तो अमूमन उनकी 1967 में शोषित दल के निर्माण से लेकर 5 सितंबर, 1974 शहादत के दिन तक की कम अंतराल की वैचारिक-राजनीतिक यात्रा व सक्रियता ही खासतौर पर गौरतलब होती है। जबकि इसके पहले वे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से अलग होकर 25 अगस्त, 1967 को शोषित दल का गठन करते हैं। उसके बाद 20 नवंबर, 1970 को हिंदुस्तानी शोषित दल का और फिर शोषित दल के साथ खासतौर पर उत्तर प्रदेश के रामस्वरूप वर्मा के नेतृत्व वाले समाज दल के साथ मिलन होता है और 7 अगस्त, 1972 को शोषित समाज दल का गठन होता है। इस दौर में वे वैचारिक दृष्टि, एजेंडा और राजनीति को नए सिरे से पुनर्परिभाषित करने की प्रक्रिया से गुजरते हैं।

14 जून, 1969 को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय शोषित संघ के सलाना अधिवेशन के संबोधन में वह कहते हैं– “लगभग बाइस साल पहले हमारा मुल्क आजाद हुआ। आजादी मिलने के पहले यह उम्मीद की गई थी कि आजाद हिंदुस्तान में न कोई शोषित रहेगा और न कोई शोषक जुल्म करने वाला रहेगा और न ही कोई जुल्म बर्दाश्त करने वाला। बराबरी कायम होगी और हर इंसान को पूरा आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। आजादी से हम लोगों ने जो उम्मीद की थी, जो मनसूबे बंधे थे, उनमें पांच सैकड़ा (प्रतिशत) मनसूबा भी पूरा नहीं हुआ।”

उनके ही शब्दों में “…यह कहना बिल्कुल गलत है कि हिंदुस्तान की आजादी सबके लिए आई।” उनके अनुसार, “विदेशी साम्राज्यवादियों से हिंदुस्तान 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ, लेकिन हिंदुस्तानी साम्राज्यवादियों से आजाद होना बाकी है।” वे ऊंची जाति को हिंदुस्तानी साम्राज्यवादी करार देते हैं और यह कहने का ठोस आधार प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि ऊंची जात हिंदुस्तान में सिर्फ दस प्रतिशत है। इसकी मनोवृत्ति बिल्कुल साम्राज्यवादी है। नब्बे प्रतिशत ऊंची जात वाले दस प्रतिशत शोषितों को अपना गुलाम बनाए रखना चाहते हैं। आज का हिंदुस्तान दस प्रतिशत ऊंची जात का एक विशाल उपनिवेश है। सब चीजों पर इन्हीं का एकाधिकार जैसा है। नौकरशाही और राजनीतिक नेतृत्व पर एकाधिकार होने के कारण ऊंची जात वालों ने जनतंत्र को एक माखौल में बदल दिया है। इनमें साम्राज्यवादी के सभी गुण, मनोवृत्ति और व्यवहार मौजूद हैं। वह यह भी कहते हैं कि ऊंची जात के भिखमंगे की मनोवृत्ति भी शोषण करने की है। ऊंची जाति के गरीब भी अहम भावना और एकाधिकारवाद के शिकार हैं।

जगदेव प्रसाद (2 फरवरी, 1992 – 5 सितंबर, 1974)

जगदेव प्रसाद द्विज साम्राज्यवादियों से मुक्ति और सच्चे जनतंत्र के लिए – शोषितों का राज, शोषितों द्वारा, शोषितों के लिए – कायम करने हेतु मद्रास के डीएमके से ज्यादा कट्टर शोषितों के एक दल की जरूरत राष्ट्रीय पैमाने पर देखते हैं, जो सामाजिक क्रांति को मूल क्रांति समझे। वे हिंदुस्तान की विशेष परिस्थिति के मद्देनजर यही तकाजा मानते हैं।

उनका मानना था कि सदियों से जारी द्विजवाद पर आधारित वर्ण-व्यवस्था के कारण समाज साफ तौर से दो भागों – शोषक और शोषित – में बंट गया है। ऊंची जाति हिंदू के शोषक चरित्र को स्पष्ट करते हुए वे बताते हैं कि सिर्फ दस प्रतिशत होते हुए भी सरकारी, गैरसरकारी और अर्ध-सरकारी नौकरियों में नब्बे सैकड़ा (प्रतिशत) जगहों पर अपना एकाधिकार जमाए बैठे हैं। नब्बे प्रतिशत भूमि और उत्पादन के अन्य साधनों पर भी इन्हीं का आधिपत्य है। सामाजिक प्रतिष्ठा भी इन्हीं को उपलब्ध है। दलित, आदिवासी, मुसलमान और पिछड़ी जातियों को इन्होंने गुलाम और अर्द्ध-गुलाम जैसी स्थिति में रहने को मजबूर कर दिया है। वे दलित, आदिवासी, मुसलमान व पिछड़ी जातियों को शोषित कहते हैं। लेकिन, उनके लिए शोषक या शोषित अलग-अलग जाति या समूह का योग नहीं है। वे शोषक और शोषित को वर्ग के बतौर देखते हैं। भारत की ठोस परिस्थिति में वर्ग और वर्ग-संघर्ष को नए सिरे से परिभाषित करते हुए कम्युनिस्टों के समानांतर वैकल्पिक दृष्टि के साथ खड़ा होते हैं। जगदेव प्रसाद कम्युनिस्टों के वर्ग और वर्ग-संघर्ष की परिभाषा से सहमत नहीं थे। भारत के कम्युनिस्ट जाति के प्रश्न से निरपेक्ष होकर वर्ग को परिभाषित करते हैं। इसलिए आर्थिक क्रांति पर जोर देते हैं। उनके लिए वर्ग-संघर्ष का आधार आर्थिक गैर-बराबरी होता है। जगदेव प्रसाद वर्ग-संघर्ष के दायरे में सामाजिक गैर-बराबरी या जाति आधारित गैर-बराबरी को लेकर आते हैं, जाति के प्रश्न को संबोधित करते हैं। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि हिंदुस्तान में आर्थिक असमानता के साथ-साथ सामाजिक गैर-बराबरी भी है। रूस में या दुनिया के अन्य देशों में जाति नाम की कोई चीज नहीं है। इसलिए वर्ग-संघर्ष का जो स्वरूप दुनिया के अन्य देशों में रहा, ठीक वही हिंदुस्तान के लिए नहीं हो सकता। अगर मार्क्स-लेनिन हिंदुस्तान में पैदा होते तो यहां की ऊंची जाति को शोषक वर्ग और साम्राज्यवादी करार देते। इसलिए जो रूस में मार्क्स का सर्वहारा है, ठीक वही हिंदुस्तान में शोषित नहीं हो सकता। रूस का सर्वहारा सिर्फ आर्थिक सर्वहारा है, लेकिन हिंदुस्तान का सर्वहारा आर्थिक और सामाजिक दोनों ख्याल से सर्वहारा है। हिंदुस्तान का सर्वहारा सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम है।

उन्होंने साफ तौर पर कहा कि हिंदुस्तान की सामाजिक बनावट के अनुसार कुछ जातियों को दिमागी, सांस्कृतिक और आर्थिक तौर पर गुलाम बनाया गया। रोटी और इज्जत दोनों ऊंची जात वालों के हाथ में कैद हो गईं। स्पष्ट है कि इज्जत और रोटी दोनों को ऊंची जाति के कब्जे से मुक्त कराना है। जगदेव प्रसाद ने इज्जत और रोटी की लड़ाई को हिंदुस्तान का असली और सही वर्ग संघर्ष बताया। इससे इतर वर्ग-संघर्ष की दूसरी परिभाषाओं और व्याख्याओं को गलत कहा। उनके लिए व्यावहारिक वर्ग-संघर्ष यही था। 

जगदेव प्रसाद जाति के प्रश्न को केवल स्वीकारते भर नहीं हैं, बल्कि वर्ण-जाति आधारित व्यवस्था को भारतीय समाज में नियामक के रूप में देखते हैं। इसलिए सामाजिक क्रांति को मूल बताते हैं, प्रधानता देते हैं। उनका साफ मानना था कि सामाजिक क्रांति के बगैर आर्थिक क्रांति नहीं होगी। मतलब साफ है कि सामाजिक क्रांति से ही आर्थिक क्रांति का रास्ता खुलेगा। उनके अनुसार, सामाजिक क्रांति का मतलब है– द्विजों के हाथ से शासन की बागडोर शोषितों के हाथ में आना। जब तक शोषित समाज के हाथ में हुकूमत की बागडोर नहीं आएगी, तब तक आर्थिक गैर-बराबरी नहीं मिटेगी।

जगदेव प्रसाद शोषक और शोषित में स्वार्थ की दृष्टि से कहीं समझौते की गुंजाइश नहीं देखते हैं और उनकी पक्षधरता भी स्पष्ट थी। व्यावहारिक राजनीति के नाम पर वे आज की राजनीतिक शब्दावली में ‘ए टू जेड’, ‘सर्वजन’ या ‘सबकी’ बात नहीं कर रहे थे। वे स्पष्ट वर्गीय-पक्षधरता और वर्ग-संघर्ष के आधार पर राजनीति को परिभाषित कर रहे थे। वे साफ शब्दों में कहते हैं– “शोषक से शोषितों की मुक्ति के लिए दोनों के बीच वैमनस्य और संघर्ष का बढ़ना निहायत जरूरी है। मेल-जोल का बुरा नतीजा शोषितों को भुगतना पड़ रहा है। समन्वय की नीति से शोषक को फायदा है और संघर्ष की नीति से शोषित वर्ग को फायदा है। दस प्रतिशत शोषक के खिलाफ नब्बे प्रतिशत शोषित की मोर्चाबंदी शोषण मुक्त हिंदुस्तान के लिए निहायत जरूरी है।”

वे सोशलिस्ट राजनीति, खासतौर से लोहियावादी राजनीति से संबंध विच्छेद के साथ ब्राह्मणवाद और सवर्ण एकाधिकार पर निर्णायक हमले की दिशा पकड़ते हैं। हिंदी पट्टी में क्रांतिकारी वैचारिक दृष्टि व राजनीति गढ़ने की जद्दोजहद में खासतौर पर कम्युनिस्टों की आलोचना उनके लिए महत्वपूर्ण होती है तो डीएमके मॉडल होता है। संसोपा से अलग होने के बाद समाज के नब्बे प्रतिशत शोषितों का निछक्का दल बनाने के लिए वे आगे बढ़ते हैं। सबसे पहले शोषित दल का गठन करते हैं। वे दावा करते हैं कि मद्रास में जो डीएमके है, वही बिहार में शोषित दल है। वहीं वे यह भी कहते हैं कि अगर कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व अद्विजों का होता और जनसंघ का नेतृत्व द्विजों का, तब हम कम्युनिस्ट पार्टी को क्रांतिकारी और शोषितों का दोस्त व रहबर मान लेते। तब शोषित दल बनाने की जरूरत नहीं पड़ती।

वे कम्युनिज्म को पसंद करने और असली कम्युनिस्ट होने का दावा करते हैं। यहां की कम्युनिस्ट पार्टियों की सख्त आलोचना करते हुए यह कहते हैं कि हमारे दल ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद की पृष्ठभूमि में हिंदुस्तान के असली वर्ग संघर्ष का दर्शन गढ़ा और हिंदुस्तान की विशेष परिस्थिति में असली वर्ग संघर्ष की रूपरेखा तैयार की है। कम्युनिस्टों की तर्ज पर वे शोषित दल के सिद्धांत की घोषणा करते हैं– नब्बे प्रतिशत का राजसत्ता पर कब्जा और इस्तेमाल, सामाजिक-आर्थिक क्रांति द्वारा बराबरी का राज कायम करना। इसके लिए वे शोषित दल की नीतियों का आधार वर्ग संघर्ष में विश्वास करने वाले कट्टर वामपंथी दल की नीतियों को बताते हैं। ऐसी नीतियों को बनाने और उन्हें अमल में लाने के लिए वे शोषित समाज के गरीबों के नेतृत्व में आगे बढ़ने की जरूरत को रेखांकित करते हुए कहते हैं– “गरीबों के लिए गरीब ही लड़ सकता है। ‘अमीर का बच्चा कभी न सच्चा’ इस बुनियाद पर गांव से लेकर दिल्ली तक शोषित इंकलाब कायम करना होगा।”

सच है कि जगदेव प्रसाद की राजनीति द्विज साम्राज्यवादियों को मद्रास की याद दिलाती थी। 2 अप्रैल, 1970 को बिहार विधानसभा में अपने ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने कहा था कि सामाजिक न्याय, स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रशासन के लिए सरकारी, अर्द्ध-सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में कम से कम 90 सैकड़ा (प्रतिशत) जगह शोषितों के लिए सुरक्षित कर दी जाए। इस पर जनसंघ के जनार्दन तिवारी ने जगदेव प्रसाद को बिहार से मद्रास चले जाने के लिए कहा था, क्योंकि जैसा वे चाहते हैं मद्रास में हो गया है। जगदेव प्रसाद ने जवाब में कहा था कि “मैं बिहार को ही मद्रास बना दूंगा। अब हिंदुस्तान के ऊंची जाति के साम्राज्यवादियों को अमेरिका जाने की तैयारी करनी चाहिए, क्योंकि साम्राज्यवादियों की जगह अमेरिका के अलावा और कहीं भी नहीं है।”

बिहार मद्रास नहीं बन सका। मद्रास, अब तमिलनाडु, आज भी सामाजिक न्याय और विकास के मानकों पर मॉडल है। डीएमके पार्टी आज भी सामाजिक न्याय की राजनीति का मॉडल पेश करती है। हालांकि, बिहार-यूपी में सामाजिक न्याय की धाराएं मौजूद हैं। दूसरी तरफ उनकी यह घोषणा सच साबित हुई हैं कि जैसे-जैसे शोषित आंदोलन आगे बढ़ेगा, वैसे-वैसे दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां मरती जाएंगीं।

1990 के मंडल आंदोलन के कारण बहुजन उभार में मुख्यधारा की दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां बिहार-यूपी जैसे राज्यों में मृतप्राय स्थिति में पहुंच गईं। हालांकि, 1974 में जगदेव प्रसाद शहादत के पहले जिस सहार के उभार के पक्ष में खड़े थे, उससे उपजी भाकपा-माले गतिरोध के साथ बिहार में उल्लेखनीय तौर पर मौजूद है। जगदेव प्रसाद खासतौर से हिंदी पट्टी के लिए चुनौती हैं और चुनौती को समझने व पूरा करने का सूत्र भी हैं। इस प्रकार वे अनुत्तरित सवाल भी हैं और जवाब भी!

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रिंकु यादव

रिंकु यादव सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार के संयोजक हैं

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