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‘संजीव का सम्मान कर साहित्य अकादमी ने खुद को किया सम्मानित’

कथाकार संजीव उदय प्रकाश और शिवमूर्ति के समकालीन हैं। राजेंद्र यादव इन तीनों में संजीव को प्रेमचंद के बाद गांव-कस्बे का सबसे बड़ा लेखक मानते थे। उन्होंने सौ से ज़्यादा कहानियां लिखी हैं। ‘अपराध’, ‘आरोहण’, ‘प्रेतमुक्ति’, ‘पिशाच’, ‘ब्लैकहोल’ और ‘टीस’ जैसी चर्चित कहानी उन्हीं के नाम दर्ज हैं। बता रहे हैं मनोज मोहन

इसमें शक की गुंजाइश नहीं है कि वर्ष 2023 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित संजीव हमारे समय के बड़े कथाकार हैं। उनका जन्म भारत की आज़ादी से एक महीने नौ दिन पहले उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के एक गांव में हुआ था। शिक्षा-दीक्षा कोलकाता में हुई और नौकरी पश्चिम बंगाल के बर्द्धमान जिले के एक कस्बे कुल्टी में की। उनकी निष्ठा और संवेदना आज भी पूरी तरह जन साहित्य के साथ है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि कुल्टी कोयलांचल और शिल्पांचल के साहित्यकारों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे साहित्य जगत के लिए एक तीर्थ-सा बन गया है। कोयलांचल और शिल्पांचल में रहकर कथाकार संजीव ने मज़दूरों के मर्म को कलमबद्ध किया। यह कथन कुछ लोगों को अतिरेक की हद पार करता नज़र आ सकता है, लेकिन कुल्टी में संजीव को जिस तरह का आदर प्राप्त है, वह बिरले साहित्यकार को ही प्राप्त होता है। वे अब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र नोएडा में रहते हैं।

कथाकार संजीव उदय प्रकाश और शिवमूर्ति के समकालीन हैं। राजेंद्र यादव इन तीनों में संजीव को प्रेमचंद के बाद गांव-कस्बे का सबसे बड़ा लेखक मानते थे। उन्होंने सौ से ज़्यादा कहानियां लिखी हैं। ‘अपराध’, ‘आरोहण’, ‘प्रेतमुक्ति’, ‘पिशाच’, ‘ब्लैकहोल’ और ‘टीस’ जैसी चर्चित कहानी उन्हीं के नाम दर्ज हैं।

स्वास्थ्य ठीक न रहने के बावजूद वे अब भी लगातार लिख रहे हैं। अभी हाल ही में उनका नया उपन्यास ‘समुद्र मंथन का पंद्रहवां रतन’ सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास में हमारे समय की उस प्रमुख विसंगति और एक व्यापक मूल्यभ्रंश की शिनाख्त करता है, जिससे पूरा समाज आक्रांत है। पैसे की माया हर जगह सिर चढ़कर बोल रही है और इसके असर में रिश्ते-नाते, आपसदारियां, रीति-रिवाज, परंपराएं, पुरानी मूल्य व्यवस्था से लेकर लोकलाज तक सबकुछ टूटता-बिखरता जा रहा है।

संजीव इस उपन्यास से पहले भी स्वतंत्रता के बाद के भारतीय समाज के संश्लिष्ट यथार्थ को अपने लिखे एक दर्जन उपन्यासों में प्रस्तुत करते रहे हैं। इस क्रम में वे आदिवासी वंचना, जाति व्यवस्था, जनविरोधी विकास, सामाजिक असमानता, अवसरवादी राजनीति और मनुष्य के भविष्य जैसे विषयों एवं उससे संबंधित समस्याओं, सवालों और अंतर्विरोधों से टकराते रहे हैं। उनकी सामाजिक चिंताओं का परिदृश्य वैश्विक रहा है। उनकी रेंज इतनी व्यापक है कि वे ‘सूत्रधार’ जैसे जीवनीपरक उपन्यास के बाद ‘रह गई दिशाएं इसी पार’ लिखते हैं, जो वैज्ञानिक चेतना संपन्न उपन्यास है। ‘सावधान! नीचे आग है’ 27 दिसंबर, 1975 को धनबाद से करीब 20 किलोमीटर दूर चासनाला की भयावह दुर्घटना पर केंद्रित है, जिसमें 375 खनन मजदूर मारे गए थे, ‘जंगल जहां शुरू होता है’ में प्रशासन की जटिलताएं और विफलताओं के कारणों को उजागर किया गया है। वर्ष 2015 में लिखा ‘फांस’ उनका महत्त्वपूर्ण उपन्यास रहा है। इसमें भी हमारे समय की ध्वनियां साफ़-साफ़ सुनी जा सकती हैं। उनकी यह कृति बताती है कि असल राजनीति और उसका अर्थशास्त्र तो समाज के कुछ खास वर्गों के हाथ में है जो तय करते हैं कि रस्सी कब गले की टाई होगी, कब माला और कब फांसी का फंदा। 

कथाकार संजीव

संजीव अपने कृतित्व में लोकतांत्रिक मूल्यों के अवसान और सामाजिक व्यवहार में बाज़ार के बढ़ते हस्तक्षेप को बार-बार दर्ज करते हैं। उनकी एक बड़ी चिंता यह रही है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में गांव, किसान और किसानी का चरित्र आज भी औपनिवेशिक क्यों बना हुआ है?

वरिष्ठ पत्रकार और कवि प्रकाश चंद्रायन का कहना है कि “कथाकार संजीव साहित्य अकादमी सम्मान के बहुत पूर्व साहित्यिक और साहित्येतर पाठकों में सम्मानित रहे हैं। उनके पाठकों को अप्रिय लगता रहा कि किन अज्ञात कारणों से उन्हें उनका प्राप्य नहीं मिला है। खैर, उन्हें सम्मानित कर अकादमी भी सम्मानित हुई है। वे पहले ही पहचाने जा चुके थे, लेकिन ‘मुझे पहचानो’ ने उनको सांस्थानिक पहचान दी है। यह स्वागत योग्य है। कुछ टिप्पणीकार कहते रहे हैं कि संजीव ‘प्रोजेक्ट रायटर’ हैं यानी क्रिएटिव नहीं हैं! रचनाशाला भी एक प्रयोगशाला है और प्रयोगशाला भी रचनाशाला है। रचनात्मक विधाएं नया प्रयोग ही होती हैं। पुनरावृत्तीय रचनाओं को भी नवता में व्यक्त होना पड़ता है। संयोगवश संजीव पेशे से प्रयोगशालाजीवी रहे हैं, और इसलिए साहित्य में भी प्रयोगधर्मी रहे हैं। लेकिन, उनका लेखकीय प्रयोग यथार्थ का सहचर और बौद्धिक ईमानदारी का मानक रहा है। ‘सूत्रधार’ उपन्यास लोक और काल का अन्यतम उदाहरण है।”

यह सच है कि प्रेमचंद की तरह संजीव ने भी कभी अतीत गौरव का राग नहीं गाया। उनके कथा साहित्य को इससे एक ख़ास तरह की प्रौढ़ता, प्रखरता और चमक मिली है। ‘हंस’ पत्रिका के वर्तमान संपादक संजय सहाय कहते हैं कि “संजीव को यह सम्मान बहुत देर से मिल रहा है। यह बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। संजीव ‘हंस’ से वर्षों तक जुड़े रहे हैं। इस बात की हमें, इस कारण से और भी ज्यादा खुशी है। और वे मेरे प्रिय लेखक रहे हैं।”

वहीं वरिष्ठ लेखक रणेंद्र का कहना है कि “झारखंड और आदिवासियत भी संजीव की लेखनी का विषय रहे हैं। उनके तीन उपन्यास ‘सावधान! नीचे आग है’ (वर्ष-1986), ‘धार’ (वर्ष-1990), ‘पाँव तले की दूब’ (वर्ष-1995) में झारखंड आदि विषय बने। कोयला खदान, आदिवासी-आदिवासियत और झारखंड आंदोलन उपन्यास ‘जंगल जहां शुरू होता है’ में बिहार, चंपारण के थारू आदिवासियों की दारूण कथा हमारे सामने प्रकट होती है। आदिवासी, दलित, स्त्रियों के पक्षधर और उनकी पीड़ाओं-दुखों को उकेरने वाले इस लोकवादी रचनाकार को साहित्य अकादेमी ने पुरस्कृत करने का निर्णय लेकर स्वयं अपनी वैधानिकता और विश्वसनीयता स्थापित करने की कोशिश की है।”

संजीव खुद कहते हैं– “जो लिखता हूं, वही बन जाता हूं। हर चीज़ में ढल जाता हूं। लिखना परकाया प्रवेश है, जिसका मैं निर्वाह कर सकूं और जिससे समाज का भला हो, वही लिखूं।”

साहित्यकार रविभूषण का कहना है कि “साहित्य अकादेमी ने आख़िर ‘मुझे पहचानो’ उपन्यास की पह‌चान कर ही ली। उसने देर से ही सही, संजीव का महत्त्व समझा। ‘देर आयद दुरुस्त आयद’, संजीव को साहित्य अकादेमी का पुरस्कार ‘जंगल जहां शुरू होता है’, ‘सूत्रधार’, ‘फांस’, ‘रह गयीं दिशाएं इसी पार’ और ‘प्रत्यंचा’ में से किसी एक उपन्यास पर मिल जाना चाहिए था। उन्हें पुरस्कृत कर अकादेमी ने अपना क़द ऊंचा किया है। अपनी इज़्ज़त बढ़ाई है। इस पुरस्कार से संजीव का क़द ऊंचा नहीं हुआ है। निर्णायक मंडल के सभी सदस्य धन्यवाद और बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने अपने समय में यह निर्णय लिया।”

रविभूषण आगे कहते हैं कि “संजीव हिंदी के बेहद प्रतिष्ठित कथाकार हैं। विगत पचास वर्ष से उनका लेखन अनवरत जारी है। उनका कथा-संसार व्यापक है। वे अपने समय में सर्वाधिक ‘रिसर्च’ करने वाले कथाकार हैं। उन्होंने नई कथा-भूमि में जो फ़सलें उगाई हैं, वे शायद ही कभी मुरझायें या नष्ट हों। अन्याय, शोषण, दैन्य, छल, विषमता के विरुद्ध उन्होंने कथा-साहित्य की रचना की है। इस दृष्टि से लेखन उनके लिए लड़ाई का मैदान भी है। वे एक साथ कलम के ‘मज़दूर’ और ‘सिपाही’ होने के कारण, अपनी वर्गीय दृष्टि के कारण, यथार्थ को संश्लिष्ट रूप में प्रस्तुत कर आकांक्षित यथार्थ की रचना के कारण प्रेमचंद की परंपरा में हैं। आरंभ से ही उनके यहां वर्तमान व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। वे प्रगतिशील, परिवर्तनकामी प्रतिबद्ध कथाकार हैं। हिंदी और भारतीय समाज विविध रूपों में उनकी कथाकृतियों में मौजूद है। संजीव के उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ की अर्थवत्ता की पहचान करने वाले निर्णायक मंडल ने एक बड़ा कार्य किया है। उन्होंने केवल एक कृति विशेष को ही पुरस्कृत न कर संजीव की साहित्य-साधना का सम्मान किया है। वे विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं। साहित्य अकादेमी ने अपने चेहरे पर जमी धूल थोड़ी ही सही, साफ़ की है।”

शिवमूर्ति से संजीव की गहरी आत्मीयता रही है। आस्ट्रेलिया में प्रवास कर रहे शिवमूर्ति ने उन्हें बधाई देते हुए कहा कि “संजीव जी को मिला साहित्य अकादमी पुरस्कार लेखकीय प्रतिभा को मिला सम्मान है। हम इसका स्वागत करते हैं। हर बार निर्णायक समिति अलग-अलग लोगों से निर्मित होती है, इसलिए किसी को इसके लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता कि इसे संजीव जी को पहले क्यों नहीं दिया गया। ‘कहैं कबीर बही सो बही, जब से चेतो तब से सही’। योग्य को चुनने से चुनने वाले की महिमा भी बढ़ती है जैसी इस चुनाव से बढ़ी।”

समालोचन पत्रिका के संपादक अरुण देव का कहना है कि “2023 का हिंदी का साहित्य अकादेमी पुरस्कार वरिष्ठ कथाकार संजीव को उनके उपन्यास ‘मुझे पहचानों’ को मिलना मैं समझता हूं कि एक तरह से क्षतिपूर्ति है। उन्हें यह सम्मान पहले ही मिल जाना चाहिए था। निर्णायक समिति ने अच्छा निर्णय लिया है। जब किसी योग्य को सम्मानित किया जाता है तब वह संस्था भी अपनी विश्वसनीयता सिद्ध करती है। और सम्मान का मान भी बढ़ता है। एक तो मैं यह कहना चाहता हूं कि इसकी सम्मान राशि बढ़नी चाहिए। कम-से-कम दस लाख तो हो, जिससे सम्मानित लेखक अपनी औसत आवश्यकताएं कुछ समय के लिए पूरी कर सके।

संजीव का यह उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ सत्ता और लोक के संघर्ष की अद्भुत कथा कहती है, जिसमें हमारे वर्तमान को समझने के सूत्र छिपे हुए हैं। इसकी तुर्शी (रुष्टता) भी मैं समझता हूं। यह हिंदी उपन्यास की उपलब्धि है।”

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

मनोज मोहन

हिंदी के साहित्यिक-सांस्कृतिक दुनिया में निरंतर सक्रिय रहने वाले मनोज मोहन चर्चित कवि और समालोचक रहे हैं। संप्रति सीएसडीएस, नई दिल्ली की पत्रिका ‘प्रतिमान : समय समाज संस्कृति’ के संपादकीय विभाग से संबद्ध हैं।

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