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बिहार जातिवार जनगणना : ‘जाति का विनाश’ के क्रांति पर्व का आगाज

महाराष्ट्र के वरिष्ठ ओबीसी विचारक व आंदोलनकर्ता प्रो. श्रावण देवरे इस आलेख शृंखला के तहत बिहार में हुए जातिवार गणना के असर का मूल्यांकन राजनीतिक तथा सामाजिक स्तर पर कर रहे हैं। पहले भाग में पढ़ें उनका यह विश्लेषण

पहला भाग : आंकड़ों ने खोली ऊंची जातियों के फैलाए भ्रमों की पोल

गत 2 अक्टूबर, 2023 को बिहार सरकार ने जाति आधारित गणना रिपोर्ट की पहली किस्त को जारी कर दिया। यह आसान नहीं, बल्कि बेहद चुनौतीपूर्ण था। जिस तरह से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राह में रोड़े अटकाए गए और उन्होंने सभी बाधाओं को पार करते हुए इसे सच कर दिखाया। उनकी इस कवायद का असर राष्ट्रीय फलक पर दिखाई पड़ा। पूरे देश में प्रतिक्रियाएं सामने आईं।

चूंकि जातिवार जनगणना का विषय जाति-व्यवस्था से जुड़ा हुआ है, इसलिए इस पर उठने वाली प्रतिक्रियाओं को स्वाभाविक रूप से ब्राह्मणी और अब्राह्मणी खेमों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। समाचार पत्रों में इन दोनों खेमों की ओर से प्रतिक्रियाएं प्रकाशित की गईं। एक उदाहरण है गत 13 अक्टूबर, 2023 को अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के अंक में दो बुद्धिजीवियों योगेंद्र यादव और मनीष सभरवाल की टिप्पणियां। 

इनमें योगेंद्र यादव अब्राह्मणी खेमे का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि मनीष सभरवाल ब्राह्मणी खेमे से संबंध रखते हैं।

योगेंद्र यादव ने अपनी प्रतिक्रिया में जातिवार जनगणना को सीधे तौर पर जाति का विनाश से जोड़ दिया। वे लिखते हैं– जातिवार जनगणना जाति की जकड़न को तोड़ने, अवसरों की समानता के संवैधानिक वादे को पूरा करने और बाबासाहेब के जाति के विनाश के सपने को साकार करने में मदद करेगी।” 

लेकिन सभरवाल अपनी प्रतिक्रिया में अवसर की समानता के लिए गांधी के सर्वोदयवादी मार्ग का सुझाव देते हैं– गांधीजी का मानना था कि सर्वोदय अंत्योदय (कमजोरों का कल्याण) के माध्यम से पूरा किया जाएगा

जबकि गांधीवाद का मार्ग जाति के विनाश का नहीं, बल्कि जाति-सामंजस्य का मार्ग है। सभरवाल ने आशंका व्यक्त की है कि जातिवार जनगणना से अधिक आरक्षण की मांग बढ़ेगी। लेकिन यह कहते हुए कि सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण जरूरी है, वे सामान्यतया किंतु-परंतु की भाषा का भी प्रयोग करते हैं और कहते हैं कि आरक्षण का उपयोग सामाजिक न्याय के बजाय राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है तथा इसलिए अब आरक्षण खत्म करने का समय आ गया है।

फुले-पेरियार-आंबेडकरवादी विचारधारा वाले अब्राह्मणी खेमे के जाति के विनाश के सिद्धांतों का खंडन ब्राह्मणी खेमा सीधे तौर पर नहीं कर सकता है। इसलिए उन्हें उन सिद्धांतों को मजबूरी में बिना शर्त स्वीकार करना पड़ता है, लेकिन वे ‘किंतु-परंतु’ का प्रयोग करके उन सिद्धांतों को विकृत कर देते हैं। यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि बिहार की जाति आधारित गणना से जाति के विनाश से संबंधित कुछ अवधारणाएं व सूत्र स्पष्ट रूप से सिद्ध हुए हैं।

तस्वीर में जोतीराव फुले, पेरियार, डॉ. आंबेडकर, कर्पूरी ठाकुर, मुंगेरी लाल और दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंह को सौंपते बी.पी. मंडल

महाराष्ट्र में फुले-शाहू-आंबेडकरी आंदोलन में कुछ शब्द आम बोलचाल के मुहावरे बन गए हैं। इनमें एक मुहावरा है– “साढ़े तीन टके की संस्कृति”। वर्ष 1982 में घूमंतू व गैर-अधिसूचित जातियों/जनजातियों के नेता उपराकार लक्ष्मणराव माने ने कोल्हापुर में आयोजित ‘विषमता निर्मूलन परिषद’ में पहली बार इस मुहावरे का प्रयोग किया था और तब से यह आंदोलन का आदर्श वाक्य बन गया है। इसे बिहार में जाति आधारित गणना ने भी सही साबित कर दिया है कि ब्राह्मणों की आबादी ठीक साढ़े तीन प्रतिशत ही है।  

जाति के विनाश के संबंध में एक और फार्मूला कांशीराम ने प्रस्तुत किया था। सन् 1984 में बहुजन समाज पार्टी के गठन के बाद उन्होंने 15 के मुकाबले 85 का समीकरण पेश किया। नीतीश कुमार सरकार द्वारा कराए गए जातिवार गणना में इसकी भी पुष्टि हुई है कि ‘तिलक-तराजू-तलवार’ यानी ‘ब्राह्मण-वैश्य-क्षत्रिय’ की आबादी 15 प्रतिशत है और शूद्र-अतिशूद्र यानी दलित, आदिवासी और ओबीसी की आबादी 85 प्रतिशत साबित हुई है।

बिहार में हुई जातिवार गणना ने एक और भ्रम का भंडाफोड़ कर दिया है। बिहार में राजपूत और भूमिहार जैसी जमींदार जातियां अपनी जनसंख्या का प्रतिशत बढ़ा-चढ़ाकर बताती थीं और राजनीतिक सत्ता में इतनी हिस्सेदारी बताकर आरक्षण भी मांगती थीं। लेकिन जातिवार गणना के कारण इन जातियों का बनाया हुआ भ्रम का गुब्बारा फूट गया। इस गणना के आंकड़ों के अनुसार राजपूत 3.5 प्रतिशत और भूमिहार 2.8 प्रतिशत साबित हुए हैं। जाहिर तौर पर इससे उनके दावों को झटका लगा है। इसी तरह महाराष्ट्र में मराठा जाति भी अपनी आबादी का प्रतिशत 35 फीसदी तक बढ़ा-चढ़ा कर बताती है और उसी के आधार पर सत्ता पर कब्जा करके ओबीसी आरक्षण की मांग भी करती है। अगर महाराष्ट्र में जातिवार जनगणना कराई जाय तो सही आंकड़े सामने आ जाएंगे और मराठों द्वारा फैलाया गया भ्रम भी दूर हो जाएगा।

चूंकि महाराष्ट्र भी बिहार की तरह ओबीसी बहुल है, इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि यहां भी ओबीसी 60 से 65 प्रतिशत साबित होंगे और मराठा आबादी बहुत कम (5 से 8 प्रतिशत) साबित होगी। जातिवार जनगणना यह भी साबित करेगी कि 75 वर्षों से मराठा जाति को हर क्षेत्र में उनकी संख्या से दस गुना अधिक प्रतिनिधित्व मिला है। इससे मराठा जाति के शुगर फैक्ट्रियों, बैंक खातों, शिक्षण संस्थाओं, सहकारिता संस्थाओं में उनकी भागीदारी और उनकी जमीन की भी गिनती होगी, और उनके 150 से ज्यादा विधायक और 40 से ज्यादा सांसद, इन सभी की गिनती होगी। इस गिनती से साबित हो जाएगा कि मराठा जात सामाजिक और शैक्षणिक रूप से अगड़ी जाति है, और इस जाति को ओबीसी आरक्षण नही दिया जा सकता। इस प्रकार ओबीसी पर थोपा हुआ ‘मराठा-संकट’ अपने-आप ही खत्म हो जाएगा। चूंकि मराठा इस वास्तविक सच्चाई से अच्छी तरह परिचित हैं, इसलिए वे गलती से भी जातिवार जनगणना की मांग नहीं करते हैं।

जातिवार गणना के प्रभावों की बात करें तो इसकी जद में रोहिणी आयोग की अनुशंसाएं भी आएंगीं। केंद्र में सत्तासीन संघ-भाजपा सरकार रोहिणी आयोग का गठन कर अति पिछड़ी जातियों को ओबीसी की मुख्यधारा से काटने का प्रयास कर रही है। लेकिन अब बिहार में जातिवार गणना होने से केंद्र सरकार की इस साजिश के असफल होने की उम्मीद है, क्योंकि रोहिणी आयोग की रिपोर्ट और निष्कर्ष सिर्फ नमूना सर्वेक्षण पर निर्भर  है। इस कारण वह अस्थायी और अल्प-विश्वसनीय है। 

जब सभरवाल अपने आलेख में ‘अवसरों की समानता और सामाजिक न्याय’ के लिए गांधीवाद का मार्ग बताते हैं, तो वे कहते हैं कि सर्वोदय की भूमिका से अंत्योदय प्राप्त किया जाना चाहिए। वह यह भी कहते हैं कि अंत्योदय का मतलब हर कमजोर व्यक्ति को मजबूत करना है। 

जाहिर तौर पर यदि कोई व्यक्ति निर्बल है तो उसे धन देकर बलवान बनाया जा सकता है। लेकिन तब क्या होगा यदि उसे कमज़ोर बनाने वाली व्यवस्था जारी रहेगी? देश में अगर बहुसंख्यक समाज घटक को सैकड़ों वर्षों तक कमजोर बनाए रखने के लिए सरकारी स्तर पर विशिष्ट नीतियां एवं कार्यक्रम आधिकारिक तौर पर लागू किये जाते रहे हों, तो उन सभी कमजोर लोगों को मजबूत बनाने के लिए सरकारी स्तर पर विशिष्ट नीतियां एवं कार्यक्रम लागू करने होंगे। मतलब यह कि यदि जाति-व्यवस्था के कारण अधिकांश समाज घटक वर्षों तक कमजोर बनाकर रखे गए हैं, तो सरकार को इससे छुटकारा पाने के लिए जाति उन्मूलन की ही योजना बनानी होगी। और इस तरह जाति का विनाश मुकम्मल करनेवाली नीति को बनाने के लिए जातिवार जनगणना अत्यावश्यक हो जाती है।

क्रमश: जारी

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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