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अपनी हिस्सेदारी कैसे खो देते हैं ओबीसी, जानें महाराष्ट्र के उदाहरण से (अंतिम भाग)

ओबीसी के विरोध में दलित नेता खड़ा करने का ब्राह्मणी षड्यंत्र तमिलनाडु में सफल नहीं हो सका, जिसकी वजह से वहां के दलित, आदिवासी और मुस्लिम; समाज के ये सभी घटक ओबीसी के नेतृत्व में संगठित हैं। पढ़ें, प्रो. श्रावण देवरे के इस आलेख का अंतिम भाग

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भारत के उत्तरी राज्यों में साकार हो सकता है स्टालिन का मॉडल

यह स्थापित तथ्य है कि कांग्रेस, शिवसेना, भाजपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, बीआरएस वगैरह पार्टियां शुरुआत में राजनीतिक नींव भरने के लिए ओबीसी कार्यकर्ताओं को टिकटें देती हैं। नींव पक्की होने के बाद ये पार्टियां जब सत्ता प्राप्त करती हैं उस समय ओबीसी को उपेक्षित करके मराठों-ब्राह्मणों को टिकट देती हैं। लेकिन यह बात ब्राह्मणवादी व प्रस्थापित पार्टियों के बारे में है। प्रगतिशील व फुले, शाहू और आंबेडकर को माननेवाली पार्टियों के बारे में क्या? बहुजन समाज पार्टी (बसपा) 1985 में स्थापित हुई। परंतु मंडल आयोग लागू होते ही यादवेत्तर जागृत ओबीसी कार्यकर्ताओं ने बसपा को सीधे सत्ता में पहुंचा दिया। कुछ ओबीसी कार्यकर्ताओं को विधायकी, सांसदी मिली, मंत्री पद भी मिले, लेकिन एक भी प्रभावी ओबीसी नेता का निर्माण नहीं होने दिया गया। जैसे महाराष्ट्र में प्रभावशाली ओबीसी नेता बनने की प्रक्रिया के बीच ही शिवसेना ने छगन भुजबल को पार्टी से बाहर जाने को मजबूर कर दिया, वैसे ही बसपा से भी ओबीसी नेताओं को निरंतर बाहर का रास्ता दिखाया जाता रहा। बसपा ने यदि एक भी देशव्यापी प्रभावी ओबीसी नेता का (मायावती जैसा) निर्माण किया होता तो आज बसपा देशव्यापी राष्ट्रीय पार्टी होती और सत्ता मे भी होती। ओबीसी का समर्थन खत्म होने के वजह से बसपा आज संघ-भाजपा का ‘दलित प्रकोष्ठ’ बनकर रह गई है!

मंडल आयोग के आंदोलन में रामविलास पासवान ओबीसी नेताओं के साथ मिलकर लड़े। बाद में संघ-भाजपा की साजिशों का शिकार होते हुए उन्होंने लालू के विरोध में स्वतंत्र पार्टी स्थापित किया। शुरुआत में यादवेत्तर ओबीसी की जातियों ने रामविलास पासवान को समर्थन देते हुए उनकी पार्टी को राज्यस्तरीय पार्टी बनाया। यादवेत्तर ओबीसी के समर्थन के कारण पहले ही चुनाव में उनके 35 विधायक चुनकर आए थे, लेकिन बाद में उन्होंने भी बसपा की ही तरह ओबीसी की अवहेलना की, जिसके कारण आज पासवान की पार्टी भी संघ-भाजपा की ‘दलित प्रकोष्ठा’ का हिस्सा बनकर रह गई है। 

सिर्फ ओबीसी का ही नेतृत्व ब्राह्मणवादी कांग्रेस-भाजपा को खत्म कर सकता है, इसका विश्वास ब्राह्मणों को तमिलनाडु के अनुभव से आने के कारण ओबीसी नेताओं का खलनायकीकरण करना यही एकमेव उद्देश्य लेकर ब्राह्मणवादियों ने सारे षड्यंत्र रचे।

पटना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपने पिता एम. करुणानिधि पर केंद्रित पुस्तक देते तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन

ब्राह्मणी खेमे ने अत्यंत अनुशासित तरीके से षड्यंत्र रचते हुए कांशीराम की बसपा को व पासवान की लोजपा को लालू-मुलायम के विरोध में शत्रु के रूप में खड़ा किया। लेकिन उस पर भी मात करते हुए लालू-मुलायम सिंह यादव की पार्टियां आज भी संघ-भाजपा के विरोध में शान से सीना तान कर खड़ी हैं और संघर्ष कर रही हैं।

ओबीसी के विरोध में दलित नेता खड़ा करने का ब्राह्मणी षड्यंत्र तमिलनाडु में सफल नहीं हो सका, जिसकी वजह से वहां के दलित, आदिवासी और मुस्लिम; समाज के ये सभी घटक ओबीसी के नेतृत्व में संगठित हैं। इसका क्रांतिकारी परिणाम आज हम देख रहे हैं कि कांग्रेस व भाजपा, दोनों ब्राह्मणवादी पार्टियां तमिलनाडु में खत्म हो चुकी हैं। दलितों को सबसे ज्यादा आरक्षण सिर्फ तमिलनाडु में ही मिलता है। दंगा-फसाद करवाने वाले ब्राह्मणवादी संगठन आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल आदि संगठनों का वहां कोई अस्तित्व ही नहीं है। ब्राह्मण वर्ग की जातियों को छोड़कर सभी जातियों को और सभी धर्म को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण मिलता है। यहां तक कि जन्म आधारित पुरोहितशाही के विरोध में कानून बनाकर हिंदू मंदिरों से ब्राह्मण जाति के पुजारियों को निकाल बाहर कर दिया गया है। ‘सेल्फ रेस्पेक्ट मैरिज’ कानून बनाकर विवाह समारोहों को भी ब्राह्मण पुरोहितों व उनके कर्मकांडों से मुक्त कर दिया गया है।

दूसरी ओर बिहार व उत्तर प्रदेश में दलित-मुस्लिमों का अपेक्षित समर्थन नहीं मिलने के बावजूद लालू-मुलायम अकेले ही संघ-भाजपा के विरोध में  डटकर लड़ रहे हैं। लालू-मुलायम जैसे ओबीसी नेता जब अकेले लड़ते हैं तो वे सिर्फ भाजपा की राजनीतिक पराभव कर सकते हैं। लेकिन तमिलनाडु की तर्ज पर ओबीसी के नेतृत्व में दलित+आदिवासी+मुस्लिम संगठित रूप से लड़े, तो राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक ब्राह्मणवाद को जड़ से ही उखाड़ कर फेंका जा सकता है।

तमिलनाडु के इस क्रांतिकारी अनुभव को गांठ बांधकर अब हम सभी को 2024 के लिए भूमिका लेनी चाहिए। बिहार का कर्पूरी ठाकुर फार्मूला व तमिलनाडु का स्टालिन फार्मूला, यह भूमिका लेकर ओबीसी एक पायदान उपर चढ़ा है। महाराष्ट्र के ओबीसी कार्यकर्ताओं ने ‘ओबीसी राजनीतिक मोर्चा’ गठित करके काम शुरू किया है। उसी प्रकार प्रामाणिक दलित कार्यकर्ताओं को ‘दलित राजनीतिक मोर्चा’ अथवा ‘रिपब्लिकन राजनीतिक मोर्चा’ का गठन करना चाहिए। और उसी तरह प्रामाणिक मुस्लिम कार्यकर्ताओं को ‘मुस्लिम राजनीतिक मोर्चा’ का गठन करना चाहिए। यदि ये तीनों मोर्चे संयुक्त रूप से 2024 का चुनाव लड़े तो निश्चित रूप से महाराष्ट्र में भी तमिलनाडु का मॉडल लागू हो सकता है। 

(समाप्त)

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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