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समाजिक न्याय के सांस्कृतिक पुरोधा भिखारी ठाकुर को अब भी नहीं मिल रहा समुचित सम्मान

प्रेमचंद के इस प्रसिद्ध वक्तव्य कि “संस्कृति राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है” को आधार बनाएं तो यह कहा जा सकता है कि बिहार की राजनीति में जो परिघटना 90 के दशक में घटती है, भिखारी ठाकुर उसकी पूर्व-पीठिका तैयार करते हैं। बता रहे हैं अनीश अंकुर

भिखारी ठाकुर (18 दिसंबर, 1887-10 जुलाई, 1971) पर विशेष

पिछले कुछ वर्षों से बिहार में भिखारी ठाकुर की जयंती पर में कई आयोजन होने लगे हैं। ढ़ाई-तीन दशकों के दौरान भिखारी ठाकुर की लोकप्रियता में काफी इजाफा हुआ है। जबकि भिखारी ठाकुर की जन्मशती वर्ष (1987-88) में आयोजनों की शायद ही किसी को याद है। उनका मशहूर नाटक ‘बिदेसिया’ बिहार मजदूरों के पलायन की परिघटना का जैसे जीवंत प्रतीक बन चुका है। उनकी तमाम कृतियां ग्रामीण जीवन का जीवित दस्तावेज मानी जाती हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि अब भी सामाजिक न्याय के इस सांस्कृतिक पुरोधा को समुचित सम्मान नहीं दिया जा रहा है। 

वैसे तो भिखारी ठाकुर अपने जीवन में ही लीजेंड का दर्जा पा चुका थे। लेकिन पिछले दो-ढ़ाई दशकों के दौरान भिखारी ठाकुर का जैसे पुनः आविष्कार हुआ हो। कई पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ है। छपरा में उनकी एक मूर्ति भी स्थापित है। लेकिन बिहार की राजधानी पटना में न तो उनकी कला का विस्तार देने के लिए कोई सरकारी शोध संस्थान है और न ही उनकी कोई मूर्ति नहीं है। पटना में सचिवालय के सामने का पुल का नाम उनके नाम से जरूर जाना जाता है। 

विशेषकर बिहार में 90 के दशक में यानी पिछड़े-दलितों के सशक्तीकरण के दौर में भिखारी ठाकुर बिहार के सांस्कृतिक गौरवस्तंभ बने। राजनीतिक सत्ता समाज के हाशिए पर रहने वाले बहिष्कृत तबकों को भले ही अब मिली हो, लेकिन भिखारी ठाकुुर ने हमेशा अपने नाटकों के किरदार इन तबकों से आने वाले चरित्रों को बनाया। उनके नाटकों के पात्रों केा देखने से ही इसका अंदाजा हो जाता है। बिदेसी, चेथरू, उपद्दर, गलीज, भलेहू, उदवास, चपाटराम ये सभी भिखारी ठाकुर के पात्र थे। इस अर्थ में सियासत से पूर्व संस्कृति की दुनिया में निचली जातियों को भिखारी ठाकुर ने अपना नायक बनाया। 

प्रेमचंद के इस प्रसिद्ध वक्तव्य कि “संस्कृति राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है” को आधार बनाएं तो यह कहा जा सकता है कि बिहार की राजनीति में जो परिघटना 90 के दशक में घटती है, भिखारी ठाकुर उसकी पूर्व-पीठिका तैयार करते हैं।

छपरा में भिखारी ठाकुर व उनके साथियों की प्रतिमा

अब भिखारी ठाकुर के सृजनात्मक योगदान के बारे में नये सिरे से मूल्यांकन किया जा रहा है। ये सब उनकी मृत्यु के लगभग पार-पांच दशकों पश्चात हो रहा है। खुद भिखारी ठाकुर को भी इस बात का अंदाजा रहा हो, तभी अपनी मौत के लगभग दो-तीन वर्ष पूर्व उन्होंने कहा था– 

अबहीं नाम भइल बा थोरा, जब ई छूट जाई तन मोरा
तेकरा बाद पचास बरीसा, तेकरा बाद बीस-दा तीसा
तेकरा बा दनाम हाई जईहन पंडित,कवि, सज्जन यश गईहन

यानी लोग मेरा महत्व मेरी मौत के बीस-तीस वर्ष बाद समझना शुरू करेंगे। 

भिखारी ठाकुर अपनी सभी कृतियां भोजपुरी में किया करते थे। वे कहते– “भोजपुरी घर के गुर हे”। भोजपुरी भाषा की ताकत केा पहचानने के लिए महापंडित राहुल सांस्कृत्यान भिखारी ठाकुर का नाम लेते हैं– “हमनी के बोली में केतना जोर हवे, केतना तेज बा, इ अपने सब भिखारी ठाकुर के नाटक में देखीले।”

भिखारी ठाकुर को ‘अनगढ़ हीरा’, ‘भोजपुरी का शेक्सपीयर’ एवं ‘भरतमुनि का वंशज’ जैसी उपाधियों से विभूषित किया गया। 1954 में मेदिनीपुर के कचरापाड़ा (चौबीस परगना) में इनकी कला केा लेकर बड़े पैमाने पर समीक्षा गोष्ठी हुई थी और इसी गोष्ठी में भिखारी ठाकुर सम्मानित किए गए। 

उनके नाटकों में मनोरंजन के साथ-साथ समाज सुधार का सवाल अनिवार्य प्रश्न था और इसमें भीi स्त्रियों की दुर्दशा मुखर थी। कहा जाता है कि परंपरागत पेशेे (हज्जाम) ने सवर्ण घरों की स्त्रियों की दुर्दशा व दयनीयता से उन्हें भलीभांति परिचित करा दिया था। बेमेल विवाह पर उनका मशहूर नाटक ‘बेटी-बेचवा’ के संबंध बताते हुए भिखारी ठाकुर पर शोध करने वाले तैय्यब हुसैन ‘पीड़ित’ कहते हैं– “बेटी-बेचवा नाटक के प्रभाव से कथित बड़े घरों की प्रौढ़ लड़कियां और अधिक इंतजार न कर अपने प्रेमियों के साथ भागने लगी थीं। भिखारी ठाकुर के इस नाटक रूपी विरोध में कहीं-न-कहीं समाज के आम लोगों के हित में बढ़ रहे प्रगतिशील कदम भी थे।” इस नाटक में कमसिन (कम उम्र की) बेटी की शादी वृद्ध व्यक्ति से विवाह कर दिए जाने पर उसकी तकलीफ को इस गीत से समझा जा सकता है–

रूपिया गिनाई लिहल, पगहा धराई दिहल
चेरिया के छेरिया बनवल हो बाबूजी।

अर्थात, जिस तरह रुपए के बदले मवेशी की रस्सी किसी भी ग्राहक के हाथ में थमा दिया जाता है, पिताजी! आपने अपनी बेटी के साथ भी वैसा ही किया।

इस नाटक का उत्तरार्द्ध ‘विधवा-विलाप’ नाटक को माना जाता है, जिसमें कम उम्र में विवाह का परिणाम वैधव्य में होता है। विधवा औरत के प्रति उपेक्षा व दुर्दशा केा चित्रित करता ये नाटक ‘बूढ़शाला’ यानी ‘ओल्ड ऐज होम’ की मांग करता है। भिखारी ठाकुर के जमाने में ‘ओल्ड ऐज होम’ की कल्पना वाकई में अपने समय से आगे देखने की उनकी दूरदृष्टि का परिचायक है।

स्त्रियों केा केंद्र में रखकर लिखे गए नाटकों में उनका प्रौढ़ नाटक ‘गबरघिचोर’ का नाम लिया जाता है। पति की गैरमौजूदगी में किसी परपुरूष से यौन संबंध स्थापित हो जाने को भिखारी ठाकुर स्वाभाविक मानते हैं। साथ ही बच्चे पर माता अधिकार की बात स्त्रियों अधिकार के पक्ष एक बेहद आगे बढ़ा हुआ प्रगतिशील कदम है।

भिखारी ठाकुर का सबसे चर्चित नाटक ‘बिदेसिया’ आज एक रंगशैली बन चुकी है। ‘बिदेसिया’ की परिघटना को समझने की संजीदा कोशिश चंद्रशेखर (सीवान के रहने वाले जे.एन.यू. छात्रसंघ के भूतपूर्व अध्यक्ष, जिनकी 31 मार्च 1997 को सीवान में हत्या कर दी गई थी) ने ऐतिहासिक संदर्भ में किया है– “सारण के निम्न वर्गों की भौतिक खुशहाली का आधार प्रवास और दूर देश से आने वाली नियमित आमदनी थी, तो इस प्रवास से पैदा भावानात्मक उथलपुथल ने बिदेसिया नामक नई सांस्कृतिक विधा के लिए माहौल मुहैया कराया।” चंद्रशेखर के अनुसार प्रवास की परिघटना की जड़ में सारण के किसानों की ‘प्रतिरोध से बचने’ की रणनीति है। चंद्रशेखर र्की अंतदृष्टिसंपन्न टिप्पणी ध्यान देने योग्य है– “बिदेसिया केवल अनजानी दुनिया में अपनी पहचान उभारने की प्रवासियों के आकांक्षा की ही अभिव्यक्ति नहीं है, यह अपने देश की ‘पुरानी’ व्यवस्था की आलोचना का प्रयास भी है।” 

भिखारी ठाकुर ने नाटकों के माध्यम से समाज सुधार की चेतना बंगाल से प्राप्त की। तैय्यब हुसैन ‘पीड़ित’ मानते हैं कि– “भिखारी ठाकुर पारंपरिक भक्ति नाट्य (रामलीला, रासलीला) के साथ ही आगे यात्रा (बंगाल की एक नाट्य विधा) से प्रभावित होने लगे। बंगाल के अकाल के बाद उन्होंने यह देखा कि यात्रा पर भी बदलते देशकाल का प्रभाव पड़ रहा है। बंगाल के अकाल के बाद उसके कथ्य में तेजी से बदलाव आने लगा है। यही समय था जब भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) प्रकाश में आ चुका था। उसने कला के साथ समसामयिक समस्याएं रखनी शुरू कर दी। भिखारी ठाकुर को भी लगा कि कला के माध्यम से समाज सुधार का काम किया जा सकता है।”

बहरहाल, कई लोग भिखारी ठाकुर पर यह आक्षेप लगाते हैं कि उनके नाटकों में आजादी की लड़ाई की अनुगूंज सुनायी नहीं पड़ती। प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह की ‘भिखारी ठाकुर’ पर लिखी मशहूर कविता की पंक्तियां हैं–

इस तरह एक श्वास से दूसरी भोर तक
कभी किसी बाजार के मोड़ पर
कभी किसी उत्सव के बीच खाली जगह में
अनवरत रहता रहा
वह अजब सा, बेचैन सा
चीख भरा नाच
जिसका आजादी की लड़ाई में कोई जिक्र नहीं
पर मेरा ख्याल है चर्चिल को सब पता था

इस लंबी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं–

और अब यह बहस तो चलती ही रहेगी
कि नाच का आजादी से रिश्ता क्या है ?
और अपने
राट्रगान की लय में ऐसा क्या है
जहां रात-बिरात टकराती है बिदेसिया की लय। 

 (संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनीश अंकुर

लेखक बिहार के वरिष्ठ रंगकर्मी हैं

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