h n

निछक्का दल की कहानी, जगदेव प्रसाद की जुबानी

शोषित दल शोषितों के निछक्का दल के बतौर अस्तित्व में आया। जगदेव प्रसाद उस दौर के राजनीतिक परिदृश्य में शोषितों के निछक्का दल बनाने की जरूरत को रेखांकित करते हैं। वे इसके औचित्य को स्पष्ट करते हैं। बता रहे हैं रिंकु यादव

भारत में कम्युनिस्टों के क्रांति का पहिया वर्ग-जाति में आज तक उलझा हुआ है। वे वर्ग और जाति की जटिलताओं को सुलझाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। वहीं जगदेव प्रसाद जाति और वर्ग के प्रश्न को सुलझाने की दिशा में आगे बढ़ते हैं। वर्ग संघर्ष के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं और उसकी रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि सामाजिक क्रांति के रास्ते ही आर्थिक क्रांति हो सकती है। सामाजिक क्रांति को धुरी बताते हुए वे इसपर बल देते हैं कि क्रांति का राजनीतिक औजार ऊंची जाति के नेतृत्व से मुक्त शोषितों का निछक्का (पूरी तरह से सवर्णों के बगैर) दल ही होगा।

वे द्विज जाल से दल और राजनीति को मुक्त रखने के लिए दुश्मन वर्ग के साथ घालमेल से साफ तौर पर इंकार करते हैं।

जगदेव प्रसाद ने संयुक्त सोशलिष्ट पार्टी (संसोपा) से अलग होकर शोषितों का निछक्का दल बनाया था। वे शोषित दल से शुरू कर महामना रामस्वरूप वर्मा की पार्टी समाज दल के साथ मिलकर शोषित समाज दल के गठन तक पहुंचे थे।

दरअसल, 1967 के आम चुनाव के बाद बिहार में संयुक्त मोर्चे की सरकार बनी थी। इसमें संसोपा भी शामिल थी। जगदेव प्रसाद संसोपा के बड़े नेता थे। बिहार में जिन राजनीतिक परिस्थितियों में वे एक नए दल के गठन का फैसला लेते हैं, उसके बारे में वे बताते हैं– “संयुक्त मोर्चे की ही सरकार के सोलह मंत्रियों में ग्यारह मंत्री ऊंची जाति के थे। कम्युनिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी भी सरकार में शामिल थीं। कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों मंत्री ऊंची जाति में एक ही जाति के सामंत थे। संसोपा ने भी पिछड़ों के लिए साठ सैकड़ा सिद्धांत का पालन नहीं किया था। इसके छह मंत्रियों में तीन ऊंची जाति के थे। पूरे मंत्रिमंडल में एक भी दलित या आदिवासी मंत्री नहीं था।” वे बताते हैं कि “संयुक्त मोर्चे की सरकार में नब्बे प्रतिशत जनता दस प्रतिशत शोषकों के जुल्म से नाकोदम हो रही थी। मंत्रिमंडल में शोषित जनता के हकों के लिए संघर्ष करने वाला कोई नहीं था।”

जगदेव प्रसाद के लिए संयुक्त मोर्चे की सरकार द्वारा नब्बे प्रतिशत शोषितों की उपेक्षा बर्दाश्त करना संभव नहीं हुआ। इस परिस्थिति में उन्होंने संयुक्त मोर्चे की सरकार को तोड़ना शोषितों के हक में समझा। वे कहते हैं कि “संसोपा अपने सिद्धांतों से बहुत दूर हट गई थी। सिद्धांत खत्म हो गया था, सिर्फ पाखंड रह गया था। इसलिए हम लोगों ने संयुक्त मोर्चे की सरकार को तोड़ा और संसोपा को भी छोड़ा।”

शोषित दल शोषितों के निछक्का दल के बतौर अस्तित्व में आया। जगदेव प्रसाद उस दौर के राजनीतिक परिदृश्य में शोषितों के निछक्का दल बनाने की जरूरत को रेखांकित करते हैं। वे इसके औचित्य को स्पष्ट करते हैं। दरअसल, कांग्रेस चौथे आम चुनाव में लगे जबर्दस्त झटके से कुछ ही समय के बाद हुए मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस एक हद तक उबरने में कामयाब हो गई थी। जगदेव प्रसाद का कहना था कि गैर-कांग्रेसी पार्टियों से शोषित जनता को चंद महीनों में ही कांग्रेस के लंबे शासन से ज्यादा निराशा हाथ लगी। वे बताते हैं कि चौथा आम चुनाव आते-आते इस मुल्क में एक आम ख्याल जग गया कि कांग्रेस तमाम बीमारियों की जड़ है। कांग्रेस को हरा दिया जाए तो हिंदुस्तान बिना बीमारी और समस्या का मुल्क बन जाएगा। इसी ऊंचे ख्याल से चौथे आम चुनाव में आधे राज्यों में कांग्रेस का बहुमत खत्म हो गया। वे बीमारियों की जड़ दलों के द्विज नियंत्रण में देखते हैं। उनके ही शब्दों में– “1947 में जो हम लोगों ने सपना देखा था, उसमें 5 प्रतिशत भी सफलता नहीं मिली है। हिंदुस्तान में जितने दल हैं उनका नेतृत्व ऊंची जाति के हाथ में है। चाहे वह कांग्रेस हो या जनसंघ, कम्युनिस्ट हो या संयुक्त सोशलिस्ट, प्रजा सोशलिस्ट हो या स्वतंत्र पार्टी, सभी पर उन्हीं का कब्जा है। हिंदुस्तान की तमाम बीमारियों की जड़ में ये लोग हैं।” 

जगदेव प्रसाद (2 फरवरी, 1922 – 5 सितंबर, 1974)

वे कहते हैं कि प्रांतों में जो सरकारें बनीं, उनमें सिर्फ दल और नाम का परिवर्तन हुआ। कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। इसका स्पष्ट कारण था– सभी दलों पर ऊंची जात का कब्जा होने के कारण घुमा-फिराकर भिन्न-भिन्न दलों के माध्यम से इन्हीं ऊंची जात वालों ने सत्ता पर कब्जा कर लिया।

स्पष्ट तौर पर जगदेव प्रसाद रेखांकित करते हैं कि द्विज नियंत्रित दल मौलिक परिवर्तन नहीं कर सकते हैं। वे कहते हैं कि यह साफ है कि इन पार्टियों के हाथ में शासन का सूत्र रहते हिंदुस्तान में सामाजिक-आर्थिक क्रांति नहीं हो सकती। एक क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण की जरूरत व औचित्य स्पष्ट होता है। शोषितों का निछक्का दल ही सामाजिक-आर्थिक क्रांति को अंजाम दे सकता है। वे पार्टी संरचना में किसी स्तर पर नेतृत्व में द्विजों को रखने से इंकार करते हैं।

गौरतलब है कि संसोपा छोड़ते हुए जगदेव प्रसाद डॉ. रामनोहर लोहिया के शासक वर्ग की धारणा से अलग धारणा बनाते हैं। डॉ. लोहिया शासक वर्ग में ऊंची जाति के 90 प्रतिशत से अधिक को शामिल मानते थे। उनका मानना था कि ऊंची जाति, अंग्रेजी शिक्षा और संपत्ति में से कोई दो लक्षण साथ जुड़ जाने पर कोई भी व्यक्ति शासक वर्ग का बन जाएगा। वहीं संगठन के नेतृत्व में वे सैकड़ा साठ के विशेष अवसर के सिद्धांत को लागू करने की बात करते थे। जगदेव प्रसाद भारतीय समाज के ठोस विश्लेषण के आधार पर शासक वर्ग का निर्धारण करते हैं तो ऊंची जात का होने को ही आधार बनाते हैं। वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं– ऊंची जाति का आदमी कभी क्रांतिकारी हो ही नहीं सकता। वे ऊंची जाति के किसी आदमी के वर्ग चरित्र के बदलने को असंभव मानते हैं।

ऊंची जाति के क्रांतिकारी नहीं होने की धारणा पर सवाल खड़ा किया जा सकता है। तब ऊंची जाति के किसी व्यक्ति के सामने अपने वर्ग से नाता तोड़ने और वर्ग चरित्र बदलने का सवाल खड़ा हो जाता है। आखिर इसकी प्रक्रिया क्या होगी? ऊंची जाति को ऐतिहासिक तौर पर विशेषाधिकार हासिल है, जो विशेषाधिकार किसी के जाति को मानने या नहीं मानने से तय नहीं होता है, जो उस खास जाति में पैदा होने के साथ हासिल होता है। आर्थिक हैसियत बदल सकती है, लेकिन जाति नहीं! जब तक जाति का विनाश नहीं होता, किसी व्यक्ति का जाति से संबंध विच्छेद नहीं हो सकता! जबकि जीवन के हर क्षेत्र में द्विजों का एकाधिकार कायम है तो ऊंची जाति के व्यक्ति के क्रांति के लिए खड़ा होने के लिए प्राथमिक शर्त बन ही जाता है कि वह विशेषाधिकार छोड़े। वह नेतृत्व में तो कतई नहीं रह सकता। इसलिए द्विजों से शोषितों की मुक्ति का राजनीतिक औजार द्विज नेतृत्व मुक्त दल ही हो सकता है।

ऊंची जाति के चरित्र और व्यवहार को ज्यादा स्पष्ट करते हुए जगदेव प्रसाद कहते हैं–  “ऊंची जाति का बच्चा-बच्चा अमीर हो या गरीब, शोषण की कला में माहिर है। शराफत और इंसानियत का वह दुश्मन है। सच्चाई से इसको कोई वास्ता नहीं है।” वे ऊंची जाति की ईमानदारी और शराफत में विश्वास करने को अव्वल दर्जे की बेवकूफी बताते हैं। वे नेतृत्व में और संगठन के विभिन्न स्तरों पर ऊंची जात को कोई जगह देना उचित नहीं मानते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि पैदाइशी तौर पर वे बड़े खुराफाती और मौकापरस्त होते हैं। वे संगठन में घुसकर तोड़-फोड़ की नीति चलाकर संगठन को क्षतिग्रस्त करने का खतरा जताते हैं। हालांकि, वे स्पष्ट करते हैं कि “हमलोग यह मानते हैं कि दस सैकड़ा ऊंची जाति को जिंदगी के हर दौर में दस सैकड़ा जगहें चाहिए। जब हमारा दल सत्तारूढ़ होगा तो हम ईमानदारी से दस सैकड़ा जगहें उनको देंगे, क्योंकि उनकी तादाद दस सैकड़ा है।” 

शोषित समाज दल के सिद्धांत वक्तव्य में ऊंची जाति के क्रांति विरोधी चरित्र के कारणों को स्पष्टता से उल्लेखित किया गया है। देश की जनता को इंकलाबी नेतृत्व देने में ऊंची जात के असमर्थता के कारणों में बताया गया है कि प्रथम वह निम्न वर्ग को मिले तिरस्कार, अपमान और दरिद्रता की चोट से कभी चोटिल नहीं हुआ। अतः उसमें अनुभव की तीक्ष्णता का घोर अभाव है। दूसरे वह ऊंचा होने के दंभ को छोड़ने में ही असमर्थ नहीं है, वरन् उस वर्ग का हित जाने या अनजाने करने से भी अपने को विमुख नहीं कर पाता। शोषित समाज दल के सिद्धांत वक्तव्य में उच्चवर्णीय अथवा उच्चवर्गीय नेतृत्व को एकदम समाप्त करने के साथ ही निचले वर्ण अथवा निचले वर्ग के करोड़ों लोगों में से नेतृत्व सृजित करने के लिए संकल्प व्यक्त किया गया है।

स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि किसी भी स्थिति में शोषित समाज दल का नेतृत्व उच्चवर्णीय लोगों के हाथ में नहीं रहेगा। शासन में आने पर भी शोषित समाज दल इसी नीति का दृढ़ता से अनुसरण करेगा।

जगदेव प्रसाद कहते हैं कि ऊंची जात वाले आर्थिक सुधार के कुछ हद तक पक्षपाती परिस्थिति के दबाव के कारण होते नजर आते हैं, लेकिन वे सामाजिक-आर्थिक क्रांति के कट्टर विरोधी हैं। ऊंची जात वाले राजनीति और शासन की बागडोर शोषितों के हाथ में जाने देने के उतने ही कट्टर विरोधी हैं। जितना अमरीका कम्युनिज्म विरोधी है। दूसरी तरफ, यह सवाल भी खड़ा होता है कि शोषितों के क्रांति में धनाढ्यों-अमीरों की भूमिका क्या होगी? शोषितों के निछक्का दल में उनकी जगह क्या होगी? चूंकि जगदेव प्रसाद एससी, एसटी, ओबीसी और मुसलमानों को शोषित वर्ग के बतौर देखते हैं इसलिए यह सवाल लाजिमी हो जाता है।

जगदेव प्रसाद शोषितों के भीतर आर्थिक श्रेणियों की मौजूदगी से आंख नहीं मूंदते। वे शोषितों के बीच मौजूद जमीन और दौलत के मालिकों को आर्थिक शोषण की छूट देने के पक्ष में नहीं होते हैं। जरूर ही, वे मानते थे कि केवल जमीन, धन-दौलत के आधार पर कोई शासक वर्ग में शामिल नहीं हो जाता है। एक सवाल के जवाब में शोषित समाज के सेठ-पूंजीपतियों की जमीन और दौलत को भी गरीब शोषितों में बांटने की बात करते हुए भी वे शोषित और शोषक के फर्क स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं– “शोषित समाज के सेठ और पूंजीपतियों की जमीन और दौलत को छीनने में सरकार को कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन ऊंची जात के लोगों को जमीन और दौलत को बांटने में भयंकर दिक्कत होगी, क्योंकि पुलिस, मजिस्ट्रेसी, न्याय विभाग और राजनीति पर ऊंची जात का कब्जा है। हालांकि वे उल्लेखित करते हैं कि “आज तो पिछड़ी जात के अमीर भी द्विजवाद के पोषक हैं। द्विजों के नेतृत्व में चलने वाले जनसंघ, कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस, प्रसोपा, संसोपा वगैरह पिछड़ी जाति के अमीरों की थैली पर जिंदा हैं। ब्राह्मणवाद के आधार मंदिरों के निर्माता और संरक्षक पिछड़ी जात के अमीर ही हैं। वहीं दूसरी तरफ वह यह भी कहते हैं कि मगर पिछड़ी जाति के अमीर भी यह महसूस करने लगे हैं कि ऊंची जात द्वारा उनका भी सामाजिक शोषण जारी है। वे यह भी महसूस करने लगे हैं कि उनके पास पैसे तो हैं मगर सामाजिक प्रतिष्ठा में तो वे भिखमंगे ब्राह्मण से भी गए-बीते हैं।”

जगदेव प्रसाद कहते हैं कि पिछड़ी जात के अमीर आज तो द्विजों के दोस्त हैं, लेकिन कल वे हमारे साथी हो जाएंगे। लेकिन वे पार्टी को शोषितों के धनाढ्यों-अमीरों के हितों का औजार नहीं बनाना चाहते थे। पार्टी का नेतृत्व शोषितों के धनाढ्यों-अमीरों के हवाले नहीं करना चाहते थे। शोषित समाज दल के सदस्यता के प्रतिज्ञापन पर गौर करिए– “मेरी उम्र 18 वर्ष से अधिक है। मैं पुनर्जन्म को मिथ्या जानता और मानता हूं और इसके विपरीत समझने वाले को घटिया इंसान समझता हूं। शारीरिक श्रम को मैं उत्तम मानता हूं और प्रतिदिन उत्पादक शारीरिक श्रम करता हूं।” इससे स्पष्ट है कि सामाजिक क्रांति की मुख्य शक्ति मेहनतकश बहुजन हैं। ऐसी पार्टी मेहनतकश बहुजनों की हो सकती है। जगदेव प्रसाद ने जिस प्रयोग की शुरुआत की थी, वह प्रयोग बहुत आगे नहीं बढ़ पाया। लेकिन उन्होंने बुनियाद रखने का काम किया। परिवर्तनकारी बहुजन आंदोलन और राजनीति खड़ा करने के लिहाज से इस प्रयोग का खासतौर से हिंदी पट्टी के लिए ऐतिहासिक महत्व है।

संदर्भ : 

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, शशिकला, जगदेव प्रसाद वाङ्मय, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018
ओंकार शरद (संपादन), ‘भारत के शासक’ (रामनोहर लोहिया के लेख का संकलन), लोकभारती प्रकाशन, 2016

(संपादन :राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

रिंकु यादव

रिंकु यादव सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार के संयोजक हैं

संबंधित आलेख

व्यक्ति-स्वातंत्र्य के भारतीय संवाहक डॉ. आंबेडकर
ईश्वर के प्रति इतनी श्रद्धा उड़ेलने के बाद भी यहां परिवर्तन नहीं होता, बल्कि सनातनता पर ज्यादा बल देने की परंपरा पुष्ट होती जाती...
सरल शब्दों में समझें आधुनिक भारत के निर्माण में डॉ. आंबेडकर का योगदान
डॉ. आंबेडकर ने भारत का संविधान लिखकर देश के विकास, अखंडता और एकता को बनाए रखने में विशेष योगदान दिया और सभी नागरिकों को...
संविधान-निर्माण में डॉ. आंबेडकर की भूमिका
भारतीय संविधान के आलोचक, ख़ास तौर से आरएसएस के बुद्धिजीवी डॉ. आंबेडकर को संविधान का लेखक नहीं मानते। इसके दो कारण हो सकते हैं।...
पढ़ें, शहादत के पहले जगदेव प्रसाद ने अपने पत्रों में जो लिखा
जगदेव प्रसाद की नजर में दलित पैंथर की वैचारिक समझ में आंबेडकर और मार्क्स दोनों थे। यह भी नया प्रयोग था। दलित पैंथर ने...
राष्ट्रीय स्तर पर शोषितों का संघ ऐसे बनाना चाहते थे जगदेव प्रसाद
‘ऊंची जाति के साम्राज्यवादियों से मुक्ति दिलाने के लिए मद्रास में डीएमके, बिहार में शोषित दल और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय शोषित संघ बना...