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बिहार जाति सर्वेक्षण : दलित-बहुजनों की भागीदारी बढ़ाने के लिए आरक्षण कारगर औजार

प्रसन्न कुमार चौधरी के मुताबिक, दलित-बहुजनों के मामले में जो आंकड़े अभी सामने आ रहे हैं, वे यह दर्शाते हैं कि मध्य वर्ग में उनकी हिस्सेदारी है, फिर बेशक वह कम क्यों न हो। यह केवल इस कारण मुमकिन हो पाया है, क्योंकि सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण का प्रावधान है। यदि यह नहीं होता तो ऐसा नहीं कि उनकी भागीदारी नहीं होती, लेकिन समय बहुत अधिक लगता। पढ़ें, यह रपट

राज्य सरकार द्वारा गत 7 नवंबर, 2023 को जारी जाति आधारित गणना की सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी गई। इस रिपोर्ट ने जहां एक ओर जातिवार संख्या को लेकर अब तक आकलन की परंपरा को खत्म कर दिया तो दूसरी ओर इसने यह साबित किया है कि विकास संबंधित अनेक मानदंडों पर राज्य के दलित-बहुजन किस हाल में जी रहे हैं। एक अनुमान तो इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि राज्य में 91.3 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग, 94.68 प्रतिशत अति पिछड़ा, 96.28 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 95.79 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के सदस्य बारहवीं तक या उससे कम पढ़े लिखे हैं। वहीं ऊंची जातियों की 81.56 प्रतिशत आबादी भी ऐसी है, जिसने कॉलेज का मुंह नहीं देखा है।

दिलचस्प यह कि शिक्षा के स्तर पर यह अंतर आर्थिक क्षेत्र में भी दिखाई देता है। निस्संदेह सबसे कम आय पर गुजर-बसर करनेवाले दलित बहुजन ही हैं। आंकड़े बताते हैं कि अनुसूचित जाति की केवल 12.31 प्रतिशत आबादी ही ऐसी है, जिसकी आय प्रतिमाह 20 हजार रुपए या इससे अधिक है। यानी 87.69 प्रतिशत आबादी आज के युग में – जबकि खुले बाजार में नमक की कीमत 40-80 रुपए प्रति किलो और सरसों तेल की कीमत 140 रुपए प्रति लीटर से अधिक है – किसी तरह गुजर-बसर कर रही है। राज्य सरकार की रिपोर्ट के आधार पर हालात का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि सूबे में 42.93 फीसदी अनुसूचित जाति के सदस्य ऐसे हैं जो रोजाना दौ सौ रुपए या फिर इससे कम आमदनी के सहारे गुजर-बसर करते हैं। मुसहर जाति के दलित सबसे अधिक गरीब हैं। कुल 40 लाख 35 हजार 787 की संख्या वाली इस जाति के 54.56 फीसदी गरीब (रोजाना दौ सौ रुपए या फिर इससे कम आमदनी) है। 

अन्य जाति समूहों, मसलन पिछड़ा वर्ग के 19.07 प्रतिशत, अत्यंत पिछड़ा वर्ग के 15.04 प्रतिशत, और अनुसूचित जनजाति के 14.53 प्रतिशत सदस्य ही 20 हजार रुपए प्रतिमाह या उससे अधिक की आय अर्जित कर पाते हैं। अलबत्ता ऊंची जातियों के मामले में यह आंकड़ा 31.66 प्रतिशत है। 

बिहार की राजधानी पटना के एक गांव ब्रह्मपुर में अति पिछड़ा वर्ग में शामिल शिल्पकार जाति के परिवार का सदस्य

शैक्षणिक और आर्थिक आंकड़ों के अलावा वास के प्रकार के आधार पर भी बिहार में जातिगत विषमताओं को समझा जा सकता है। बिहार सरकार की रपट कहती है कि अनुसूचित जनजाति जो कि राज्य में 1.7 प्रतिशत हैं, के 57.32 फीसदी लोगों के पास पक्का मकान (दो या दो से अधिक कमरों वाला) नहीं है। वहीं अनुसूचित जाति के मामले में यह 52.05प्रतिशत है। जबकि पिछड़ा वर्ग और अत्यंत पिछड़ा वर्ग के मामले में यह आंकड़ा क्रमश: 35.18 प्रतिशत और 44.43 प्रतिशत है।

वर्गबारहवीं से अधिक पढ़ाई करनेवालों की संख्याप्रतिमाह 20 हजार रुपए से अधिक की आय प्राप्त करनेवाले* (प्रतिशत में)जिनके पास पक्का मकान है [एक कमरे का मकान शामिल) (प्रतिशत में)]जिनके पास इंटरनेट से लैस कंप्यूटर है (प्रतिशत में)
ऊंची जातियां18.4431.6674.493.15
पिछड़ा वर्ग (बीसी-2)8.6919.0764.121.27
अत्यंत पिछड़ा वर्ग (बीसी-1)5.3215.0455.570.64
अनुसूचित जाति3.7212.3147.950.37
अनुसूचित जनजाति4.2114.5342.680.62

* वे लोग जो अपनी आय की जानकारी सार्वजनिक नहीं करना चाहते हैं, उनकी संख्या सभी वर्गों में 4 से 4.85 प्रतिशत है

वर्ग और जाति के बीच संबंध के बारे में लेखक व विचारक प्रसन्न कुमार चौधरी कहते हैं कि शिक्षा, आय और रहवास की स्थिति के आधार पर बिहार में विभिन्न समुदायों के बीच खाई को समझा जा सकता है। लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि दलित-बहुजनों के मामले में जो आंकड़े अभी सामने आ रहे हैं, वे यह दर्शाते हैं कि मध्य वर्ग में उनकी हिस्सेदारी है, फिर बेशक वह कम क्यों न हो। यह केवल इस कारण मुमकिन हो पाया है, क्योंकि सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण का प्रावधान है। यदि यह नहीं होता तो ऐसा नहीं कि उनकी भागीदारी नहीं होती, लेकिन समय बहुत अधिक लगता। सामाजिक न्याय की अवधारणा ने इस भागीदारी की गति को बढ़ाया है। लेकिन अब भी बहुत दूर जाना है और अब इंतजार करने का समय नहीं है, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र की जड़ें गहरी हो चुकी हैं और वैश्वीकरण ने पूरे समाज को बदल दिया है। आज देखिए कि पेशाओं में जातीय संकीर्णताएं खत्म हो रही हैं। अभी ऊंची जाति के लोग भी अन्य तरह के पेशों को अपना रहे हैं। वे परचून की दुकान से लेकर जूतों की दुकान तक खोल रहे हैं। आप यह देखिए कि देश के सभी हिस्सों में मॉल आदि खुल रहे हैं, तो उन्हें खोलनेवाले केवल बनिया या वैश्य नहीं हैं। ऊंची जातियों के लोग भी मॉल आदि खोल रहे हैं और पिछड़ा व अत्यंत पिछड़ा वर्ग के लोग भी हैं।

प्रसन्न चौधरी का यह भी मानना है कि आरक्षण सामाजिक न्याय का सबसे मजबूत औजार है, जिसका मकसद बेशक गरीबी उन्मूलन नहीं, बल्कि प्रतिनिधित्व को बढ़ाना है। सरकार को चाहिए कि वह ऐसे कार्यक्रम बनाए ताकि सामाजिक न्याय का दायरा और विस्तृत हो।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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